शनिवार, 18 जुलाई 2009

असुरक्षित द्रोपदी

वसंती बड़ी मुश्किल से माचिस और ढ़िबरी ढूंढ़ पायी. ढ़िबरी जला कर फिर कंबल में दुबक गयी. कंबल तो नाम मात्र का ही रह गया था. उस पर दसों पेंबंद लगा चादर का खोल, कंबल कम कंथा अधिक है. नीचे का पुआल ही थोड़ा सहारा है. नहीं तो इस झोपड़ी में आकर वो जम ही जाती. उसकी झोपड़ी इससे कुछ अलग नहीं थी. थोड़ी बदहाल कम जरूर थी. आखिर उसका खर्च ही क्या था. अकेली के लिए रोज की तीस रुपये की मजदूरी उसके लिए काफी ही थी. काम चल ही जाता था. उसे चिंता होती है, अभी तक उसका नवौढ़ा पति आया क्यों नहीं. उसके लिए ही खाने-पीने की चीज लाने गया है. आता ही होगा. दो चार लोग मिल गये होंगे, छेड़-छाड़ चल रही होगी. किसी के घर से अच्छे खाने की खुशबू आती है. उसकी भूख और तेज हो जाती है. भूख तो उसका नसीब बन चुका है. आज भी.. ....
यहां के घरों से अच्छे खाने की खुशबू आना लाजमी है.. ये झोपड़ी बड़ी-बड़ी इमारतों के पिछवाड़े बनी है...नहीं तो हमेशा यहां एक सड़ी सी बदबू आती रहती है...इस इलाके का सारा कूड़ा यहीं जमा होता है. और इसी कूड़े के ढेर पर बनी है रघू की झोपड़ी.
वसंती सोचती है. दो चार दिन में मैं अपना सब समान ले आऊंगी और यहीं किसी घर में चौका-बर्तन का काम भी ढ़ूंढ लूंगी, सौ-पचास रुपये तो महीने में कमा ही लूंगी. और घरों से अच्छा खाना-नाश्ता भी मिल जाया करेगा और क्या चाहिए.आखिर घर में रह कर भी क्या करूंगी. ये जो रिक्शा चलाता है, उसके पैसे से मिला-जुलाकर किसी तरह घर गृहस्थी की गाड़ी चल ही जाएगी.
वसंती आज ही रघु से सगाई कर ( शादी ) इस घर में आयी है. रघु जवानी के दिनों से ही रिक्शा चलाने का काम करता आ रहा है. उस समय रिक्शे की कमाई से अच्छी आमदनी हो जाया करती थी. एक दिन में वो सौ-सबा सौ रुपये तक कमा लेता था. जवानी में खाया-पीया और ऐश किया. शादी की, बच्चे हुए, उन्हें पाला-पोसा जवान किया. उन्हें काम धंधों पर लगाया. बीवी वक्त से पहले मर गयी.बच्चे अपने-अपने रास्ते लग गये. अब किसे फुर्सत है, इस बूढ़े की देख-भाल करने की. जब उनका अपना ही पेट खाली हो तो दूसरे को कोई क्यों पूछे? अब जमाना भी बूढ़े मां-बाप को पूछने का नहीं रहा. मां-बाप,बेटा-बेटी सब अपनी ही दुनिया में खोये हुए हैं,उन्हें रोजी-रोटी से फुर्सत ही कहां है. उसके बेटों की नीयत
भी ठीक नहीं.


अब तो वे सोचते हैं कि बूढ़े का पैर कब्र में लटका है, कब फिसल जाए और उसका पुराना रिक्शा भी उसका ही हो जाए. दूसरों का रिक्शा चलाने से क्या फायदा. आधी कमाई तो उधर ही चली जाती है. कुछ रिक्शा मालिक के पास तो कुछ कारपोरेशन वालों को देना पड़ता और कुछ पुलिस वालों को. नया रिक्शा खरीदने की उनकी औकात कहां? पुराने का दाम ही हजार डेढ़ हज़ार से ज्यादा हो गया है. अब बाबू का जीना भी किस काम का. अब क्या बचा है, उसकी जिन्दगी में, पचास की उम्र तो पार ही कर चुके हैं..
कहते हैं, साठ तो पाठ. लेकिन रघु पचास में ही सत्तर का लगता है. जो भी हो बूढ़ा तो बूढ़ा होता है. चाहे पचास में बूढ़ा दिखे या सौ साल में. इंसान बूढ़ा लगने से बूढ़ा होता है. रघु ने भी सोचा बुढ़ापे में देख-रेख के लिए भी कोई न कोई होना ही चाहिए न. बेटे बहू का क्या आसरा? रोटी-पानी देने वाले की जरूरत हर किसी को होती है. रघु को भी थी. और पैंतीस की उम्र पार कर चुकी वसती को भी. वो बेसहारा थी, उसे भी सहारे की तलाश थी. सहारा उसे भी चाहिए था. उसे प्रेम की समझ कहां? इस उम्र में देह की भूख कहां रह जाती है? है भी तो उसे इसका एहसास कहां? बस उसे सहारा चाहिए. पेट की आग तो खुद भी कमा कर बुझा लेती.
वसंती की उम्र पैंतीस की होगी. उसकी उम्र का भी कहां लेखा-जोखा है. लोग समझते हैं बस. उसके चेहरे पर बुढ़ापे की झलक दूर तक नहीं. गठा हुआ बदन. शरीर के उतार-चढ़ाव से वो पूरी जवान नज़र आती है. अब उसे चिंता किसी बात की नहीं, न मान की न मर्यादा की. अकेली कमाती-खाती थी. जो दुख था भी वो वर्षों पहले छोड़ आयी थी. अब तो उसे ख्याल तक नहीं आता. चार मर्द कर के भी वो कहां सुख पा सकी. पहले पति से तो उसका आज जवान बेटा होता. यदि वह जिन्दा होता तो शायद आज उसे ये दिन नहीं देखने पड़ते. औरत अपने बच्चों की सूरत देख कर सारी जिन्दगी काट लेती है. वो भी काट लेती. भले ही उसका पति रहे या न रहे. क्या कमी थी, उस घर में. भरापूरा घर था. अपनी खेती होती, अनाज के बोरों से घर भरा रहता. घर की चौखट पार करना भी हेठी समझी जाती थी. लेकिन उसका पति ही निकम्मा निकला. दस साल का बेटा बुखार से तप कर मर गया लेकिन उसे पैसे कमाने से फुर्सत कहां थी. बेटा मरते ही उसके लिए घर के दरवाजे भी बंद हो गये. लगा था बेटे के साथ-साथ उसकी भी मौत हो गयी. उसकी कोई संतान नहीं थी. उसकी देह पति लिए किसी काम की नहीं थी. पंसद तो अपने पति की कभी रही ही नहीं. फिर उसकी जरूरत ही क्या थी. घर से निकालते ही... उसने दूसरी शादी कर ली.
रघु ने बड़े प्यार से कहा. ले खा ले. तो वो अपने बीते दिनों से बाहर निकल कर आयी. वो कह रहा था, "कल से चूल्हा चौके का इंतजाम हो जतऊ,तब अपने बनइहें खईहें"..उसके हाथों में कचौड़ी-जलेबी का दोना था. उसे अच्छा लगा. रघु उसकी उम्र से दोगुना जरूर लगता है, पर वो उसका ख्याल तो रखता. उसे तसल्ली होती है.उसे वो दिन याद हो आया, जब उसकी पहली शादी हुई थी. तब कितना धूम-धड़ाका हुआ था. ब्याह का तो उसे ज्यदा कुछ याद नहीं. शादी में तो वो ससुराल भी नहीं गयी थी. रोस्गदी में ही उसकी मां ने उसे लाद-साज कर ससुराल भेजा था. सामान देख कर उसकी सास खूब खुश हुई थी. पर उसका चेहरा देखते ही मुंह बनाया था. सबसे कहती फिरती थी, अगर हम एकरा बिआह में देखती अई हल तब रोस्गदिये न करतीये हल. हमर गोरा चिठ्ठा बेटा में तो ई पेऊन लगहई. हम एकरा साथ अपन बेटा के न रहे देबई. औकरा हम दूसर बियाह करबई. ( अगर मैं शादी के वक्त देखती, तो इसे विदा कराके घर ही नहीं लाती. मेरे गोरे-सुन्दर बेटे में ये पैंच सी लगती है. मैं इसके साथ अपने बेटे को नहीं रहने दूंगी. दूसरी शादी करवा दूंगी) वसंती को किसी तरह एक बेटा हुआ, लेकिन वो भी न रहा. वैसे भी उसके पति ने उसे अपना बेटा कभी नहीं समझा. उसकी शकल मां की तरह. आखिर काली कलूटी वसंती का बेटा भी काला. इसी उपेक्षा ने उसके बेटे की जान तक ले ली. वो एकदम बेसहारा सी हो गयी.
उसे याद हो आया, एक दिन उससे रघु ने पूछा था, ऊ दिन तोरा से रामजन मिस्तिरी का कहत रहऊ?..वसंती चुप रही, कहती भी तो क्या ..जितनी अभद्र बातें वो कह रहा था, वैसी बातें कोई शरीफ औरत अपने मुंह से नहीं कह सकती. लेकिन वो तो अब ऐसी बातें सुनने की आदी हो गयी है. मर्दों के साथ जब कुली-बेलदारी का कमा करना है, तो सब कुछ सुनना-सहना ही पड़ेगा. इंसान को पेट के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता. वह मेहनत-मजदूरी कर के दो वक्त की रोटी कमाती रही है. देह का तो सौदा नहीं करती. अगर किसी से समझौता किया भी तो सिर्फ सहारे के लिए. रघु से शादी भी तो एक समझौता ही है न. पता नहीं इस बूढ़े का...क्या ठिकाना. पता नहीं कब...
एक दिन तो हद ही कर दी थी रामजन मिस्त्री ने तो, कह रहा था तू ऊ राजमिस्त्री के साथ रहहलीं तब तोरा सरम न लग हलऊ. कौन मार बियाह कर के रहहले रखनीये न हले.कौन हम तोरा जिन्दगी भर साथ रहे ला कह रहलिअऊ हे. रात दू रात के तो बात हऊ. पैसा चाहिअऊ तो रख ले दस पांच रुपया. और का चाहउ लाख दो लाख, ( जब तुम उस राजमिस्त्री के साथ रहती थी, तो तुम्हें शर्म नहीं आती थी. क्या तुम ने शादी की थी. उसकी रखैल ही तो थी. मैं तुम्हें जिन्दगी भर साथ रहने को कह रहा हूं, रात दो रात की तो बात है. पैसा चाहिए तो रख लो दस-पांच रुपये और क्या तुम्हें, लाख दो लाख चाहिए) मर गयी थी, वो जीते जी मर गयी थी, लगा आसमान फट पड़ा है. उसके सामने. काश जमीन फट जाती. वो रामदेव मिस्त्री के साथ रहती थी. बिन ब्याहे ही तो क्या हुआ. उसने उसे मान-सम्मान और प्यार तो दिया ही था. उसने उससे ऐसी गंदी बातें नहीं कीं. अगर ब्याह न किया तो न सही. माना इसमें उसका स्वार्थ ही रहा होगा. कमाऊ औरत खुद अपना पेट पाल लेती थी, उसके लिए रोटियां भी सेक देती. अगर आज वो होता तो किसी को ऐसी बातें करने की हिम्मत नहीं होती. कुछ रिश्ते मन से जुड़े होते हैं, उसके लिए शादी- ब्याह जैसे रीति की जरूरत नहीं होती. भले लोगों की नज़र में वो रिश्ता नाजायज हो, लेकिन जिस रिश्ते को आत्मा स्वीकार करती हो, वो रिश्ते कभी नापाक नहीं होते. गलत तो वो रिश्ते होते हैं, जो दिखावट में कुछ और असल में कुछ और होते हैं, और जिन्हें छुपाने के लिए रिश्तों की आड़ देने की जरूरत होती है. वसंती को इतनी समझ कहां पर उसे रामदेव मिस्त्री का साथ सुकून देता था.
रामदेव के जाने के बाद लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे, लोग कहते वसंती को रामदेव धोखा दे गया. दिल भर गया होगा. पता नहीं क्या-क्या. पर वो जानती है, रामदेव का जाना लाचारी थी. उसके बीवी-बच्ची थे. वो उन्हें छोड़ नहीं सकता था. उसने उससे कुछ छुपाया भी तो नहीं, उसकी बेटी जवान थी, शादी की फिक्र थी उसे, वो उन लोगों में कम से कम नहीं था, जो न तो बीवी से वफादारी करते हैं और न किसी और से. जो भी हो आखिर उसे मिला क्या. सिर्फ दरदर की ठोकरें खाने के सिवाय. चार मर्द कर के भी. उसे क्या सुख मिला, उसकी किस्मत में वक्त से समझौता करने के सिवाय रखा क्या है.
वसंती की दूसरी शादी की भी लम्बी कहानी है. जब वो पहले पति के घर से बेरहमी से निकाली गयी थी, तब वो चार कोस पैदल चल कर अपने मायके गयी थी. महीना दो महीना तो लोगों ने खिलाया- पिलाया और फिर, भाई-भाभी के ताने-बाने शुरू हो गये. और फिर शादी की सलाह, मां-बाप के बिना मायके क्या, आखिर ब्याह दी गयी, सात बच्चे के पिता लंगड़े खैनी बेचने वाले से. घर चलाना आसान नहीं था, उसके लिए, उसे भी सर पर टोकरी उठानी पड़ती. दिन भर की बेलदारी की थकान शाम होते ही घर में कलह और मार-पीट. अपनी कमाई खा पी कर उड़ा देता और उसकी कमाई से घर चलता. ऐसा कब तक चलता. आखिर औरत थी, अपना बच्चा पालना होता तो सब सह लेती. पर सतवा( सौतेले) के लिए कौन सहता है. सात सालों तक सहती रही. आखिरकार वो घर भी छोड़ना पड़ा उसे. उस घर से निकलने के बाद एक बार फिर बेसहारा हो गयी. दर दर की ठोकरें खाने के बाद, उसका सहारा बना रामदेव मिस्त्री. रामदेव से उसे अपनापन मिला था. क्यों नहीं रहती उसके साथ, उसका सुख-दुख समझता था वह. पर बरसात का मौसम और मर्द पर क्या भरोसा. बदलने के सौ बहाने होते है. शायद लोग सच ही कहते हैं. रामदेव ने बसंती को धोखा दिया. वह भी कभी-कभी ऐसा ही सोचती है.
रघु भला आदमी है, बाप जैसा लगाता है. मजबूरी जो न कराये. नारी चाहे कितनी भी सबल और स्वाबलम्बी क्यों न बन जाए, गिद्धों का समाज उसे अकेले जीने नहीं देता. गिद्धों से बचने के लिए आड़ की जरूरत होती है, भले ही ठूंठ पेड़ की ही क्यों न हो. उस दिन सारा तमाश रघु के सामने ही हुआ था, बुधई बढ़ई मिस्त्री कितनी गंदी बातें कर रहा था. रघु ने उसे मना किया तो उसे भी चार बातें सुननी पड़ी. तू भी तो इससे मिठ्ठा बतियाता रहता है.बूढ़ा होकर तुम्हरा ई हाल है तो हमनी सब तो जबान हैं. रघु तिलमिला गया था, जरा सरम करो सरम.
सरम का करें, तू का एकर बाप लगता है, तू भी तो एकर इयारे हैं न. ज्यादा है तो तू ही रख ले. रघु के मन ने चाहा उससे भिड़ जाये, पर अपने शरीर की हालत देख कर चुप रह गया.
जहां बसंती काम करती थी, उसके मालिक को रघु लाने ले जाने का काम करता था, उसके पिछवाड़े में बनी झोपड़ी में रहती थी. रघु से बसंती की जान-पहचान भी यहीं हुई थी. एक दूसरे से बीड़ी-उड़ी मांग कर पी लिया करते थे. दोनों ने एक दूसरे के सहारे की जरूरत महसूस की और फिर एक दूसरे की रजामंदी से शादी कर ली.
दिन महीने और साल बीते. दो-तीन साल में ही रघु इतना बूढ़ा हो गया कि रिक्शा चलाना उसके लिए मुश्किल होने लगा. चार कदम के बाद ही उसकी सांस फूलने लगती. कोई उसके रिक्शे पर बैठना नहीं चाहता. इस भागती हुई दुनिया में किसे इतनी फुर्सत है कि कुछ मिनटों का सफर घंटों में करे. पेट भरने के लिए पैसा तो चाहिए ही. इस ठूकुर-ठूकुर की कमाई से कैसे घर चलता. घर चलाने के लिए रुपये-पैसे तो चाहिए ही. दिन ब दिन आटा -दाल तेल-तरकारी सबकी सब महंगी होती जा रही हैं. बसंती चून-बीन कर लकड़ी ले आती है. पर आटा-दाल के लिए तो पैसे चाहिए ही. कोठियों में चौका-बर्तन से दोनों का पेट नहीं भरता. बसंती फिर बेलदारी करने लगी. उन्हीं मर्दों के बीच. उसे वैसी ही बातें सुननी पड़तीं हैं. रघु सब जानता है. वो दिन ब दिन और कमजोर होता जा रहा है. उसका कोई आसरा नहीं, उसके जीने की उम्मीद अब नहीं रही. रात-रात भर खांसता रहता है. दो चार कदम चलना भी उसके लिए मुश्किल सा हो गया है.

एक दिन बसंती फिर बेसहारा हो गयी.रघु का साथ अब उसे नहीं रहा. उसे फिर सहारा तलाशना पड़ रहा है. गिद्धों से आड़ के लिए, इस तपती जिन्दगी की धूप से बचने के लिए, कितने दिनों तक लोगों की बातें सुनती रहेगी. आखिर एक दिन उसे रामजन की बात माननी पड़गी, सौ-पचास रुपये के लिए. नहीं वो कभी नहीं करेगी वो सब, भले ही उसे पांचवा मर्द करना पड़े, लेकिन क्या वो पांचवां आखिरी होगा ?

पुरूरवा मुकम्मल है

पुरूरवा ! पुरूरवा मैं उस पुरूरवा की बात नहीं कर रही, जिसके मानवीय गंध से आकृष्ट हो उर्वशी गंधर्वों और देवताओं को छोड़कर आयी थी. मैं उस पुरूरवा की बात कर रही हूं, जो मुकम्मल होने के बावजूद स्वयं को अधूरा महसूस करता था. उस जैसी दैहिक स्पर्श की कामना गंधर्व कन्याओं के सपने हुआ करते थे... और मैं, न तो उर्वशी हूं और न स्वर्ग से गंधर्व और देवताओं को छोड़ कर आयी हूं, बावजूद लगता है... कुछ है... उस पुरूष में, जो मानवीय उर्वशियों को खींचता है, अपनी ओर और मुझे भी. कुछ अपने खालीपन को भरने के लिए. खासकर जबसे मुझे मुठ्ठियों से रेत निकलती नज़र आने लगी थी, तब से या उसके व्यक्तित्व का कोई हिस्सा कटता-छिलता देखकर समानता सी होने लगी थी. इसके अतिरिक्त भी कुछ था. शायद नारी-पुरूष, पुरूष-नारी की परिभाषा ... खैर उन दिनों शाम बहुत बोझिल हुआ करती थी. पूरे दिन बंद कमरे में रहने के बाद थोड़ी ताजी हवा की जरूरत होती थी या दिल खोलकर बातें करने की चाहत. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. मेरे कदम अनायास उसके घर की और उठ गये थे. मैं उसके घर की लॉन और बरामदे को पार करती उसके कमरे तक चली गयी थी. बेधड़क, बेतकल्लुफ, बेपरवाह... वह हमेशा की तरह चाय पीता या चाय का इंतजार करता बरामदे या लॉन की कुर्सी पर नहीं था. रोज की तरह खामोश, पर कमरे में बैठा पटियाला पैग ले रहा था. बोतल सामने खुली थी. ग्लास में आधा से ज्यादा शराब मौजूद थी उसने दो चार घूट ही ली होगी. मुझे आश्चर्य हुआ. वह चाय के समय चाय और ड्रिंक के समय ड्रिंक लेता है, पर आज... उसके लिए हर काम का वक्त होता है, यहां तक कि दोस्तों से मिलने का भी... जब से मुझे इस बात का एहसास हुआ मैंने उससे बेवक्त मिलना छोड़ दिया. लचरता उसके व्यक्तित्व में कहीं नहीं थी. फौजी अंदाज था. नपे तुले शब्द थे. नपी तुली बातें थीं. लम्बा कद सांवला रंग और चौड़ी छाती, सिंह की तरह कमर और फौजी अंदाज. पूरी की पूरी आकृति संपूर्णता की... मैंने कभी उसका खुला वक्ष नहीं देखा कि उसकी रोये की सधनता के साथ हृदय की गहरायी नाप सकूं. पर इतना जानती थी, वह मुकम्मल है. लिजलिजा या कापुरूष नहीं. एक अजीब सी बात थी मेरे मन में, उसका स्पर्श मुझे अपवित्र बना देगा. इसके बावजूद लगाता कोई ऐसी चीज है, जो मुझे खींचती है अपनी तरफ. शायद यही विवशता थी कि मैं अक्सर उसके पास जाया करती. धीरे- धीरे वह गैरों की श्रृंखला से अलग हो मेरे एहसासों में बसने लगा.



मैंने उसके बारे में कभी भी कुछ जानने की कोशिश नहीं की. क्या करता है ? कहां जाता है? किससे मिलता है? कौन-कौन उसके मित्र हैं? घर में कौन है? क्या है? कहां है... इन सब में मेरी रुचि नहीं थी. अगर उसने बातया भी होगा तो मैंने याद रखने की जरूरी नहीं समझी. इतना जानती थी कि वह कुछ करता है... खरीद-फरोख्त, लेन-देन या साथ में कोई नौकरी...
उसने मेरी आहट पहचान ली. बावजूद शराब की बोतल या ग्लास छिपाने की जरूरत महसूस नहीं की. वह यूं ही बैठा रहा, मौन. मैं जानती थी वही धीर पुरूष है पर इतना संजीदा उसे कभी नहीं देखा. उसने अपनी पलकें उठायी और मुझे देखा और फिर आहिस्ता से पलकें झुका कर बैठने का इशारा किया. कमरे के सारे बल्ब उसने बुझा रखे थे. उसकी कुर्सी के पीछे कोने में सजे लैम्प को मैंने जलाया. कमरे की प्रत्येक चीजों की आकृति मुखरित हो गयी. मैं उसके इशारे पर बैठ गयी. ठीक उसके सामने. लैम्प की रोशनी ऑवर शोल्डर शॉट की तरह उसके कंधे से होती मेरे चेहरे पर पड़ने लगी थी. उसके चेहरे पर अंधेरा और सघन हो गया था. उसके चेहरों पर आये भावों को पढ़ने के लिए मुझे अंधेरे को चीरना पड़ रहा था.
मेरे लिए यह कमरा बिल्कुल अजनबी नहीं था कई बार आ चुकी थी. तब इतनी रोशनी होती थी कि हर चीज साफ-साफ देखा जा सके. मैंने यह कमरा क्या पूरे घर की हर चीज को साफ-साफ देखा था. यहां तक कि उसके वजूद को भी पढ़ने की कोशिश की थी, पर आदमी आदमी होता है. निजीव वस्तुओं की तरह पारदर्शिता उस में नहीं होती, वह जैसा है, वैसा नहीं दिखता, जो दिखता है, वह होता नहीं... मुझे लगता, कुछ है... ऐसा कुछ अज्ञात है, अनभिज्ञ है मुझ से... उसके व्यक्तित्व का कोई दूसरा पहलू...
मेरे आने से उसका मौन भंग हो गया था. वह बोलने के मूड में नहीं था. थोड़ी देर तक हम दोनों ही खामोश रहें. उसकी खामोशी मुझे बेध रही थी. मैंने उठना चाहा तो उसने आंखें बंद कर मेरी हथेली को छूकर बैठने का इशारा किया. उसके इस पहले स्पर्श में कहीं दुराग्रह नहीं था. अब और चुप्पी मुझ से सही नहीं गयी.
-अंधेरा क्यों बना रखा है, कमरे.में -मैंने मौन तोड़ा
-मुझे अंधेरा अच्छा लगता है.
-पता है, अंधेरा निगल लेता है, इंसान के वजूद को
-उसने गहरी सांस ली, पर कुछ कहा नहीं, लगा सांस पूरी होते होते उसका कुछ कहने का औचित्य ही नहीं रह गया हो.
तुम आज कुछ ज्यादा ही संजीदा लग रहे हो?
वह चुप रहा. एक लम्बी सांस भरी ओर ग्लास उठा लिया और धीरे-धीरे सिप करने लगा. एक लम्बे वक्फे के बाद उसने कहा, देखों... मेरा प्रतिबिम्ब कितन अस्पष्ट और अधूरा लग रहा है. मेरे लिए उसे प्रकाश आकृति-पृष्टिभूमि, बिम्ब-प्रतिबिम्ब का सिद्धान्त बता पाती. कहा, बिम्ब पहले प्रखर बना लो, जैसा बिम्ब होगा, वैसा ही उसका प्रतिबिम्ब होगा और रोशनी का प्रभाव तो होता ही है... आतर्किक असंगत बातें करने का मुनासिब मेरा बात को आगे बढ़ाने का था.क्योंकि अब मुझे खीज सी होने लगी थी.
मेरी नज़र बोतल पर चली गयी. उसने भांप लिया.
माफ करना तुम जानती हो इस लिए छूपाया नहीं
अगर न जानती तो क्या छिपा देते? मैंने जिरह की. यह सोचता रहा हूं वर्षों से, क्या छुपाऊ, क्या नहीं. तुम उस समय से आती हो जब मैं एक छोटे से कमरे में रहता था. रोशनी इतनी कम होती थी कि दिन में बल्ब लगाने के बावजूद आंखों को कष्ट देना पड़ता था. तब और इस आलीशान भवन के दरम्यान कितने साल गुजर गये. तुमने सब कुछ देखा है. तुमने जानने की कोशिश क्यों नहीं की कि ये आलीशान भवन, ये साज-सज्जा, तड़क भड़क कहां से आई? जानती हो... जानती हो मैं व्यापार करता हूं, खरीद- फरोख्त करता हूं... मगर आत्मा नहीं बेची अब तक. जानती हो मैं क्या करता हूं? मैं वेश्या पुरूष हुं, वेश्या पुरूष! देह बेचता हूं. उसका अंतिम वाक्य असहाय सा हो गया था. कुर्सी के दोनों हाथों की पकड़ मज़बूत हो गयी. मुझे लगा उसके कहे शब्द मेरे शरीर के सारे रक्त खींच लिये हो. एक हूंक सी उठी और अनायास मेरे मुंह से ओह निकल गया.
उसने आखिरी शब्द के साथ ही आंखे बंद कर ली. मैंने उसके चेहर पर भाव तलाशने की कोशिश की. चेहरा सपाट था, भाव शून्य... कुंठा या पाश्चताप का भाव उसके चेहरे पर है या नहीं मेरी आंखें देख न सकी.
अंधेरा और सघन हो गया था. बाहर सूर्य की आखिरी किरणें भी डूब गयी थीं. कमरे में प्रकाश का प्रभाव और बढ़ गया था. मैं उठना चाहकर भी न उठ सकी. वह थोड़ा प्रगल्भ होता जा रहा था. अपनी बात कहने के लिए अब उसे किसी आड़ की जरूरत नहीं रह थी. वह बेहिचक सब कुछ कह सकता था पर होश अब भी बाकी थी. मुझे विश्वास था वह अशिष्ट नहीं हो सकता. अभी-अभी उसने कहा था मैंने आत्मा नहीं बेची. यही एक बात थी, जो मेरे विश्वास को डिगने नहीं दे रही थी. उसके प्रति और स्वयं के प्रति भी.
-तुमने सुना मैं वेश्या पुरूष हूं.
-हां मैं सुन रही हूं. हमेशा की तरह तुम्हारी बातें हमेशा ही गौर से सुनी है. आज भी सुन रही हूं.
हां... तो मैं कह रहा था. वह शाम और दिनों की तरह ही थी. रोज की तरह में उसके पास गया था. मेरा दोस्त था वह... शायद नहीं उसी का श्रेय था मुझे इस पेश में लाने का. श्रेय इस लिए कह रहा हूं कि उसका एहसान मंद था मैं. एहसान के तले दबा एक नामुराद आदमी. हसरत होती थी, उसकी दौलत, रईसी और ठाट-बाट को देख कर. वह अच्छे बुरे वक्त में काम आया था. आर्थिक परेशानियां इंसान को पतन के रास्ते पर सहज ले जाती है. उसी तंगी के दौरे ने मुझे यहां तक ले आया. शराब भी मैंने उसी से पीना सीखा और शबाब भी चखा. वह शाम आज भी मुझे याद है. जीवन की ऐसी शाम जिसे आज भी नहीं भूल पाया... वह मुझे ले गया एक ऐसी दुनिया में जो रहस्यमयी तलस्मी थी... फिर धीरे-धीरे जाना उस रहस्य को.. परत-दर-परत खुलता चला गया...मैंने फ्रेंच, जापानी और कई विदेशी भाषाऐं सीखी, खुद को बनाने सवांरने के लिए कई कोर्स भी किये...फिर शुरू हो गया एक नया सिलसिल...विदेशी औरतों के ईर्द-गिर्द घूमती जिन्दगी...उन्हें कुछ और भी चाहिये था एक गाइड के अलावा... इसके बदले में मोटी रकम और अफरात उपहार. फिर धीरे-धीरे शुरू हुआ देशी महिलाओं का सानिध्य. कुछ दिनों तक यह सब सुखद रहा है. लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगने लगा मेरे अंदर कुछ मरने लगा है...जानती हो तिल-तिल मेरा स्वाभिमान मरने लगा था.मैं उपयोग की वस्तु बन गया था, जो मन चाही कीमत पर कभी भी किसी भी कीमत पर बिक सकता था. भद्दी, कपटी, कांमाध बर्बर औरतों के जिस्म की भूख मिटाने की वस्तु बन कर रह गया था. तब मुझे लगा मेरा यह शरीर मेरी महत्वकांक्षाओं का गुलाम है. मैं मशीन बनता जा रहा हूं.आहिस्ता-आहिस्ता मशीन के पार्ट पुर्जे घीसने लगे थे. मुझे इस पेश से वितृष्णा होने लगी थी. एक समय आया जब मैं खुद को नपुंसक समझने लगा. अब मुझे लगने लगा, मैं यूज्ड होता रहा चंद पैसों के लिए.
पल भर रूका आगे कहने लगा, मैंने तुम्हारे बारे में कई बार सोचा, कुछ कहना भी चाहा पर कह न सका. एक अज्ञात भय था मरे मन में. तुम जानोगी तो मुझसे घृणा करोगी और शायद कभी मिलने भी न आओ. तुम्हें मुझ से घृणा हो रही होगी न?
उसकी सारी बातें आखों के सामने प्रतिबिम्बित हो गयी जुगुप्सित भाव मेरे मन में तिर गया था. अब और सुनने का सामर्थ मुझ में नहीं था. उसके प्रश्नों के उत्तर मेरे पास कदाचित नहीं थे. मैं खामोश रही. वह कुछ और कहेगा... पर वह चुप रहा. वह अपने प्रश्नों का उत्तर जान लेना चाहता था. मैंने उसके चेहरे को गैर से देखा. उसकी आंखें मुझ पर ही लगी थी. उसे अपने सवाल का जवाब चाहिए था. मैंने अपनी नज़रे झुका ली कहा, नहीं.
अप्रत्याशित था यह शब्द मेरे लिए और उसके लिए भी क्योंकि ये शब्द मेरे अंतर्मन के थे. अभी-अभी उपजे भाव से कई गुणा सबल वह भौचक्का मेरी तरफ देखता रहा. फिर पूछा, लेकिन क्यों? क्योंकि मैं तुमसे ... आगे के शब्द मेरे हलक में अटक गये. मदहोशी का आलम था और अभिव्यक्ति का पहला मौका. हजारों जोड़ी आंखें तलाशने के बाद स्निग्ध स्नेह से लहराता समंदर पहली बार देखा था, जिसमें वासना या याचना नहीं थी. पल भर को मैं विचलित हो गयी. क्या कहूं. मैं नहीं चाहती थी, वह मेरे के मन को भाव समझ ले.
जानना चाहते हो क्यों? क्योंकि तुम नपुसंक हो. यह कह कर मैं जोर से हंसी, उसका पूरा वजूद चरमरा गया.
क्या तुम मुझे... उसका पूरा वाक्य अधूरा रह गया था. क्या तुम भी... पता नहीं क्या कहना चाहता था. इस के आगे उसे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. मैं हंसती जा रही था और उसका चेहरा सूर्ख होता जा रहा था. थोड़ा तमतमाया हुआ भी.
अब बारी मेरी थी, पर मैं चुप रही... प्रत्यक्ष में कुछ और, और अप्रत्यक्ष में कुछ और चलता रहा. ऐसे क्षणों में आदमी जो सोचता है वह कह नहीं पाता, जो कहता है, उसे सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता. यह एक इंसिडेन्ट था, एक घटना थी. विल्कुल अप्रत्याशित. प्रत्यक्ष में बस इतना ही कह पायी, तुम क्या हो? क्या करते हो? इससे मेरा कोई ताल्लुक नहीं, कोई लेना देना नहीं. तुम्हारे सुदर्शन व्यक्तित्व में मेरी कोई रुचि नहीं, तुम्हारे देह से मेरा कोई लेना देना नहीं. पर तुम्हारे चेहरे पर सबसे प्यारी है, वह है तुम्हारी निष्पाप आंखे, जिसे मैंने सीधी नजरों से कभी नहीं देखा.
इस के अलावा भी उसके चेहरे पर कुछ था जो उसे और भी आकर्षक बनाता था. वह अपने पेशे में इसी वजह से सफल भी रहा होगा. मैं कहना चाहती थी, और भी कुछ है तुम्हारे चेहरे पर, उसने मेरे मन के भावों को समझ लिया. उसने कहा कुछ और भी है मेरे चेहरे पर जिसे तुमने इतने सालों से बातचीत के दौरान माध्य बनाए रखा है. मेरा चेहरा सुर्ख हो गया था. वह सधा हुआ था, उसका प्रहार में सह न सकी. मैंने स्वीकृति में सर हिलाया. उसने आंखें बंद कर ली और कहा, अब छू लो.
प्यार की अभिव्यक्ति की कोई भाषा नहीं होती, कोई शब्द नहीं होते. प्यार पवित्रता-अपवित्रता की सीमाओं से परे होता है. प्रिय पात्र के स्पर्श से ही मृत संवेदनाएं जाग उठती हैं. देह, मन और आत्मा जलतरंग की अनुभूति से अहलादित हो जाते हैं. उसने भी शायद पहली बार तन और मन की एक रूकपता को महसूस किया होगा. जिन भावों की अभिव्यक्त के लिए शब्द तलाशते इतने साल गुजर गये थे. मैंने उसकी अभिव्यक्ति अपने अधर उसकी ठोढ़ी पर रख कर कर दी. मन में कई भाव संचरित होने लगे, फिर भाव शून्यता और समय शून्यता व्याप्त हो गयी. लगा जैसे समय ठहर सा गया हो.मुझे सुधि ही न रही. बस इतना भर अहसास रहा धरती अपने पंजों के बल खड़ी थी. उसके अधरों पर आसमान झुका था. चिड़ियों ने सुबह की आहट पहचान ली. हवा का एक ताजा झोंका पर्दे को फड़फड़ता कमरे में रखी हर चीज को तितर-बितर करता पूरे घर में फैल गया. उसके सिरहाने उर्वशी का पहला पन्ना खुला था. उर्वशी के वक्ष पर सर रखे पुरूरवा अब भी मुकम्मल था...

गुरुवार, 25 जून 2009

मेरे पत्रकार गुरु

प्रख्यात कथाशिल्पी किशन चंदर ने एक जगह लिखा है, पूछा है-“ अपनी जिन्दगी में तुमने क्या किया? किसी को सच्चे दिल से प्यार किया? किसी को नेक सलाह दी ? किसी दुश्मन के बेटे को मोहब्बत की नजर से देखा? जहां अंधेरा था, वहां चराग ले गये? मैं नहीं जानती कि पत्रकारिता के तप:पूत्र एवं मेरे श्रद्धेय पत्रकार गुरु रामजी मिश्र ‘मनोहर’ का व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व इन सारे प्रश्नों के प्रति साकारात्मक है या नहीं, किन्तु इतना अवश्य जानती हूं कि इन्होंने जहां भी अंधेरा देखा, वहां रौशनी की किरण ले गये, तम को भगाया-मिटाया। वो कहते थे-
“अपना तो काम है जलाते चलो चराग,
खाह दोस्त का घर मिले, दुश्मन का घर मिले”
अब वो रहे नहीं पर मैं उनके सैकड़ों शिष्य-शिष्याओं एवं श्रद्धा रखने वालों में से एक हूं, जिनके जीवन को इन्होंने एक दिशा दी है, जिनके अंदर ज्ञान की ज्योति जलाई है, आत्मविश्वास जगाया है और कुछ कर गुजरने को प्रेरित-प्रोत्साहित किया है। दीपक में यदि तेल हो, बाती हो, किन्तु उसे जलाने वाला न हो, तो मिट्टी के उस पात्र का कोई अर्थ नहीं रह जाता। शब्द-शिल्प के क्षेत्र में मेरा प्रयास भले अपना रहा हो, लेकिन उसे तराशकर आकार देने का श्रेय गुरुदेव को ही जाता है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार सांचे में ढ़ली मूर्ति को रंग, रूप और आभा देने का श्रेय मूर्तिकार को जाता है।
अपने स्कूल-कॉलेज में आयोजित समरोहों के सिलसिले में इन्हें देखने-सुनने का अवसर मुझे बचपन से मिलता रहा, किन्तु इन्हें निकट से जानने-समझने का मौका वर्ष 1991 ई. की शुरुआत मे मिला, जब मैं लब्धप्रतिष्ठ मूर्तिकार-चित्रकार आदरणीय दामोदरप्रसाद अम्बष्ठ जो अब नहीं रहे, के साथ मनोहर जी के आवास पर गई थी, पत्रकारिता के पेशे तथा पत्रकारिता परिक्षण के बारे में जानकारी लेने। दामोदर बाबू के पास चित्रकला सिखने जाया करती थी, जो एक वरिष्ठ एवं कर्मठ पत्रकार तथा समर्पित समाजसेवी के रूप में मनोहर जी की चर्चा किया करते थे। इनके बारे में जितना सुना था, मिलने पर उससे अधिक पाया। इनकी ऊंचाई के लिए मेरे मन-मस्तिष्क में पहले से खिंची तमाम रेखाएं बौनी हो गईं। लगा कि इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए जो रेखा खींची जा सकती है, उसका स्पर्श आम आदमी नहीं कर सकता।
इनसे होने वाली मुलाकातों के सिलसिले में पत्रकारिता के प्रति मेरा रुझान-झुकाव लगातर बढ़ता गया, लेकिन इन्होंने मुझे हमेशा इस पेशे के संघर्ष,चुनौतियों और खतरों के प्रति आगाह किया और समझाया-पत्रकारिता अपनाना है तो त्याग, सेवा, समर्पण और जनकल्याण की भावना से अपनाओं न कि इससे जु़ड़े ग्लैमर, पावर या सुविधाओं के लिए। यह पेशा दाल-रोटी का जरिया के रूप में अपनाये जाने वाले अन्य पेशों की तरह नहीं है। बनना है तो सेवाधर्मी पत्रकार बनो, इस पेशे को पूजा मानकर चला। मैंने उनका कहा अक्षरश: माना। पत्रकारिता मेरे लिए साधना है।

मनोहर जी के नैकट्य से मुझे बिहार-पत्रकारिता एवं संग्रहालय तथा पटना नगर हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन की गतिविधियों में भी सक्रिय भागीदारी मिली। बीच के दो-तीन साल तक मैंने एक कॉलेज में प्राध्यापकी भी की, किन्तु मेरा मन रमा-जमा नहीं। शोधकार्य के संबंध में सामग्री खोजने के क्रम में जब मनोहर जी के संग्रहालय को नजदीक से देखा-परखा तब वहां उपल्बध ज्ञान के विपुल भांडार का पता लगा और पूरे संग्रह को करीब से देखने की इच्छा हुई। और बस मैं अपनी मित्र-सहकर्मी डॉ ममता श्रीवास्तव के साथ जुट गई राजेन्द्रनगर स्थित संग्रह की सूची बनाने में। दो-तीन माह के अंदर हम दोनों ने वहां की दस-बारह आलमारी पुस्ककों की सूची बना डाली। सूची बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य था उस ज्ञान सागर में गोते लगाना और ज्ञान के कीमती रत्न बटोरना।

मेरे गुरुदेव का जीवन खुली किताब थी। आज के जमाने में ऐसा खुलापन दुर्लभ ही है। मुंहदेखी बात वे कभी नहीं करते थे। अपने निकट आने वाले हर व्यक्ति को बिना किसी लाग-लपेट के खरी सलाह देते थे। मेरे मन में भी कई तरह की तरेंगे उठती थी। कभी लगता कि प्राध्यापकी में स्थिरता प्राप्त करूं, कभी लगता प्रखर पत्रकार बनुं, कभी विचार आता कि ड्रेस डिजाइनिंग का काम करूं तो कभी मन में आता कि लड़कियों के लिए सिलाई,कढ़ाई, पेंटिग का प्रशिक्षण केन्द्र चलाऊं। और, रंगमंच से मेरा पुराना जुड़ाव होने के कारण जब कभी नाट्य संस्था के लोग आ जाते, तब विचार आता रंगकर्म के क्षेत्र में ही कैरियर बनाऊं। ऐसी दिशाहीनता में गुरुदेव ने बिना अपना कोई विचार लादे खरी सलाह की कि मैं एकलव्य की तरह लक्ष्य साधूं। एक ही रास्ता चुनूं जो सबसे अनुकूल नजर आये। और आज मुझे लगता है कि मैंने जो लक्ष्य किया वो मेरे लिया सबसे उचित है। लेखन मेरी साधना है। पत्रकारिता मेरा कर्म।
आज मुझे गुरुदेव की कमी खलती है। क्योंकि सच्ची-खरी बात कहने वाला कोई नहीं। गुरुदेव कभी मेरी कमियों एवं खामियों पर कस कर बरस पड़ते थे, तो कभी बेटी-सा प्यार, दुलार, स्नेह की वर्षा करते थे और कभी हमउम्र और समान स्तर का सम्मान भी देते थे। कभी कुछ अच्छा लिखा तो, प्रोत्साहित भी करते थे। कभी-कभी स्नेह-प्रवाह में अतिशयोक्ति भी कर जाते आपको बहुत आगे बढ़ना है, कुलदीप नैयर, खुशवंत सिंह और राजेन्द्र माथुर बनना है। वाणी और कलम के संयम के लिए उन्होंने मुझे कई बार इस अंदाज में झाड़ा-झपेटा, जिसे सुनकर-झेलकर सम्भवत: अपनी बहू-बेटी भी बिदककर भाग जाये और फिर पास न फटके। किन्तु मैं जानती हूं कि उनका ऐसा व्यवहार मेरे प्रगति, मेरे उत्थान और मेरे उत्कर्ष के लिए था। मेरे जैसे अनेक नवसिखुओं के लिए अपना कीमती समय एवं ऊर्जा देने के पीछे कहीं से, किसी प्रकार का लेशमात्र का भी उनका स्वार्थ नहीं था।

सर 70 वर्ष की अवस्था में भी चुस्त-दुरुस्त थे। उनका समय अपने लिए कम, दूसरों के लिए अधिक था। उनके खपड़पोश मकान का कोई कोना चूता-धंसता रहता तो उन्हें कोई चिंता नहीं सताती थी, लेकिन जब पश्चिम दरवाजा का पुराना स्तम्भ गिर जाये, अपने समय की प्रख्यात गायिका कोकिलकंठ अल्ला जिलाई का कचौड़ी गली स्थित पुराना मकान ध्वस्त हो जाये या मदरसा-मस्जिद का गुंबद गिर जाये तो वे आहत-मर्माहत हो जाते थे। उसके संरक्षण के लिए व्यग्र और आंदोलित हो उठते। उन्हें उम्र के साथ आने वाली अपनी और अपनी पत्नी की बीमारी की चिंता उन्हें नहीं थी,लेकिन जब चित्रकार दामोदर अम्बष्ठ या उपन्यासकार हिमांशु श्रीवास्तव या उनके जैसे कलासेवी, साहित्यकार बीमार पड़ जायें या किसी तरह की परेशानी में हो तो गुरुदेव की पीड़ा-व्यथा देखने लायक होती थी। ऐसे लोगों की स्वास्थ्य रक्षा एवं सहायता के लिए वो अपनी पूरी टीम के साथ जुट जाते थे। अपना सब दर्द भूलकर दूसरों की पी़ड़ा से पीड़ित होनेवाला,नगर के दर्द से व्यथित-मर्माहत होनेवाला तथा पाटलिपुत्र की अतीत गरिमा के संरक्षण एवं इसके सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए अपना वर्त्तमान दांव पर लगानेवाला ऐसा व्यक्ति बहुत खोजने पर भी कहीं नहीं मिलेगा। अब गुरुदेव नहीं रहे वक्त और नियति उन्हें उम्र के उस मौकाम पर पहुंचा दिया जहां इंसान अपनी क्षमता खोने लगता है। गुरुदेव ह्रदय रोग से पीड़ित हो गए। ऑपरेशन भी हुआ, लेकिन वो ज्यादा दिन जीवित न रह सके। उनकी मौत के चंद महीने बाद ही उनकी सहज-सरल पत्नी, जिन्हें मैं मामी जी कहती थी चल बसीं। उनके बाद मुझे रिक्ता का बोध हुआ। एक ऐसी रिक्ता, जिसे कभी नहीं भरी जा सकती । दोनों के प्रति मेरी आपार श्रद्धा है।

शनिवार, 20 जून 2009

सौ वर्ष पूर्व बिहार के कार्यालयों में हिन्दी

सौ वर्ष पूर्व बिहार के कार्यालयों में हिन्दी
हिन्दी संघर्षरत भाषा रही है। इसका विरोध शुरू ही होता रहा है। आज कार्यालयों में राजभाषा हिन्दी के प्रयोग पर जोर देने के बावजूद अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। आज से लगभग तेरह-चौदह दशक पूर्व भी हिन्दी की यही स्थिति थी। यहां की कचहरियों में इसके प्रयोग को लेकर उर्दू भाषियों से संघर्ष करना पड़ रहा था। उस समय यहां के कार्यालयों की भाषा उर्दू फारसी थी। यह संघर्ष लगभग दो-तीन दशक तक चलता रहा।
हिन्दी की लिपि देवनागर ब्राह्मी लिपि के एक रूप नागरी लिपि से उत्पन्न भारत की प्राचीनतम लिपि मानी जाती है। नागरी लिपि के प्रयोग के उदाहरण उत्तर भारत में 10वीं सदी तक पाये जाते हैं। 11वीं सदी में इस लिपि की प्रमुखता रही। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में 10वीं सदी के सभी शिलालेख, पत्रादि इसी लिपि में लिखे गए। लगभग 14वीं, 15वीं सदी में अकबर के समय फारसी में दफ्तरी काम-काज होने लगा, किन्तु देहाती काम-काज हिन्दी में ही थे।
सन 1837 में ब्रिटानी सरकार ने फारसी को क्लिष्ट समझकर हिन्दी को पुन: जारी करना चाहा। परन्तु उस समय सरकार की ओर से हिन्दी भाषा का कोई शिक्षा विभाग नहीं था। नतीजतन हिन्ही की पढ़ाई नहीं हो सकी। फलत: स्थिति पूर्ववत बनी रही। सन 1873 में कैम्पवेल ने अरबी-फारसी शब्दों की कठिनाई को महसूस किया और नागरी लिपि जारी करने पर बल दिया। उनके बाद जितने भी लेफ्टिनेंट गवर्नर आये वे सभी हिन्दी के समर्थक रहे। सर एडिन साहब हिन्दी के प्रति विशेष उदार थे। उन्होंने ही बिहार के कार्यालयों में नागरी जारी करने का सफल प्रयास किया। हिन्दी जारी करने में
‘बिहार उपकार सभा’ की न केवल महत्वपूर्ण भूमिका रही, बल्कि ‘बिहार उपकार सभा’ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी। (उन्होंने बिहार उपकार सभा की स्थापना की जिसकी खास नियत एक यह थी कि नागरी की तरक्की हो-‘बिहार-बन्धु’ पटना-7वीं जुलाई 1880।)
दूसरी अप्रैल सन 1874 को हिन्दी जारी करने का आदेश दिया कि भागलपुर और छोटानागपुर में कुल काम, इश्तिहार और इतिलाये हिन्दी में लिखी जावें और कुल सरकारी दफ्तर हिन्दी में रखें जावें। (बिहार-बन्धु-जिल्द-8) किन्तु यह पूर्णरूप से कार्यान्वित नहीं हो पाया।
हिन्दी पर विषेश श्रद्धा रखने वाले डॉ ग्रियर्सन ने बिहार के कचहरियों में सबसे पहले मधुबनी जिले में नागरी लिपि जारी करवाई थी। गया के अदालतों में भी सारी कार्यवाहियां नागरी में प्रारंभ हो गई थी। 31 दिसम्बर 1880 तक ही उर्दू-फारसी बिहार के कार्यालयों की भाषा रही। जनवरी 1881 से सभी कार्यालयों में नागरी जारी करने का आदेश दिया गया। उस समय कार्यालयों में नागरी जारी करने का विरोध न केवल तत्कालीन मुसलमानों ने बल्कि हिन्दुओं ने भी किया जो या तो हिन्दी जानते नहीं थे या सरकारी कर्मचारी या मुख्तार थे। उस वक्त के कायस्थों ने भी जिनकी उर्दू में अच्छी दखल थी, नागरी जारी होने का कम विरोध नहीं किया। यहां तक कि हिन्दी जारी होने के विरोध में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के पास आवेदन भी भेजा गया। उन्हीं दिनों बिहार के अंग्रेजी साप्ताहिक ‘बिहार हैरल्ड’ में नागरी के खिलाफ सैयद विलायत अली खां साहब सी.आई.ई. की एक चिठ्ठी छपी थी और उन्हीं की कोशिश से एक कमेटी भी बनायी गई थी, जिसके द्वारा बंगाल गवर्नमेंट में एक दरखास्त भेजी गयी, जो बाद में नामंजूर कर दी गई।
वहीं हिन्दी और उर्दू जो एक दूसरे के पूरक का काम कर रही थी और सगी बहनों की तरह रह रही थी, सरकारी दफ्तरों में देवनागरी जारी होने के आदेश से एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी हो गई। ऐसा नहीं था कि सभी मुस्लमान हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के विरोधी थे। बल्कि उनमें से एक बहुत बड़ा वर्ग जो देवनागरी लिपि के वैज्ञानिक महत्व को समझता था इसका समर्थक था। ‘
बिहार-बंधु’ के प्रथम संपादक मुंशी हसन अली (1972-74) स्वयं मुसलमान थे।
उन दिनों उर्दू और हिन्दी दो सगी बहने न मानकर एक दूसरे को सौतन माना जाने लगा था। एक दूसरे के विरुद्ध टीका-टिप्पणी आये दिन अखबारों में छपती रहती थी। यथा- ‘कचहरी से उठी उर्दू हुई अब नागरी जारी
बधवा अब बिठाओ भाइयों भागा है दुख भारी
जमाय जड़ बहुत दिन से जो सौतिन नागरी की थी
लजाकर के चली अब आप ही इस देश से हारी’
(‘बिहार-बंधु’ 7वीं सेप्टेम्बर)
22 अगस्त 1880 को पटना कॉलेज के एक हॉल में एक सभा आयोजित की गयी, जिसमें सर ऐशली एडिन साहब के अतिरिक्त शहर के रईस और सरकारी ऑफिसर मौजूद थे। इस सभा में बिहार उपकार सभा की तरफ से कुंवर सुखराज बहादुर साहब, बाबू रामकृष्ण पाण्डेय, बाबू कृष्ण सिंह, बाबू गोविन्द चरण साहब उपस्थित थे। इन लोगों की ओर से एक आवेदन तथा सिफारिशनामा लेफ्टिनेंट गवर्नर साहब को पेश किया गया था। ये आवेदन नागरी जारी होने के विरोध में दिये गये आवेदन का जवाब था, जिसके विरोध में सभा में उपस्थित मौलवी खुदाबक्श खां ने कहा कि “नागरी जारी होने से कबादत होगी। इसका पढ़ा जाना बड़ी मुश्किल है और नागरी एक किसिम की नहीं बल्कि कितने किसिम की है ।” इसके जवाब में एडिन साहब ने कहा कि अगर बढ़खत लिखा जायेगा चो बेशक नहीं पढ़ा जायेगा, लेकिन यह बात सब हर्फों में है। फारसी, अंग्रेजी, सबमें नागरी में ही नहीं। ( ‘बिहार-बंधु’ जिल्द 1880)
बिहार के सर्वप्रथम पत्र ‘बिहार-बंधु’ ने बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठत करने के लिए जोरदार आंदोलन किया। ‘बिहार-बंधु’ 27 वीं दिसम्बर 1883 जिल्द 11 नम्बर के अनुसार “शुरू-शुरू में बिहार में हिन्दी जारी होने का कारण अगर सच और वाजिब पूछो तो ‘बिहार-बंधु’ का ही है। जिस वक्त से ‘बिहार-बंधु’ की पैदाईश हुई उसी वक्त से गोया हिन्दी की नींव दी गयी। जिस हिन्दी के लिए बड़ी कोशिशें हुईं और बहुत कुछ करने के बाद आज यह बात है कि दीवानी, पुलिस और कचहरियों में हिन्दी की सूरत देखने को आती है। दस वर्ष पहले एक सम्मन को पढ़ने के लिए देहात के लोगों को हैरान होना पड़ता था। यह वह हिन्दी है, जिसके चाहने वाले कदरदान विलायत तक हैं।”
इस समर्थन और विरोध के बावजूद हिन्दी कुछ समय के लिए कार्यालय की भाषा रही, लेकिन कालान्तर में अंग्रेजी के वर्चस्व ने इसे रहने नहीं दिया। नतीजतन अंग्रेजी कार्यालयों की भाषा बना दी गयी। आजादी के बाद सन् 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 में यह व्यवस्था की गयी कि 15 वर्षों तक अंग्रेजी केन्द्र सरकार के राजकाज की भाषा बनी रही रहेगी और धीरे-धीरे हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ग्रहण कर लेगी, परन्तु इसके विपरीत यह हुआ कि संविधान को संशोधित करके अंग्रेजी अनिश्चित समय तक के लिए हिन्दी के साथ सरकारी कामकाज की भाषा धोषित कर दी गयी।

गुरुवार, 21 मई 2009

किंग मेकर का सपना टूटा

राजनीति की चौसर पर कौन सा पांसा सही और कौन गलत होगा, यह चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलता है। इस आमचुनाव में आत्मविश्वास से लबरेज कई दिग्गज किंग मेकर का सपना देख रहे थे। उन्हें अपनी चाल पर पूरा भरोसा भी था, पर अब खुद पछता रहे हैं। बात चौथे मोर्चे के दिग्गजों की है। इनका दावा था कि इनके बिना सरकार बन ही नहीं सकती, पर यहां पांसा उल्टा पड़ा। ये किंग मेकर तो क्या ये जनादेश के कंगाल बन गए। इनके एक सहयोगी का खाता तक नहीं खुला और एक औंधे मुंह गिरे।
ऐसा मोर्चे की तीनों प्रमुख पार्टियों एसपी, आरजेडी और एलजेपी, इनके प्रमुख चुनाव परिणाम आने से पहले ही दावा कर रहे थे और चुनाव से पहले इनमें से दो पार्टियां अलग भी हो गईं, लेकिन यूपीए बहुमत के करीब आया तो नेताओं के बयान बदल गए। यहां भी इसका पांसा उल्टा पड़ा। कांग्रेस ने इन तीनों को अंगूठा देखा दिया। कांग्रेस ने साफ कर दिया कि बीस मई को होने वाली यूपीए की बैठक में एसपी और आरजेडी शामिल नहीं होंगे। इस बैठक में सिर्फ चुनाव पूर्व गठबंधन वाली पार्टी को ही न्योता दिया गया।
चुनाव से पहले एसपी मुखिया मुलायम सिंह यादव ने दावा किया था कि एसपी समर्थन के बिना केंद्र में सरकार नहीं बनेगी, लेकिन अब चुनाव परिणाम के बाद स्थिति एक दम बदल गई। हांलाकि एसपी नेता ने रविवार को प्रधानमंत्री से भी मुलाकात की और रविवार शाम को ही चौथे मोर्चे की बैठक भी बुलाई गई, लेकिन सोमवार को कांग्रेस का तेवर देख एसपी मुखिया मुलायम सिंह को अपनी कर्मभूमि मैनपुर बैरंग वापस लौटना पड़ा और सरकार में शामिल होने का सुर दूसरे राग में बदल गया। अब वे कुछ और आलाप रहे हैं।
आरजेडी प्रमुख कांग्रेस सरकार में रहे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव की तो तबियत ही बदल गई। कांग्रेस के दो टूक जवाब से आहत श्री यादव तो आपा ही खो बैठें और जमकर कांग्रेस को भला बूरा कहा। यहां तक कि कैबिनेट में अपमानित किये जाने का आरोप भी लगाया। हांलाकि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और कांग्रेस राज्य इकाइयों ने पहले ही तय कर लिया था कि भविष्य में बिहार और यूपी में कांग्रेस अपने बलबूते पर चुनाव में उतरेगी। यूपी में कांग्रेस का फर्मूला कामयाब भी रहा है। जहां तक बिहार में एकल चुनाव में उतरने का फैसला कांग्रेस ने एलजेपी और आरजेडी की रणनीति के उजागर होने के बाद ही लिया था। बिहार में एलजेपी और आरजेडी ने सीटों का आपस में बंटवारा कर कांग्रेस के खाते में महज तीन सीटें डाली थी, जिसका परिणाम था कि बिहार के सभी 40 सीटों अकेल निर्णय लेने का फैसला किया।

पासवान का राजयोग खत्म

केन्द्र में यूपीए ने सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया है, लेकिन हर मत्रिमंडल में शामिल रहे एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान मंत्रिमंडल में नजर नहीं आयेंगे। 2009 के चुनाव में उनका पत्ता पूरी तरह साफ हो गया है। रामविलास पासवान न तो अपनी सीट बचा पाये और न ही उनकी पार्टी खात खोल पायी। हांलाकि अपनी हार के लिए पासवान यूपीए से दूरी बता रहे हैं, पर उनकी हार की वजह महज यही नहीं। केन्द्र में एक बार फिर कांग्रेस का कब्जा हो गया। मनमोहन सिंह ने सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया है और शुक्रवार को यूपीए की सरकार बन भी जाएगी, लेकिन मंत्रिमंडल में एक चेहरा जो पिछले कई सरकारों के मंत्रिमंडल में नजर आता रहा है, नजर नहीं आयेगा। एलजेपी अध्यक्ष रामविलास पासवान मंत्रिमंडल में नहीं होंगे, लेकिन सवाल ये है कि हर सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले पासवान आखिर इस बार सदन में क्यों नहीं पहुंच पाये। 1977 में रिकॉर्ड मतों से जीतने वाले रामविलास पासवान के साथ मतगणना से ठीक पहले अपशकुन हुआ। दिल्ली स्थित उनके घर में आग लग गई। चुनाव रिजल्ट आया तो पासवान हार गए। उनका पांसा गलत साबित हुआ। कांग्रेस का साथ छोड़ना उनकी भूल साबित हुई। हांलाकि वे हार की वजह अपनी ही भूल मानते हैं। कांग्रेस का साथ छूटना भारी पड़ा, लेकिन हार की वजह सिर्फ ये ही नहीं माना जा रहा है। लालू प्रसाद यादव से उनका गठजोड़ भी उन्हें मंहगा पड़ा। राघोपुर विधान सभा का इलाका राबड़ी देवी का क्षेत्र है। यादवों का वोट यहां से पासवान को नहीं मिला। विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाबी खुद रखने की जिद्द की वजह से यादव नाराज थे। करीब चार लाख आबादी वाले यादव वोट अगर पासवान के पाले में गिरता तो स्थिति कुछ और होती। दूसरी बात ये कि पासवान अपनी जाति के एकलौते उम्मीदवार नहीं थे। उनकी जाति के चार उम्मीदवार खड़े होकर उनके वोट बैंक में सेंध लगाया। लालू से उनकी दोस्ती सवर्णों को रास नहीं आई। ऊंची जाति से मिलने वाले वोट उनकी झोली से छिटक गई। परिसीमन ने भी इनके वोट बैंक को तितिर-बितिर कर दिया। पातेपुर इलाका जो दलितों का गढ़ है इनकी परिधि से बाहर निकल गया। इसका भी खामियाजा उन्हें उठाना पड़ा। जेडीयू का गढ़ वैशाली का लालगंज इलाका हाजीपुर में शामिल हुआ तो लेकिन नीतीश के विकास की लहर ने यहां के दूसरे वोटरों को भी बहा ले गई।

शुक्रवार, 15 मई 2009

पाटलिपुत्र से पटना

बिहार की राजधानी पटना का नाम आते ही ज़ेहन में कई नाम उभरते हैं, पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, पुष्पपुर, कुसुमपुर, अज़ीमाबाद और पटना। पटना का इतिहास काफ़ी पुराना है। यह शहर गंगा, सोन और पुनपुन तीन नदियों के संगम पर होने की वहज से हमेशा आबाद तो रहा ही, वक्त के थपेड़ों से भी बसता-उजड़ता रहा है। यह शहर अपने गर्भ में इतिहास के कई काल को समेटे हुए है। नतीजतन धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्ट्रि से पटना का खासा महत्व रहा है। युनानी इतिहासकार और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में राजदूत मेगास्थनीज ने (350 ईपू-290 ईपू) अपनी पुस्तक इंडिका में इस शहर का भी उल्लेख किया है। और पलिबोथ्रा यानी पाटलिपुत्र गंगा और इसकी पुष्टि भी की है कि अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा है। उसकी किताब के आकलनों के मुताबिक प्राचीन पटना 9 मील (14.5 कि.मी.) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि.मी.) चौड़ा था । आज पटना का स्वरूप जरूर बदल गया है लेकिन आज भी शहर तीन ओर से गंगा, सोन और पुनपुन नदियों से घिरा है । नगर से ठीक उत्तर गंगा के उस पार गंडक नदी भी गंगा में आ मिलती है। शहर का कुल क्षेत्रफल 3,202 वर्ग किमी है। 2001 की जनगणना के अनुसार पटना की जनसंख्या 12,85,470 है। 1991 में यहां की जनसंख्या 9,17,243 थी । जनसंख्या का घनत्व 1132 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमिटर है। स्त्री पुरूष अनुपात है - 839 स्त्री प्रति 1,000 पुरूष । साक्षरता की दर 62.9%, स्त्री साक्षरता 50.8% है । पटना यानी पाटलिपुत्र का अपना इतिहास रहा है। पटना यानी पाटलिपुत्र का अपना इतिहास रहा है। यह कभी पाटलिग्राम था जहां गुलाब (पाटलि का फुल्) की खेती होती थी। गुलाब के फुलों से तरह-तरह के इत्र, दवा बनाकर व्यापार किया जाता। गुलाब फुल कि खेती की वजह से इसका नाम पाटलिग्राम पड़ा। पटना को लेकर एक किंवदंति भी है । कहा जाता है कि राजा पत्रक ने अपनी रानी पाटिल के लिए जादू से इस शहर को बसाया था। बाद में रानी के नाम पर इस शहर का नाम पाटलिग्राम पड़ा। जो बाद में पाटलिपुत्र हो गया। मगध की राजधानी होने की वजह से इसकी गणना प्राचीनतम इतिहासों में भी होती रही है। पुरातात्विक अनुसंधानों के मुताबिक पटना का इतिहास 490 ईसा पूर्व से का बताया जाता है जब शिशुनाग वंश के शासक अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह से बदलकर यहां बनाया था। अजातशत्रु का वैशाली के लिच्छवियों से संघर्ष होने की वजह से उसके लिए पाटलिपुत्र राजगृह की अपेक्षा सामरिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त था। उसने गंगा के किनारे पाटलिपुत्र में अपना महल बनाया। उसी समय से यह शहर ऐतिहास बन गया । बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध यहां आये इसके भी प्रमाण मिलते हैं। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि नगर का भविष्य उज्जवल होगा, पर कभी बाढ़, आग या आपसी संघर्ष के कारण यह बर्बाद हो जाएगा । मौर्य काल में भी पाटलिपुत्र सत्ता का केन्द्र रहा। चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से लेकर अफगानिस्तान तक फैल फैला हुआ था। मौर्य वंश और सम्राट अशोक के समय के कई अवशेष यहां मौजूद हैं। चीनी यात्री फाहियान ने (सन् 399-414) अपने यात्रा-वृतांत में यहां के शैल संरचनाओं का उल्लेख किया है। इस नगर पर कई राजवंशों का शासन रहा है। । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद पटना का भविष्य काफी अनिश्चित रहा । 12 वीं सदी में बख्तियार खिजली ने बिहार पर अपना कब्जा जमाया और शासन किया । मुगलकाल में दिल्ली के शासकों भी ने इसे अपने अधिन किया । बादशाह शेरसाह सूरी ने नगर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की। उसने गंगा के किनारे अफ़ग़ान शैली की एक मस्जिद बनवाई जो आज भी मौजूद है । मुगल बादशाह अकबर 1574 में अफ़गान सरगना दाउद ख़ान को कुचलने पटना आया। इसके परमाण राज्य सचिव एवं आइने अकबरी के लेखक अबुल फ़जल के आइने अकबरी में मिलता है। उन्होंने इस जगह को कागज, पत्थर तथा शीशे का सम्पन्न औद्योगिक केन्द्र के रूप में उल्लेख किया है । सन् 1704 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने इस शहर का नामकरण अपने पोते मुहम्मद अजीम के नाम पर अज़ीमाबाद कर दिया। अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद पटना पर बंगाल के नबाबों ने कब्जा जमा। 17 वीं शताब्दी में पटना अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बना। अंग्रेज़ों ने 1620 में यहां रेशम तथा कैलिको के व्यापार के लिये यहां फैक्ट्री खोली । बाद में पटना इस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चला गया और वाणिज्य का केन्द्र बना रहा । 1912 में बंगाल के विभाजन के बाद पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना। 1935 में उड़ीसा बिहार से अलग कर कर दिया गया पर पटना ही राज्य की राजधानी बना रहा।आजादी की लड़ाई में भी पटना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी के बाद पटना बिहार की राजधानी बना रहा। धार्मित नजरिए से भी पटना का खासा महत्व रहा है। यहां हिन्दुओं के प्रसिद्ध मंदिर, पटन देवी और सिक्खों का पवित्र स्थल गुरुद्वारा है, जहां सिक्खों के 10वें तथा अंतिम गुरु गुरु गोविन्द सिंह का जन्म हुआ था पटना और इसके आसपास के कई प्राचीन भग्नावशेष और खंडहर हैं जो इस शहर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं। -----------

गुरुवार, 14 मई 2009

रायसिना हिल्स की दौड़

15वीं लोकसभा चुनाव के आखिरी दौर के मतदान खत्म होते ही सियासी चौसर बिछ गया है। शुरू हो गया है जोड़-घटाव,गुना-भाग का गणित। न्यूज चैनलों के एक्जिट पोल के परिणाम लगभग एक से हैं, लेकिन कांग्रेस-बीजेपी के एक्जिट पोल में उनकी पार्टियों को बढ़त दिखाई गई है। जो भी हो इसी एक्जिट पोल और अपनी-अपनी पार्टीयों के समीकरण के सहारे सियासी चालें शुरू हो गई हैं। जनता से किए गए वादे, चुनाव के दौरान विरोधी पार्टियों के उलटे-सीधे बयान, व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप और छींटाकशी सबको नजरअंदाज करके कबीर बनने की कोशिश जारी है। आखिर हर कोई 272 के आंकड़े के नूर का दीदार करना चाहता है।
स्वभाविक है कि 272 के इस आंकड़े को पार करने के लिए देश के चारों गठबंधन बेक़रार हैं। कांग्रेस प्रमुख यूपीए पार्टी है जिसे एक्जिट पोल में भी बढ़त पाते बताया गया है । उसकी पहुंच भी आसान नहीं। अकेले कांग्रेस के बूते की तो बात ही नहीं। और अगर यूपीए का गणित देखा जाए तो उससे अलग हुई लेफ्ट (30-40) साथ देती है, तो ममता बनर्जी की टीएमसी (12-15) छिटक जाएगी। लगभग यही हाल बसपा-सपा का है। कांग्रेस को माया का साथ मिलना आसान नहीं, और मिला तो देवी का चमत्कार ही होगा। कांग्रेस से सपा की नाराजगी भी छिपी नहीं है। कथित चौथा मोर्चा बाहें फैलाये इनका (एसपी 23) इंतजार कर रहा है। हांलाकि एक्जिट पोल के नतीजे के मुताबिक चौथा मोर्चा (महज 38 सीटें) बिसात पर बेहद कमजोर है। लालू-पासवान-मुलायम का गठजोड़ किस पाले में गिरेगा इसका अंदाज लगना भी आसान नहीं। रामविलास पासवान का इतिहास कबीर का साक्षी रहा है। गुलाम नबी आज़ाद की मशक्कत के बाद अगर जयललिता (एआईएडीएम के 20-25 सीटें) जुड़े तो डीएमके (8-10)का साथ छूट जाएगा। किसी भी हालत में ये दोनों एक खेमे में नहीं रह सकते। यानी जयललिता मिलीं तो डीएमके की 8-10 सीटें यूपीए के हाथों से निकल जाएंगी। सोनिया से कुमारस्वामी के मिलने के बाद जेडीएस से उम्मीद तो बनी है, पर उनका साथ गोवर्धन में लाठी का सहारा होगा। ऐसे में यूपीए के लिए ‘रायसिना-हिल्स’ को 272 की सूची थमाना न तो आसान होगा और न ही मनमोहन सिंह के लिए दोबारा पीएम की कुर्सी तक पहुंचना। बमुश्किल यूपीए गठबंधन (एक्जिट पोल में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 191 सीटें मिलने की उम्मीद) 200 का आंकड़ा ही पार कर पाएगा।
इन सब जोड़-घटाव के बाद और पिछले चुनाव के एक्जिट पोल के उलटे परिणाम (जिसमें एनडीए की बढ़त बताई गई थी) को देखते हुए यह अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं है कि 15वीं लोकसाभा चुनाव में एनडीए की बढ़त होगी। हांलाकि बीजेपी के लिए अकेले सरकार बनाना भी बूते की बात नहीं। एक्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी नीत गठबंधन एनडीए को 191 सीटें मिलने की उम्मीद जताई जा रही है और अकेले बीजेपी को 145-53 मिलने की उम्मीद है। (हांलाकि बीजेपी ने अपने एक्जिट पोल में 166 सीटें आने की उम्मीद जताई है) ऐसे में एनडीए सहयोगी दल, माया, जया, बीजेडी (सात) और निर्दलिय पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाता भी है तो कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगा। और ये आंकड़ा भी यूपीए से थोड़ा ही फासले का रहेगा। जहां तक तीसरे मोर्च के गणित और व्याकरण का सवाल है दोनों गठबंधनों के सामने कमजोर साबित हो रहा है।
रही बात रायसिना हिल्स जल्दी पहुंच की, तो दोनों गठबंधन ने अपनी कोशिशें और तेज़ कर दी हैं। ख़रीद-फ़रोख़्त का बाज़ार गर्म हो गया है। ऐसे में दोनों में कोई भी गठबंधन सरकार बनाती है तो कोई ठगा महसूस करेगा तो वो जनता होगी जिसने तपती धूप में मतदान केन्द्रों की क़तार में खड़े होकर अपना खून जलाया ।

शुक्रवार, 8 मई 2009

इतिहास बन कर रह गयी पटना कलम शैली

पटना कभी गुलाब, कभी शबाब और कभी अपने निराले अंदाज के लिए मशहूर रहा, तो कभी कला की खूबसूरती और बारीकी के लिए जाना जाता रहा. पटना की एक खास कला “पटना कलम” के नाम से विख्यात विश्व के चित्र कला शैलियों में एक अलग पहचान रखती है, लेकिन आज समय के प्रवाह ने इसे उस जगह ला दिया है, जहां इसकी पहचान बरकरार रखना भी मुश्किल हो गया है.
यों तो प्रत्येक कला शैली पर देश, काल, सामाजिक वातावरण, प्रकृति, व्यक्तिगत विचार और मनोवृति का प्रभाव तो पड़ता ही है, उस पर समाकालीन कला शैली का भी असर होता है. “पटना कलम” शैली भी इस प्रभाव से अछूती न रह सकी. नतीजतन ये शैली धीरे-धीरे अपनी पहचान खोती चली गयी. आज स्थिति यह है कि इस शैली के चित्रकार नगण्य है. “पटना कलम” शैली को जिन्दा रखने के लिए न तो पुराने कलाकारों ने कोशिश की और न ही नये चित्रकारों ने इसे जानने और सिखने में दिलचस्पी दिखाई. प्रोत्साहन और प्रशिक्षण के अभाव ने“पटना कलम” शैली को विशिष्ट नहीं होने दिया. अब तो इस शैली के आखिरी चित्रकार राधामोहन बाबू को गुजरे भी जमाना हो गया.
हालांकि “पटना कलम” शैली कई कला शैलियों के सम्मिश्रण से विकसित हुई. बावजूद इसकी मौलिक पहचान थी. ये यहां के कलाकारों में ही विकसित हुई लेकिन
तत्कालीन मुगल शैली भिन्न थी. इस शैली की खासियत ये थी कि इस के चित्रकार स्केच का सहारा नहीं लेते थे. वे सीधे ब्रश से ही आकृतियां बनाया करते थे. इस रंग, ब्रश और कागज बनाने का तरीका भी अनोखा था.इस शैली के कलाकार रंग फूल, फल, पत्थर, काजल, धातू और मिट्टी से तैयार किया करते थे. सिन्दूर, सिंगरहट और गेरू से लाल रंग, हरश्रृगार और रामरस से पीला रंग, लाजू पत्थर और नील से नीला रंग, चराग के फुलियों से काला, सोने से सुनहरा और शगरी मिट्टी से सफेद बनाया करते थे. ब्रश भी कई तरह के बनाये थे. बारीक चित्रकारी के लिए गिलहरी की पूछ के बाल से ब्रश बनाया जाता था और मोटे कामों के लिए ऊंट, हिरण तथा बकरे के बालों को उबाल कर कबूतर या चील के पंख से बांध कर ब्रश बनाया जाता था. कैनवास बनाने के लिए सूत, फटे-पुराने कपड़े और बांस इस्तेमाल करते थे और कैनवास पर रंग लगाने के लिए गोंद का उपयोग करते. ये इनकी शैली की खास विशेषता थी.

इनके काम का अंदाज भी बिल्कुल अलग था. ये बरसात के दिनों में रंगों का निर्माण करते, गर्मी के दिनों में आकृतियां बनाते और जाड़े के दिनों में आकृतियों में रंग भरा करते थे. बाद में दूसरी शैलियों के प्रभाव में ये शैली अपनी मूल तकनीक से अलग होती चली गई. इसका माध्यम जल रंग था. पाश्चात्य शैलियों के संपर्क में आने के बाद इसमें तैल रंगो का प्रयोग किया जाने लगा. स्टींपलिंग की जगह पर ब्रश स्ट्रोक्स का प्रयोग होने लगा. इसके चित्रकारों परम्परागत चित्रांकन को नए रूप में ढ़ाला. बड़े-बड़े चित्रों की जगह छोटे-छोटे चित्र बनाने की शुरुआत इन्हीं चित्रकारों ने की.
पटना कलम के चित्रकारों के बारे में कहा जाता है कि ये शैली राजस्थान, दिल्ली, मुरादाबाद के राज घरानों से होती हुई पटना के आम घरों पर दाखिल हुई और इनकी रोजमर्रा की जिन्दगी में अंकित होने लगी. इन लोगों ने राजा-महाराजाओं के चित्रों की जगह चाक पर काम करते कुम्हार, लोहार, मोची, भंगी और पशु-पक्षियों को चित्रित किया. कला जगत में प्रगतिवाद की शुरुआत यही से हुई.
जैसा कि कहा जाता है पटना कलम के चित्रकारों के पूर्वज प्रतापगढ़ के रहने वाले थे और अकबर के दरवार में चित्रकारी किया करते थे. यह भी कहा जाता है कि पटना शैली के पूर्वज मनोहर अकबर के समय के ही चित्रकार थे. इनके वंशज औरंगजेब के काल में अत्याचार तंग होकर पटना भाग आए और मुर्शिदाबाद चले गए. सन् 1857 में वे लोग भी मुर्शिदाबाद से पटना चले आए और पटना सिटी के लोदी कटरा, चौक, दिवान मुहल्ला इलाकों में बस गए. यहां के कलाविद रईसों, जमींदारों-नवाबों ने इन्हें प्रश्रय दिया. बाद में ये लोग यहीं के होकर रह गए.
पटना कलम शैली का विकास करीब 1760 में हुआ जो बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक रहा. इस शैली के प्रथम चित्रकार श्री सेवक राम माने जाते हैं. इनका कार्यकाल 1770 से 1830 माना जाता है. इनके समकालीन दुलास लाल का कार्यकाल 1875 तक माना जाता है. जयराम दास का नाम इन्हीं दिनों के कलाकरों में लिया जाता है. सन् 1830 और 1850 के बीच झुमकलाल, फकीरचंद लाला का नाम आता है, सन् 1850 से 1880 के दौरान पटना शैली के दो कलाकार शिवलाल और शिव दयाल लाल लोकप्रिय हुए. गोपाल लाल, मुकुंद लाल, गुरु सहाय लाल, बेनी लाल और गोविन्द लाल प्रमुख थे. इनके अलावा इस शैली में दो महिला चित्रकार सोना देवी और दक्षो देवी ने भी योगदान दिया. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध आते-आते पटना शैली की गति धीमी होती गई. नवाबों का जमाना चला गया, अंग्रेजों की उपेक्षा के शिकार कलाकार धीरे-धीरे शहर छोड़कर चले गए या दूसरे पेशे को अपना लिया. पटना कलम का घराना महादेव लाल का लोदी कटरा में रह गया. उन्हीं से यहां चित्रकारों ने प्रशिक्षण लिया.

जैसा कहा जाता है पटना शैली के आखिरी कलाकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा हुए. वे चित्रकार शिवलाल जी के नाती थे. ईश्वरी प्रसाद के पुत्र रामेश्वर प्रसाद ने भी चित्रकारी कि शिक्षा ली थी. इनके अलाव पटना कलम के तीन चित्रकारों का लिया जाता है, राधा मोहन बाबू, उपेन्द्र महारथी और दामोदर प्रसाद अम्बष्ठ. राधा मोहन बाबू ने इसे जीवित रखने का प्रयास किया. दामोदर बाबू की कला शैली पर कई शैलियों का प्रभाव रहा. मौजूदा कलाकार पटना शैली के कलाकार होने का दावा जरूर करते हैं पर इनकी कला को पटना शैली का कहना पटना कलम के साथ अन्यान होगा. हालांकि इस शैली को जीवित रखने के लिए कई कलाकारों ने अपनी तूलिका चलायी वहीं कई लेखकों ने भी इसकी संरचना रूपरंग को जिन्दा रखने के लिए अपनी लेखनी चलायी.

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

काश! कुर्सी टूट जाती

गांव शुरू होते ही शुरू होती हैं, छोटी-छोटी झोपडियां और आखिर में आलीशान इमारत. गांव का सबसे पुरानी और भव्य, जो अब जर्जर हो चुकी है. इमारत में जहां-तहां के प्लास्टर उजड़ चुके हैं. पूरी इमारत की रंगाई-सफाई के खर्च से तंग आकर इसके कुछ ही हिस्सों में ही ताजी सफेदी नजर आती है. हवेली का पूरा कुनबा एक कोने में सिमट गया है. बहुत कुछ बदल गया है,इस गांव में और इस हवेली में भी. आज से तीस साल पहले जी टी रोड के दोनों तरफ कच्चा मकान हुआ करता था और गांव के आखिर में ये इमारत. दूर से ही गांव के सबसे अमीर आदमी की हवेली होने की पहचान कराती थी. खंडहर बन चुकी ये इमारत,आज भी ये अपनी पहचान से महरूम नहीं है.यदि कुछ नहीं बदला तो हवेली के बाहर का बरामदा और उसमें झूलती कुर्सी और घर्र-घर्र करती आटे चक्की की मशीन.
दरवाजे पर गाड़ी रुकी तो मेरी तंद्रा भंग हुई. गाड़ी के आस-पास गली के बच्चे जमा होने लगे. दरवाजे पर गाड़ी रुकने की आवाज सुनकर इमारत के लोग भी बाहर निकल आए. एक-एक कर गाड़ी से सामान निकाला जा रहा था और मैं पुराने ख्यालों में डूबती जा रही थी. तब कारें इस सड़क पर कम चला करती थी और कब सरपट दौड़ती निकल जाती पता ही नहीं चलता. ननिहाल से जब आना होता तो पहले ही स्टेशन पर बग्गी भेज दी जाती. मां बित्ते भर घुघट किये बग्गी के अंदर दुबक जाती और हम उचक-उचक कर धीमी गति से पीछे छूटते खेत-खलिहान और गांव घरों को देखते. जैसे ही अपना खेत नजर आता चिल्ला पड़ते, वो देखो,अपना खेत. दूर दिखाती उंगुलियों के इशारे में मां एक से दिखते खेतों में अपना खेत ठूंठती और हम कहते , हां वही वाला जिसमें गेंहू की सुनहरी फलियां सबसे ऊंची लहरा रही हैं. अपना खेत हमें सबसे बड़ा और उसमें लगी फसल हमें सब उन्नत लगती थी. खेत-खलिहान दिखाते हम कब घर पहुंच जाते हमें पता ही नहीं चलता. ऐसे ही सामान उतारा जाता. मैं घर पहुंचते ही बरामदे में लगी कुर्सी की और लपकती. पर बैठने से पहले ही रोक दी जाती. बरामदे में लगी कुर्सी दादा जी की याद में रखी हुई है. इस कुर्सी पर घर के मर्द गाहे-बगाहें ही बैठते हैं. जबकि घर की औरतों को इस पर बैठने की रत्ति भर इजाजत नहीं हैं. यहां तक की अकेल में चोरी से भी नहीं.
कुर्सी पहले की तरह अब भी झूल रही थी पर पहले वाली चमक नहीं रह गयी थी. बार-बार मरम्मत न होने की वजह से लकड़ी के जोड़ों का पेबंद साफ दिखाई देती थी. कुर्सी
पर नजर पड़ते ही दादा जी की काल्पनिक आकृति आखों के सामने झूलने लगी. मैं हमेशा सोचा करती थी कि दादा इस कुर्सी पर बैठे कैसे लगते होंगे. लोग कहते हैं, दादा के समय में बरामदे में बड़ी रोनक रहा करती थी. दादा की जमींदारी में सैंकड़ों गांव थे. उनकी तूती बोलती थी. वे इसी कुर्सी पर बैठकर रईयत, पटवारी और नुमाइंदों से हिसाब-किताब और जवाब-तलब किया करते थे. कुर्सी हमेशा झूलती रहती. चाहे वो कुर्सी पर हों या नहीं. हमेशा झूलती कुर्सी उनके होने का एहसास करती थी. यहां तक की जब कोई हवेली के रास्ते से गुजरता तो यह जरूर देख लेता कि जमींदार साहब हैं या नहीं. यदि गलती से भी अदब-सलाम किए बगैर गुजर जाता तो उसकी खैर नहीं. अंग्रेज चले गये, जमींदारी खत्म हो गयी. पर हवेली में रौनक-अदब कई सालों तक बरकरार रहा. इतना जरूर था कि अब दादा रइयत-पटवारी से हिसाब-किताब न कर गेंहू-पिसवाने वाले ग्राहकों और नौकरों से हिसाब-किताब किया करते थे. भीड़ वैसे ही लगी रहती, जैसे जमींदारी के दिनों में हुआ करती थी. जमींदारी खत्म होते ही दादा जी ने बड़ी चालाकी से काम लिया, इमारत के इसी बरामदे में आटा-चक्की, चावल, तेल की मशीनें लगा ली. कहते हैं,उस वक्त शहरों में ही ऐसी मीलें हुई करती थीं.कई कोस से लोग यहां आते थे. रात-दिन मशीनें चलती रहतीं.
दादा जी की मौत के बाद बरामदे में पड़ी कुर्सी उसी तरह झूलती रही. मैंने उन्हें नहीं देखा, पर सुनते हैं,उनकी मौत के दस साल बाद मेरा जन्म हुआ था. जमींदरी तो खत्म हो गयी,पर कई वर्षों तक हवेली में रौनक और उसकी ठाट-बाट बनी रही. कुर्सी उनकी शान-शौकत की निशानी थी. कुर्सी पर बैठने की इजाजत तो बच्चों को भी नहीं थी. हां इसी बरामदे के एक कोने में लगे आदमकद तराजू के पलड़े पर हमारा पूरा आधिपत्य था और खासकर एकलौती होने से मेरा आधिपत्य छिन जाने का खतरा भी नहीं था. उसके एक पलड़े पर मन-दो मन का भारी भरकम बाट रहता और दूसरे पलड़े पर मैं कुर्सी वाले अंदाज में झूलती रहती. मेरा एक अलग सम्राज्य था. बावजूद मैं मौका मिलते ही कुर्सी पर झूलने से बाज नहीं आती.
आज भी पलड़ा और कुर्सी उसी अंदाज में झूल रहा था. मुझे याद हो आयी, सूरदास की वो पंक्ति, बूझत श्याम कौन तू गोरी, कहां रहत काकी है छोरी, लेकिन यहां मामला उलटा था. मैं पलड़े पर बैठी दादा की कुर्सी वाले अंदाज में झूल रही थी. एक अंजान लड़का पलड़े की वायीं तरफ आकर खड़ा हो गया और पेंग पर अपनी नजरें हिलाते मुझे देखता रहा. वो हमउम्र या थोड़ा बड़ा होगा तब अंदाज लगाना नहीं आता था.गोरा मासूम और बेहद प्यारा. गंजीनुमा शर्ट और अंडरवियरनुमा पैंट और उससे लटकता जारबंद. मैंने पूछा तुम कौन हो ? कहां से आए हो ? तुम्हारे बाप का नाम क्या है? उसने संकोच से अपना नाम बताया, गोपाल. तब तक उसका पिता आ चुका था. अब उसके परिचय की हमें कोई जरूरत नहीं थी. मैं उसके पिता को अच्छी तरह जानती थी. उसका बाप ग्वाला है. दूध बेचता है. पास के ही किसी गांव में रहता है. गेंहू पिसवाने आया करता है. पैसे के बदले में घी, दूध, दही दे जाती है, मैंने शाही अंदाज में शायद दादा की तरह सर हिलाते हुए कहा, तो ये तुम्हारा बेटा है, उसने कहा, जी हां. और गोपाल का हाथ पकड़कर वहां से चला गया. भीड़ के उस हिस्से में जहां आंटा पिसवाने वालों की कत्तार लगी रहती थी.
स्कूल में जब मैंने पहली बार उसे देखा तो अच्छा लगा. वह एक कोने में बैठा मुझे देखता रहता. मेरे कपड़ों को निहारता, मेरे साथ खेलने के लिए पास आने की कोशिश करता और फिर ठिठककर रह जाता. वो मेरा हमेशा ख्याल रखता. खेल के समय और बदमाश बच्चों से भी. मैं उसकी नजर में क्या थी पता नहीं, एहसास था पर समझ नहीं.
अब वो अकसर अपने पिता के साथ आने. गेंहू पिस जाने तक मुझे पलड़े पर झूलते देखता रहता. मुझे अपनी भव्यता का बोध उसके साथ झूलने का निमंत्रण नहीं देने देता लेकिन उसे देखकर दादा जी के कमरे में लगी तस्वीर की लड़की और झूला झूलाते लड़के की तस्वीर मेरी आंखों के सामने साकार हो जाती.
एक दिन वह फिर उसी तरह आकर खड़ा हो गया. मैं झूलती रही, दो चार पेंग लेने के बाद मैं रुकी, उसे अपने पास बुलाया. उसने मेरी रेश्मी फ्राक को छूआ और फिर दोनों हाथ पीछे मोड़ कर खड़ा हो गया. किसी आदेश के इंतजार में. मैं झूलती रही और वो मुझे झूलाता रहा है और न जाने कब मेरे साथ पलड़े पर खड़ा होकर झूलने लगा, मुझे पता ही नहीं चला. हम घंटों झूलते रहे. वो जब भी आता हम उसी तरह पलड़े पर झूलते रहते या कुर्सी के चारों तरफ घूम-घूम कर एक दूसरे को छूने का खेल खेलते. शुरू-शुरू में घर के बड़े यहां तक की नौकर भी खेलने से मना नहीं करते लेकिन बाद में तो उसे देखते ही हमें अंदर जाने का आदेश दे दिया जाता या अंदर से बुला लिया जाता. इसके बाद तस्वीर में झूलती लड़की हवेली में कैद कर दी गयी. मेरा मर्यादा का ये अतिक्रमण मान्य नहीं था. मेरा झूलने का शौक देखते हुए मेरे लिए आंगन के बरामदे में झूला डाल दिया गया, जो आंगन और बरामदे के बीच झूलता रहता और मैं उसपर बैठी गुनगुनाती रहती. घर की देहरी पार करने की बंदिशें शुरू हो गयीं थी. कभी-कभार बाहर बरामदे में गुड्डियों का ब्याह रचने या दूसरे खेल-खेलने चली जाती लेकिन अगल ही पल डांटकर अंदर भेज दी जाती. स्कूल में भी दो हिस्सों में कत्तारें लगने लगीं. जिसके एक हिस्से में लड़के और दूसरे हिस्से में लड़कियों बैठा करती थीं. खेलकूद में भी लड़के लड़कियों की टोली अलग होती थी.
घर में सामान बंधता देख पता चला कि हम शहर जा रहे हैं. तीसरी के बाद आगे की पढ़ाई गांव में नहीं होती थी और चार मील दूर कस्बे के स्कूल में लड़की को भेजने की जहमत उठाना नहीं चाहते थे. मां की जिद्द से हम शहर जा रहे थे. वो नहीं चाहती थी कि गांव की लड़कियों की तरह हम अनपढ़ रह जाए. शहर जाने की बात हमें अच्छी लगी. शायद इसलिए कि अब स्कूल जाने के लिए बस आयेगी और शहरी अंदाज के स्कूल ड्रेस भी. और न जाने क्या सोच-सोचकर में खुश होती रही. इस खुशी के बावजूद गुड्डा-गुड्डिया,घर-घरोंदा छुट जाने का दुख सालता रहा. मगर धीरे-धीरे किताबों की बोझ तले सब दब कर रह गया.
शहर आने के बाद गांव आने का मौका न के बराबर ही आया. गांव आयी भी तो एक आधे दिन में ही लोट गयी. गांव के किस्से कहानियां सुनने को जरूर मिलती रही. उन्हीं दिनों पता चला कि मुझे कंधे पर बैठाकर स्कूल लाने-लेजाने वाले रामखेलावन के पिता का चेहरा मेरे दादा जी से मिलता था और रामखेलावन का चेहरा मेरे पिता से. रामखेलावन का चेहरा तो मुझे आज भी याद है. मेरे पिता की तरह दप-दप गोरा. सुना था रामखेलावन की दादी मागो विधवा थी और मेरी परदादी की सेवा-टहल करती थी. दिन-रात की सेवा-टहल का परिणाम का था वह. परदादी अपने साथ उसे भी मायके ले गयी. पांच महीने बाद गांव वापस आयी तो उसकी गोद में रामखिलावन का पिता था.
बताते हैं रामखेलावन की मां रधिया बड़ी खूबसूरत थी. शादी होते ही बड़े साहब की भेंट चढ़ गयी और फिर पैदा हुआ रामखेलावन. उसे देखकर तो लोग दांतों तले उंगुली दबा लेते थे. हाय कैसा कुदरत का करिश्मा है. पाप नहीं छिपता... पर बड़े साहब का सीना और गज भर चौड़ा हो गया था. उन्होंने परम्परा निभाने में कोई कोताही नहीं की थी. रधिया भी जीवन भर महारानी जैसा सुख भोगती रही.
धीरे-धरे आस-पास के गांवों में भी आटा चक्कियां लग गयी. भीड़ और आमदनी दोनों ही कम हो गयी. हवेली की खुशहाली बदहाली में बदल रही थी. न तो गांव में हमारी जरूरत रह गयी थी और न ही गांव जाने की हमने जरूरत समझी. कॉलेज के अंतिम साल में शादी की बात शुरू हुई, फिर चट मंगनी पट ब्याह. वे लोग शादी के बाद तुरंत वापस चले गए. एक तरफ मुझे ले के लिए पासपोर्ट वीजा की कई कानूनी अड़चने थी. दूसरी लोगों ताने. ब्याही बेटी मायके में ही सड़ेगी. इन सब बातों ने हमें परेशान कर दिया था. उसका असर मेरी सेहत पर पड़ा. पहली बार लम्बे समय के लिए हम गांव आए.ताकि मेरा मन बदल सके. ज्यों-ज्यों समय बितता जा रहा था, मेरा मन डूबता जा रहा था. मुझे यकीन सा हो गया था कि वे लोग मुझे नहीं ले जाएंगे. यह कोई पहली घटना नहीं थी. विदेश में ब्याही रिश्ते की कई लड़कियां अपनी किस्मत पर रो रही थी.
इतने वर्षों में गांव की पूरी शक्ल ही बदल गयी थी. सड़के चौड़ी हो गयी. सड़क के किनारे होटल चाय-पान की कई दुकाने खुल गयी. स्कूल पांचवी से बारहवीं तक हो गया. गांव के कच्चे घर हमारी हवेली से ऊंचे और पक्के बन गए. ऊंची जाति की औरतें खेत खलिहानों में जाने लगी थी. सुना था कि गांव में ऊंची जाति के मर्दों का उद्धम खुले आम हो गया. घर के मर्दों का खासकर जवान लड़कों का खेत-खलिहान में मुसहरों की औरतों के साथ रंगरेलिया आम बात हो गयी थी. रात-रात भर घर के लड़के उनकी सोहवत में पड़े रहते. इनकी औरतें अपना बड़ा से पेट लिये अपने दावेदारी कर जातीं. नकदी रुपए से लेकर दाल-चावल, आटा तेल घर के भंडार से निकलकर इनकी रसोई में पहुंच जाता. न सिर्फ हवेली में बल्कि गांव के दूसरे रईसों के घरों में बदहाली साफ दिखने लगी थी. छोटी जाति के लड़के और ऊंची जाति के लड़कियों के किस्से दबी जुबान में खूब होते. इन सब के बावजूद बरामदे में रखी कुर्सी पहले की तरह झूलती रहती. लाचारी में घर के पुरुषों का या मेहमानों इसी कुर्सी पर बैठना पड़ता. गौशाले में न तो गायें थी और न ही दरवाजे पर बंधे बैलों की जोड़ियां खेतों पर बंटाइदारों का कब्जा हो चुका था.
मेरे आने की खबर सुनकर मुझ से मिलने वालों का कम तरस खाने वालों का जमावड़ा लग गया. मैं कई दिनों तक मदारी के बंदर की तरह तमाशे की चीज बनी रही. मैं प्राय: उसी कुर्सी पर आकर बैठ जाती और सड़कों पर गुजरते ट्रक, बस और कारों को देखती और बचपन की यादों में डूब जाती. लगता मैं कुर्सी पर नहीं पलड़े पर झूल रही हूं.
पलड़ा धीरे-धीरे झूलता रहा. चक्की उसी रफ्तार में चलती रहती. ग्राहक आते और चले जाते. मुझे न ग्राहकों में रुचि थी और न ही आने-जाने वालों से.
चक्की बंद हो गयी थी. सभी ग्राहक जा चुके थे. नौकर कहीं किसी काम में व्यस्त हो गया था. किसी के पास आने से मेरा ध्यान भंग हो गया. मैंने नजरें उठाकर देखा, सामने सांवला सा नौजवान आटे का गठ्ठर लिये खड़ा था और मुझे पहचाने की कोशिश कर रहा था. उसे देखते ही मैं खड़ी हो गयी. चहरा पहचाना सा लगा. कड़ी मेहनत, धूप और रूखी बेरहम हवाओं ने उसका रंग सांवला कर दिया था. उसके चेहरे पर वही सादगी और मासूमियत थी. बीस साल पुरानी घटनाएं पल भर को ताजा हो गयी. वो नन्हा सा गोपाल नहीं, सुदर्शन युवक हो गया था. हम एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते रहे. वह अपनी गठ्ठरी जमीन पर रखकर खड़ा हो गया. उसके सर पर गठ्ठरी रखने वाला कोई नहीं था. मैंने उसकी गठ्ठरी उठाकर उसके सर पर रखना चाहा. न जाने गठ्ठरी कैसे खुल गयी. आटा बचाने के क्रम में हम दोनों आलिंगन बद्ध हो गए. एक रंग होकर कुछ
पलों तक हम वैसे ही खड़े रहे. जब होश आया तो मैं धम से कुर्सी पर बैठ गयी. लगा दादा की कुर्सी आज चरमराकर टूट गयी. मैं बुत बनी रही और कुर्सी अपने अंदाज में झूलने लगी. वह सर से पांव तक आटे से रंगा, जल्दी-जल्दी आटा समेट रहा था. और मैं सोच रही थी काश ! आज ये कुर्सी टूट जाती.

काला पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू

आज रसोई से आती चूड़ियों की खनक में कोई राग नहीं था. न भैरवी न यमन न खमाज. मां जब सुबह की चाय बनाती तब मुझे भैरवी सुनाई देती थी और तब अनायास ही गले से भैरवी फूट पड़ती-सा रे ग म प ध नी सा ----सा नि ध प म ग रे सा...जा…. गो….नंदला...ल...प्या...रे...
मां की चूड़ियों में मुझे आरोह-अवरोह, स्थाई-अंतरा तान सब कुछ सुनाई देता. केतली में पानी भरे जाने से लेकर चाय बन जाने तक, एक संगीत होता. मां की चूड़ियों का संगीत. मां चाय का ट्रे बरामदे के टेबुल पर रखती तब मेरे आलाप का अंतिम स्वर होता था. पापा शायद इसी वक्त का इंतजार करते. अखबार टेबुल पर रखते और घंटी बजाते. चाय की घंटी सबको जगाने की घंटी. घंटी क्या सब लोग उस वक्त तक जाग ही चुके होते थे. मैं रियाज के लिए सुबह ही उठती थी. मां-पापा मुझ से पहले ही जाग चुके होते थे. ले-देकर भइया, जिसे जगाने के लिए घंटी की जरूरत पड़ती या चिढ़ाने के लिए. वह आंखें मलता हुआ कहता ये सुबह से ही आलाप शुरू कर देती है और पापा...आपको तो पता ही है, मैं देर रात से सोता हूं, फिर भी आप... आगे का वाक्य हम सब को पता था. हम सब हंसते मन ही मन खुश होते.
मुझे लगा अब चाय छानी जा रही है, लेकिन चूड़ियों में कोई संगीत नहीं था और न ही आलाप का अंतिम स्वर. चूड़यों की आवाज में बहुत फर्क है, शायद चूड़ियों की संख्या की वजह से. नौ-नौ या बारह-बारह होगी. मां के हाथों में सात-सात चूड़ियां हुआ करती थी. संगीत के सात स्वर. मां की चूड़ियों में एक संगीत होता था. जाना पहचाना संगीत. मां जब रोटियां बनाती तो मुझे सारंग सुनाई देता. मसाला पीसती तो मालकोश, कपड़े धोती तो धमार और जब हम सब के पास आती तो यमन सुनाई देता नी रे ग म ग रे नि रे सा...मां के हर काम में चूड़ियां खनकतीं. उसकी खनक में कोई-न कोई राग जरूर होता. अब शायद चाय का ट्रे टेबुल पर रखा जा रहा है, लेकिन पापा की घंटी सुनाई नहीं दी न ही भईया का चिड़चिड़ाना और न ही आलाप का अंतिम स्वर. मैं तानपूरे को छूती हूं. पापा इसे मेरे लिए ही लाये थे. मेरी मध्यमा पहले तार पर ही ठिठक गयी. मुझे महसूस हुआ मेरे हाथों के नीचे कोई चेहरा है. मेरा खुद का चेहरा थोड़ा रूखा और कठोर. चेहरे का अधिकांश हिस्से धने बालों से ढ़का है. मां कहती है, मैं पापा जैसी हूं. पापा का बेजान चेहरा जब पहली बार बड़ी होने पर स्पर्श किया था तो ऐसा ही महसूस हुआ था. मैंने बचपन में उनकी उंगुलियां सहारे के लिए पकड़ी. उनके चरण आशिर्वाद के लिए कई बार स्पर्श किए, लेकिन उनका चेहरा पहली बार उनकी मौत के बाद छुआ. अपना ही बेजान चेहरा, जिसपर बाल रूखापन और झुर्रियां थी. मुझे दाढ़ी से नफरत थी. मुझे याद है, बचपन में कई बार पापा अपनी दाढ़ी मेरे मुंह पर रगड़ दिया करते थे। कहते अब तुम्हें भी दाढ़ी हो जाएगी। मैं उनके चेहरे को छूती, कहती दाढ़ी बड़ी बुरी लगती है पापा. मेरे चेहरे पर दाढ़ी कभी नहीं होगी ना? पापा कहते, तुम मम्मी जैसी होगी.
मैं पापा से पूछती, पान का रंग कैसा होता है?
पापा कहते, लाल. लाओ तुम्हारा मुंह लाल कर देता हूं और मेरे मुंह में अपनी जीभ रगड़ देते. मैं थूकती, कई बार थूकती और चीखती मेरा मुंह जुठा हो गया. उसी समय से ही मेरे मन में पान की खुशबू हमेशा के लिए मेरे मन में बस गयी. पापा के पान की खुशबू. काला-पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू. जो उनके अंतिम दिनों तक यह सुगंध उनके साथ रही. यही उनकी पहचान थी मेरे लिए.
मुझे पापा ने ही बताया था कि आसमान का रंग नीला होता है. मैंने पूछा था, नीला ही क्यों? लाला पीला क्यों नहीं होता?
क्योंकि आसमान शून्य है, शून्य का रंग नीला होता है.
मुझे महसूस हुआ उनके बाद मेरा ह्रदय शून्य हो गया है. यानी नीला, आघात, चोट या शून्यता से, पता नहीं.
पापा का शव सीढ़ियों से उतारने के थोड़ी देर बाद सारा घर रो पीट कर एकदम शांत हो गया था. सब लोग नहा धोकर उनके बारे में ही बातें कर रहे थे. मैंने मां को पूरे घर में ढ़ंढ़ा. वह एक कोने में बैठी थी, अपने सारे स्वरों के टूट जाने के कातर भाव लेकर मां का चेहरा पहले कैसा लगता होगा. यह मेरी कल्पना से बाहर की बात थी. माथे पर सिन्दूर नहीं होगा, लाल बिन्दी नहीं होगी.
मां का लाल सिन्दूर, मां की लाल बिन्दी, लाल रंग...पान का लाल रंग...पान की खुशबू यानी काला पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू...घर के किसी कोने में नहीं थी. मां की सूनी कलाई...सात चूड़ियों का सरगम...मां की पहचान...पापा की पहचान... सब कुछ खो गया! सब कुछ!
शायद चाय का ट्रे बरामदे की टेबुल पर रखा जा चुका है. अठारह चूड़ियों की खनक और पायजेब की रूनझुन भैया के कमरे तक पहुंच गयी है. मां शायद छत पर सूर्य को अर्ध्य दे रही होगी या या तुलसी में जल डाल रही होगी. मां जब तुलसी में जल डालती थी, तब भी कोई राग बजता था मुझे याद नहीं. जब पहली बार राग भूपाली गायी थी तब पापा कितने खुश हुए थे. जो भी आता सबसे मेरी तारीफ करते, कहते कैसे गाती हो, इन्हें भी सुनाओ. वो वाला गाना...सा रे ग म प ध नि सा...मैं कहती सा रे ग मा प ध नि सा नहीं पापा. सा रे ग प ध सा...और मैं शुरू हो जाती द s र..s...श...न...s...दि..s ज...sए...त्रि..भू..व... न... पा…. ली...
इन स्वरों ने मुझे बहुत परेशान किया. मुझमें एक हमेशा बेचैनी बनी रहती. शायद ईश्वर को मुझ पर दया आ गई होगी. सूर को सुर दे दिया. मुझ में सुर था, लय था, रिदम था लेकिन कोई नहीं चाहता था कि मैं संगीत सीखूं. पापा भी नहीं चाहते थे. कहते थे, मेरे खानदान की लड़कियां गाएगी, बजाएगी लोग क्या कहेंगे. ये कैसे हो सकता है? उस गुरु से सिखने जाएगी जो हमारे यहां कभी तवायफों को नचवाया करते थे. बर्मा अंकल ने पापा को कई बार समझाया था, अब जमाना बदल गया है, बड़े-बड़े घरों की लड़कियां स्टेज पर गाती है. इसका जमाना आते-आते तो और भी बदल जाएगा. वैसे भी नेत्रहीन होने की वजह से इसकी पढ़ाई भी देर से शुरू की. बीस-बाईस साल की उम्र दसवीं ही पास कर पाएगी.
जब मैं पहली बार ब्रेल में लिखना सिखा था तब भी पापा बहुत खुश हुए. उन्हें लगा मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूंगी, लेकिन जब मैं खड़ी हुई तो पापा सो चुके थे. अपने पैरों पर खड़ा होने में कितना धक्का खाना पड़ा था. कई बार लगा मैं गिर जाऊंगी. घर और बाहर दोनों जगह हमें मानसिक यातनाएं सहनी पड़ती थी. बाहर की गर्द से बचने की हमेशा मेरी कोशिश रही और घर में उस गर्द की वेबजह झाड़-पोंछ होती जो मुझ पर पड़ी ही नहीं थी. भईया को पसंद नहीं था कि मैं बाहर गाऊं. उस दिन मैं तराना गा रही थी. मेरी आवाज बंद कमरे के बावजूद उनके कमरे में जा रही होगी. मैं स्वरों में खोयी थी. दुम ताना...ना...ना...दिम... ताना... ना...ना...
भईया लगभग चीखते हुए मेरे कमरे में आये, बंद करो दुम ता ना...ना.. ना...अगर तुम्हें गाने का इतना ही शौक है तो किसी कोठे पर चली जाओ. वहीं करती रहना दुम दाम. अब मुझे तुम्हारे ये सब नहीं सहे जाते. पापा का कमरा खाली है, वहीं रियाज किया करो. कम से कम तुम्हारी आवाज तो नहीं सुनाई देगी. मां-बेटी एक कमरे में भी रह सकती हो. मैं जम सी गई थी. बाद में मुझे लगा ये जमाव वक्त की सूई की है.
रसोई के बाद पापा का कमरा था फिर मेरा और उसके बाद भईया का. जब तक उनकी शादी नहीं हुई थी, बाहर के लोग उनके कमरे में ही आया जया करते थे. शादी के बाद एक कमरे की जरूर उन्होंने और महसूस की हो. शायद यह बात उन्होंने इसी बहाने कही. तब से मैं पापा के कमरे में रहती हूं. रियाज भी यही करती हूं, लेकिन अब वह संगीत सुनाई नहीं पड़ता, जो मां की चूड़ियों देता था. मैंने नए तारीके से मां की पहचान शुरू की. उनकी आहटों से, पैरों की मंथर गति से. मां की चूड़ियां खो जाने के बाद कोई राग नहीं बजा, कोई घंटी नहीं बजी. आज भी नहीं बजेगी. मां शायद कुर्सी पर बैठी मुझे आवाज दे रही है. चाय ठंड़ी हो जाएगी. आकर पी लो, न जाने क्यों कमरे में बंद रहती है. एक बूंद मेरे तानपूरे पर गिरा. बूंद तानपूरे पर फैल गया. मुझे लगा पापा का चेहरा आंसुओं से तर हो गया है. पता नहीं मां कब से चाय की प्याली लिये मेरे पास खड़ी है. आज कोई राग नहीं बजा। मुझे लगा काला-पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू मेरे पास पल भर ठिठक कर गुजर गयी थी.
अनिता कर्ण सिन्हा

सारांशहीन जिंदगी

समझौता, किससे? स्वयं से या परिस्थितियों से? शायद संभव होता तो कर लेता. लड़ता आया हूं, महत्वकांझाओं से. कब तक लड़ता रहूंगा. जिन्दगी का हर ब्याकरण मुझे गलत और निरर्थक लगता है. मैं निराश हो गया हूं. पराजीत हो गया हूं. नहीं, नहीं मेरा वजूद अब भी जिन्दा है, लेकिन कब तक... कब तक जिन्दा रहेगा.यह उसकी डायरी का एक पन्ना है, जो शायद उसकी गलती से मेरे पास आ गया था. मैं उसे लौटाना भी नहीं चाहती थी. चाहकर भी नहीं लौटा सकी, क्योंकि उसका हर शब्दा मुझे अच्छा लगाता था, उसकी लिखने की शैली, उसके टूटे-अधूरे शब्द. तीन बिन्दुओं को रेखांकित करती उसकी अनकही बातें. वह शब्दों का कृपण था. उसे हमेशा डर लगा रहता मैं उसके शब्द चुरा न लूं. वह मुझे कब देने वाला था शब्दों से भरा पन्ना भी.वह किसी नाम का पर्याय नहीं था इसी लिए मैं उसे अपर्याय ही समझा.ऐसा नहीं था कि मैं उसके व्यक्तित्व की आंच से न झुलसी थी, लेकिन, मेरे अहम का बितान उसके अहं के बितान से छोटा नहीं था. चाहकर भी हम दोनों अपने-अपने से बितान से नहीं निकल सके. बस झांकते ही रह गए. हम दोनों ही एक-दूसरे की कहानी के पात्र थे. महज कहानी के पात्र. उसका ब्याकरण गलत था और मेरा गणित. वह मेरा आलोचक था. मैं उसकी प्रशंसिका. बावजूद एक-दूसरे को पराजीत करने की होड थी, लेकिन उसका ‘तुम” संबोधन मेरे लिए जय-पराजय की परिधि से परे था. उसकी प्रतिभा की गंध मेरे मन में थी, तो दूसरी तरफ उसकी उसी प्रतिभा की तेज मुझे झुलसाये रहता था. उन दिनों मेरा और उसका डेस्क पास ही बराबर में लगा हुआ था. वह चुपचाप आकर बैठ जाता, घंटों काम करता रहता. उससे बात करने के लिए मुझे ही पहल करनी पड़ती थी. औरों की तरह उसे चाय-पान का भी शौक नहीं था. बस कहीं जाना होता तो एकाएक उठकर चला जाता, लेकिन उसके विपरीत चुप रहना मेरी लिए सजा थी. मैं चुप नहीं रह सकती. मैं आस-पास के बैठे लोगों से बेवजह ही बातें करती. मैं जानती थी कि उसे अच्छा नहीं लगता है. मेरा लोगों से बतियाना, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी, मेरे अतिरिक्त दूसरा महिला कर्मचारी भी नहीं थी. अगर होती तो मैं न स्वयं को जान पाती और न उसे भी. प्राय: वहां सभी लिखते थे. परन्तु मैं उसके लेखन से आहत थी. उससे भी ज्यादा आहत थी उसके अहंकार से. बारिश की उस शाम को मैं आज भी नहीं भूल पायी हूं. बारिश घंटों बाद भी जारी थी. हल्के-फुल्के छींटे पड़ रहे थे. लगभग सभी जा चुके थे. मेरा उसका एक साथ ही निकलना हुआ. मैंने रिक्शा ले ली. वह रोज पैदल ही जाया करता था. उसका यह फक्कड़ मिजाज मुझे अच्छा लगता और बुरा भी. बारिश की बूंद उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं थीं. भींगना, ठिठुरना और तपना उसकी आदत सी थी. पर न तो उसे मेरी तपिस का अहसास था और न ही इन बूंदों का. उस दिन भी वह बेफिक्र अपने विचारों में गुम चला जा रहा था. बादल अभी साफ नहीं हुए थे. बारिश होने की अभी पूरी आशंका थी. रिक्शेवाले ने चारों तरफ से प्लास्टिक लगा था. ताकि में कहीं से न भींगू. खुद भी प्लास्टिक का ठोंगा ओढ़ लिया था. वह भी कहीं से नहीं भींग रहा था. वैसे भी मेरे पास छाता रहा करता था, जो मैं अक्सर रिक्शेवाले को दे दिया करती थी. वह महाशय भींगते ही चले जा रहे थे. मैंने अचानक ही रिक्शा रोक कर कह दिया. “ आप भींग जाएंगे, मेरे पास छाता है, ले लीजिए. नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूं. रास्ते भर बारिश होती रही. मैं उसके भींगने की कल्पना से ही द्रवित होती रही. घर जाने के बाद उसके भूरे बालों में अटकी बारिश की बूंदों में ही मेरा मन उलझा रहा.कई बार मुझे लगा वो कुछ कहना चाहता है. मैं भी कभी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पायी. वह कहना चाहता था. तीन बिन्दुओं में अपनी सारी बातें और मैं जानना चाहती थी उसकी असंबद्ध बातों के बीच आये शब्दों में उसके मन के भावों का अर्थ. तीन बिन्दू मेरे लिए अस्पष्ट थे असंबद्ध वातें उसके लिए व्यर्थ. कई बार मैं उसके अल्प शब्दों का विश्लेषण करती. ढूंढ़ती उसे कहे गये शब्दों का पर्याय. उसके स्पष्ट-अस्पष्ट शब्दों के जाल में फंस कर रह जाती. फड़फड़ाने लगती मकड़े की जाल में मधुमक्खी की तरह.यूं ही तीन साल गुजर गए. उसके ख्यालों में ही मैं पल-पल जीती रही. नही के द्वीप में लगे बट वृक्ष की तरह वह मेरे मन में अपनी जड़े फैलाता रहा. उसने तरक्की के सारे फासले तय कर लिये. मुझे तब एहसास हुआ, जब उसे अखबार के प्रधान संपादक बनाए जाने की बातें लोगों में होने लगी. तीन साल गुजर जाने के बाद भी वह अपनी जगह तटस्थ रहा और मैं अपनी जगह. उसके जाने की पूरी तैयारी हो रही थी. अब केवल दो दिन ही शेष रह गये थे. मुझे लगने लगा था, मेरे मन का अंश टूट रहा है. मेरी कलम की नींव कहीं से दरक गयी है. शब्द खामोश हो गये हैं. उसके तेबर की किरण, जो विकिरण होकर मुझ तक आती थी. हवा में कहीं लुप्त हो गयी थी. उस दिन मैं समय से पहले ही पहुंच गयी थी. अभी देर थी लोगों के आने में. मैं अकेली, अपने डेस्क पर बैठी, लम्बे शीशे के पार, नीले आसमान के रंगों के बदलाव को देख रही थी. बादल नीला, सफेद,स्याह रंगों में बदल रहा था. अचानक वह मेरे पास आया. आश्चर्य था उसका मेरे पास आना, उससे बड़ा आश्चर्य था उसके कहे शब्द, “तुम मुझ से शादी करोगी” ?
मैं स्तब्ध रह गयी. एकटक मैंने उसकी आंखों में देखा. वही शांत, भावहीन, शून्य में ताकती आंखें, दो मेरे चेहरे पर टिकी थी. एक क्षण को मैं पथरा सी गयी. मेरे अधर हिले, ‘तुम मजाक तो नहीं कर रहे’
-‘नहीं’ ‘फिर अचानक ऐसी बातें’
-इतने दिनों की भूमिका क्या कम थी ?
मेरा चेतना लौट आयी. अहं का बितान मैंने खींच लिये- ‘नहीं यह कभी संभव नहीं हो सकता.’
‘लेकिन क्यों’ ? ‘क्यों’ का कोई जवाब मेरे पास नहीं है. आप और मुझ में आसमान जमीन का फासला है, जो कभी तय नहीं हो सकता’ घबराहट में मैं असंगत बातें कह गयी थी. अनजाने में ही मैं उसके ‘अहं” को चोट कर गयी थी. स्त्री अपने चरित्र पर और पुरुष ‘अहं’ पर चोट बर्दाश्त नहीं कर पाते. वह तिलमिला गया. -‘ खुद को तुम क्या समझती हो ?’
- ‘ जो मैं हूं’
-‘मैं औरों जैसा नहीं हूं’
-‘मैंने कब कहा ? आप जो भी हैं लोगों से अलग नहीं हैं.’
-‘तुम मुझे कभी नहीं भूल पाओगी’
-‘मैंने आपको याद ही कब किया है?’
सच मैं उसे कभी नहीं भूल पायी. वह मेरी कहानियों में कई बार छद्म रूप में आया. उसका छद्म रूप मुझे अभिन्न कभी नहीं रहा. आज उसे शोहरत मिली. मुझे भी, लेकिन, मैं इतिवृत में ही सिमटी कर रह गयी. वह छपता रहा रोज नये अखबारों में, नये आयामों में नये शब्दों के साथ. आज मेरे पास सब कुछ है. सुख-वैभव की समस्त चीजें. अच्छे ओहदे का पति, बच्चे, सब कुछ, लेकिन मुझे लगता है, उसके बेगैर अपनी रचनाओ में निर्रथक सारांश और लक्ष्मण रेखा में घिरी सारांशहीन जिन्दगी.