गुरुवार, 21 मई 2009

किंग मेकर का सपना टूटा

राजनीति की चौसर पर कौन सा पांसा सही और कौन गलत होगा, यह चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलता है। इस आमचुनाव में आत्मविश्वास से लबरेज कई दिग्गज किंग मेकर का सपना देख रहे थे। उन्हें अपनी चाल पर पूरा भरोसा भी था, पर अब खुद पछता रहे हैं। बात चौथे मोर्चे के दिग्गजों की है। इनका दावा था कि इनके बिना सरकार बन ही नहीं सकती, पर यहां पांसा उल्टा पड़ा। ये किंग मेकर तो क्या ये जनादेश के कंगाल बन गए। इनके एक सहयोगी का खाता तक नहीं खुला और एक औंधे मुंह गिरे।
ऐसा मोर्चे की तीनों प्रमुख पार्टियों एसपी, आरजेडी और एलजेपी, इनके प्रमुख चुनाव परिणाम आने से पहले ही दावा कर रहे थे और चुनाव से पहले इनमें से दो पार्टियां अलग भी हो गईं, लेकिन यूपीए बहुमत के करीब आया तो नेताओं के बयान बदल गए। यहां भी इसका पांसा उल्टा पड़ा। कांग्रेस ने इन तीनों को अंगूठा देखा दिया। कांग्रेस ने साफ कर दिया कि बीस मई को होने वाली यूपीए की बैठक में एसपी और आरजेडी शामिल नहीं होंगे। इस बैठक में सिर्फ चुनाव पूर्व गठबंधन वाली पार्टी को ही न्योता दिया गया।
चुनाव से पहले एसपी मुखिया मुलायम सिंह यादव ने दावा किया था कि एसपी समर्थन के बिना केंद्र में सरकार नहीं बनेगी, लेकिन अब चुनाव परिणाम के बाद स्थिति एक दम बदल गई। हांलाकि एसपी नेता ने रविवार को प्रधानमंत्री से भी मुलाकात की और रविवार शाम को ही चौथे मोर्चे की बैठक भी बुलाई गई, लेकिन सोमवार को कांग्रेस का तेवर देख एसपी मुखिया मुलायम सिंह को अपनी कर्मभूमि मैनपुर बैरंग वापस लौटना पड़ा और सरकार में शामिल होने का सुर दूसरे राग में बदल गया। अब वे कुछ और आलाप रहे हैं।
आरजेडी प्रमुख कांग्रेस सरकार में रहे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव की तो तबियत ही बदल गई। कांग्रेस के दो टूक जवाब से आहत श्री यादव तो आपा ही खो बैठें और जमकर कांग्रेस को भला बूरा कहा। यहां तक कि कैबिनेट में अपमानित किये जाने का आरोप भी लगाया। हांलाकि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और कांग्रेस राज्य इकाइयों ने पहले ही तय कर लिया था कि भविष्य में बिहार और यूपी में कांग्रेस अपने बलबूते पर चुनाव में उतरेगी। यूपी में कांग्रेस का फर्मूला कामयाब भी रहा है। जहां तक बिहार में एकल चुनाव में उतरने का फैसला कांग्रेस ने एलजेपी और आरजेडी की रणनीति के उजागर होने के बाद ही लिया था। बिहार में एलजेपी और आरजेडी ने सीटों का आपस में बंटवारा कर कांग्रेस के खाते में महज तीन सीटें डाली थी, जिसका परिणाम था कि बिहार के सभी 40 सीटों अकेल निर्णय लेने का फैसला किया।

पासवान का राजयोग खत्म

केन्द्र में यूपीए ने सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया है, लेकिन हर मत्रिमंडल में शामिल रहे एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान मंत्रिमंडल में नजर नहीं आयेंगे। 2009 के चुनाव में उनका पत्ता पूरी तरह साफ हो गया है। रामविलास पासवान न तो अपनी सीट बचा पाये और न ही उनकी पार्टी खात खोल पायी। हांलाकि अपनी हार के लिए पासवान यूपीए से दूरी बता रहे हैं, पर उनकी हार की वजह महज यही नहीं। केन्द्र में एक बार फिर कांग्रेस का कब्जा हो गया। मनमोहन सिंह ने सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया है और शुक्रवार को यूपीए की सरकार बन भी जाएगी, लेकिन मंत्रिमंडल में एक चेहरा जो पिछले कई सरकारों के मंत्रिमंडल में नजर आता रहा है, नजर नहीं आयेगा। एलजेपी अध्यक्ष रामविलास पासवान मंत्रिमंडल में नहीं होंगे, लेकिन सवाल ये है कि हर सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले पासवान आखिर इस बार सदन में क्यों नहीं पहुंच पाये। 1977 में रिकॉर्ड मतों से जीतने वाले रामविलास पासवान के साथ मतगणना से ठीक पहले अपशकुन हुआ। दिल्ली स्थित उनके घर में आग लग गई। चुनाव रिजल्ट आया तो पासवान हार गए। उनका पांसा गलत साबित हुआ। कांग्रेस का साथ छोड़ना उनकी भूल साबित हुई। हांलाकि वे हार की वजह अपनी ही भूल मानते हैं। कांग्रेस का साथ छूटना भारी पड़ा, लेकिन हार की वजह सिर्फ ये ही नहीं माना जा रहा है। लालू प्रसाद यादव से उनका गठजोड़ भी उन्हें मंहगा पड़ा। राघोपुर विधान सभा का इलाका राबड़ी देवी का क्षेत्र है। यादवों का वोट यहां से पासवान को नहीं मिला। विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाबी खुद रखने की जिद्द की वजह से यादव नाराज थे। करीब चार लाख आबादी वाले यादव वोट अगर पासवान के पाले में गिरता तो स्थिति कुछ और होती। दूसरी बात ये कि पासवान अपनी जाति के एकलौते उम्मीदवार नहीं थे। उनकी जाति के चार उम्मीदवार खड़े होकर उनके वोट बैंक में सेंध लगाया। लालू से उनकी दोस्ती सवर्णों को रास नहीं आई। ऊंची जाति से मिलने वाले वोट उनकी झोली से छिटक गई। परिसीमन ने भी इनके वोट बैंक को तितिर-बितिर कर दिया। पातेपुर इलाका जो दलितों का गढ़ है इनकी परिधि से बाहर निकल गया। इसका भी खामियाजा उन्हें उठाना पड़ा। जेडीयू का गढ़ वैशाली का लालगंज इलाका हाजीपुर में शामिल हुआ तो लेकिन नीतीश के विकास की लहर ने यहां के दूसरे वोटरों को भी बहा ले गई।

शुक्रवार, 15 मई 2009

पाटलिपुत्र से पटना

बिहार की राजधानी पटना का नाम आते ही ज़ेहन में कई नाम उभरते हैं, पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, पुष्पपुर, कुसुमपुर, अज़ीमाबाद और पटना। पटना का इतिहास काफ़ी पुराना है। यह शहर गंगा, सोन और पुनपुन तीन नदियों के संगम पर होने की वहज से हमेशा आबाद तो रहा ही, वक्त के थपेड़ों से भी बसता-उजड़ता रहा है। यह शहर अपने गर्भ में इतिहास के कई काल को समेटे हुए है। नतीजतन धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्ट्रि से पटना का खासा महत्व रहा है। युनानी इतिहासकार और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में राजदूत मेगास्थनीज ने (350 ईपू-290 ईपू) अपनी पुस्तक इंडिका में इस शहर का भी उल्लेख किया है। और पलिबोथ्रा यानी पाटलिपुत्र गंगा और इसकी पुष्टि भी की है कि अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा है। उसकी किताब के आकलनों के मुताबिक प्राचीन पटना 9 मील (14.5 कि.मी.) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि.मी.) चौड़ा था । आज पटना का स्वरूप जरूर बदल गया है लेकिन आज भी शहर तीन ओर से गंगा, सोन और पुनपुन नदियों से घिरा है । नगर से ठीक उत्तर गंगा के उस पार गंडक नदी भी गंगा में आ मिलती है। शहर का कुल क्षेत्रफल 3,202 वर्ग किमी है। 2001 की जनगणना के अनुसार पटना की जनसंख्या 12,85,470 है। 1991 में यहां की जनसंख्या 9,17,243 थी । जनसंख्या का घनत्व 1132 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमिटर है। स्त्री पुरूष अनुपात है - 839 स्त्री प्रति 1,000 पुरूष । साक्षरता की दर 62.9%, स्त्री साक्षरता 50.8% है । पटना यानी पाटलिपुत्र का अपना इतिहास रहा है। पटना यानी पाटलिपुत्र का अपना इतिहास रहा है। यह कभी पाटलिग्राम था जहां गुलाब (पाटलि का फुल्) की खेती होती थी। गुलाब के फुलों से तरह-तरह के इत्र, दवा बनाकर व्यापार किया जाता। गुलाब फुल कि खेती की वजह से इसका नाम पाटलिग्राम पड़ा। पटना को लेकर एक किंवदंति भी है । कहा जाता है कि राजा पत्रक ने अपनी रानी पाटिल के लिए जादू से इस शहर को बसाया था। बाद में रानी के नाम पर इस शहर का नाम पाटलिग्राम पड़ा। जो बाद में पाटलिपुत्र हो गया। मगध की राजधानी होने की वजह से इसकी गणना प्राचीनतम इतिहासों में भी होती रही है। पुरातात्विक अनुसंधानों के मुताबिक पटना का इतिहास 490 ईसा पूर्व से का बताया जाता है जब शिशुनाग वंश के शासक अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह से बदलकर यहां बनाया था। अजातशत्रु का वैशाली के लिच्छवियों से संघर्ष होने की वजह से उसके लिए पाटलिपुत्र राजगृह की अपेक्षा सामरिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त था। उसने गंगा के किनारे पाटलिपुत्र में अपना महल बनाया। उसी समय से यह शहर ऐतिहास बन गया । बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध यहां आये इसके भी प्रमाण मिलते हैं। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि नगर का भविष्य उज्जवल होगा, पर कभी बाढ़, आग या आपसी संघर्ष के कारण यह बर्बाद हो जाएगा । मौर्य काल में भी पाटलिपुत्र सत्ता का केन्द्र रहा। चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से लेकर अफगानिस्तान तक फैल फैला हुआ था। मौर्य वंश और सम्राट अशोक के समय के कई अवशेष यहां मौजूद हैं। चीनी यात्री फाहियान ने (सन् 399-414) अपने यात्रा-वृतांत में यहां के शैल संरचनाओं का उल्लेख किया है। इस नगर पर कई राजवंशों का शासन रहा है। । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद पटना का भविष्य काफी अनिश्चित रहा । 12 वीं सदी में बख्तियार खिजली ने बिहार पर अपना कब्जा जमाया और शासन किया । मुगलकाल में दिल्ली के शासकों भी ने इसे अपने अधिन किया । बादशाह शेरसाह सूरी ने नगर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की। उसने गंगा के किनारे अफ़ग़ान शैली की एक मस्जिद बनवाई जो आज भी मौजूद है । मुगल बादशाह अकबर 1574 में अफ़गान सरगना दाउद ख़ान को कुचलने पटना आया। इसके परमाण राज्य सचिव एवं आइने अकबरी के लेखक अबुल फ़जल के आइने अकबरी में मिलता है। उन्होंने इस जगह को कागज, पत्थर तथा शीशे का सम्पन्न औद्योगिक केन्द्र के रूप में उल्लेख किया है । सन् 1704 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने इस शहर का नामकरण अपने पोते मुहम्मद अजीम के नाम पर अज़ीमाबाद कर दिया। अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद पटना पर बंगाल के नबाबों ने कब्जा जमा। 17 वीं शताब्दी में पटना अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बना। अंग्रेज़ों ने 1620 में यहां रेशम तथा कैलिको के व्यापार के लिये यहां फैक्ट्री खोली । बाद में पटना इस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चला गया और वाणिज्य का केन्द्र बना रहा । 1912 में बंगाल के विभाजन के बाद पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना। 1935 में उड़ीसा बिहार से अलग कर कर दिया गया पर पटना ही राज्य की राजधानी बना रहा।आजादी की लड़ाई में भी पटना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी के बाद पटना बिहार की राजधानी बना रहा। धार्मित नजरिए से भी पटना का खासा महत्व रहा है। यहां हिन्दुओं के प्रसिद्ध मंदिर, पटन देवी और सिक्खों का पवित्र स्थल गुरुद्वारा है, जहां सिक्खों के 10वें तथा अंतिम गुरु गुरु गोविन्द सिंह का जन्म हुआ था पटना और इसके आसपास के कई प्राचीन भग्नावशेष और खंडहर हैं जो इस शहर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं। -----------

गुरुवार, 14 मई 2009

रायसिना हिल्स की दौड़

15वीं लोकसभा चुनाव के आखिरी दौर के मतदान खत्म होते ही सियासी चौसर बिछ गया है। शुरू हो गया है जोड़-घटाव,गुना-भाग का गणित। न्यूज चैनलों के एक्जिट पोल के परिणाम लगभग एक से हैं, लेकिन कांग्रेस-बीजेपी के एक्जिट पोल में उनकी पार्टियों को बढ़त दिखाई गई है। जो भी हो इसी एक्जिट पोल और अपनी-अपनी पार्टीयों के समीकरण के सहारे सियासी चालें शुरू हो गई हैं। जनता से किए गए वादे, चुनाव के दौरान विरोधी पार्टियों के उलटे-सीधे बयान, व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप और छींटाकशी सबको नजरअंदाज करके कबीर बनने की कोशिश जारी है। आखिर हर कोई 272 के आंकड़े के नूर का दीदार करना चाहता है।
स्वभाविक है कि 272 के इस आंकड़े को पार करने के लिए देश के चारों गठबंधन बेक़रार हैं। कांग्रेस प्रमुख यूपीए पार्टी है जिसे एक्जिट पोल में भी बढ़त पाते बताया गया है । उसकी पहुंच भी आसान नहीं। अकेले कांग्रेस के बूते की तो बात ही नहीं। और अगर यूपीए का गणित देखा जाए तो उससे अलग हुई लेफ्ट (30-40) साथ देती है, तो ममता बनर्जी की टीएमसी (12-15) छिटक जाएगी। लगभग यही हाल बसपा-सपा का है। कांग्रेस को माया का साथ मिलना आसान नहीं, और मिला तो देवी का चमत्कार ही होगा। कांग्रेस से सपा की नाराजगी भी छिपी नहीं है। कथित चौथा मोर्चा बाहें फैलाये इनका (एसपी 23) इंतजार कर रहा है। हांलाकि एक्जिट पोल के नतीजे के मुताबिक चौथा मोर्चा (महज 38 सीटें) बिसात पर बेहद कमजोर है। लालू-पासवान-मुलायम का गठजोड़ किस पाले में गिरेगा इसका अंदाज लगना भी आसान नहीं। रामविलास पासवान का इतिहास कबीर का साक्षी रहा है। गुलाम नबी आज़ाद की मशक्कत के बाद अगर जयललिता (एआईएडीएम के 20-25 सीटें) जुड़े तो डीएमके (8-10)का साथ छूट जाएगा। किसी भी हालत में ये दोनों एक खेमे में नहीं रह सकते। यानी जयललिता मिलीं तो डीएमके की 8-10 सीटें यूपीए के हाथों से निकल जाएंगी। सोनिया से कुमारस्वामी के मिलने के बाद जेडीएस से उम्मीद तो बनी है, पर उनका साथ गोवर्धन में लाठी का सहारा होगा। ऐसे में यूपीए के लिए ‘रायसिना-हिल्स’ को 272 की सूची थमाना न तो आसान होगा और न ही मनमोहन सिंह के लिए दोबारा पीएम की कुर्सी तक पहुंचना। बमुश्किल यूपीए गठबंधन (एक्जिट पोल में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 191 सीटें मिलने की उम्मीद) 200 का आंकड़ा ही पार कर पाएगा।
इन सब जोड़-घटाव के बाद और पिछले चुनाव के एक्जिट पोल के उलटे परिणाम (जिसमें एनडीए की बढ़त बताई गई थी) को देखते हुए यह अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं है कि 15वीं लोकसाभा चुनाव में एनडीए की बढ़त होगी। हांलाकि बीजेपी के लिए अकेले सरकार बनाना भी बूते की बात नहीं। एक्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी नीत गठबंधन एनडीए को 191 सीटें मिलने की उम्मीद जताई जा रही है और अकेले बीजेपी को 145-53 मिलने की उम्मीद है। (हांलाकि बीजेपी ने अपने एक्जिट पोल में 166 सीटें आने की उम्मीद जताई है) ऐसे में एनडीए सहयोगी दल, माया, जया, बीजेडी (सात) और निर्दलिय पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाता भी है तो कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगा। और ये आंकड़ा भी यूपीए से थोड़ा ही फासले का रहेगा। जहां तक तीसरे मोर्च के गणित और व्याकरण का सवाल है दोनों गठबंधनों के सामने कमजोर साबित हो रहा है।
रही बात रायसिना हिल्स जल्दी पहुंच की, तो दोनों गठबंधन ने अपनी कोशिशें और तेज़ कर दी हैं। ख़रीद-फ़रोख़्त का बाज़ार गर्म हो गया है। ऐसे में दोनों में कोई भी गठबंधन सरकार बनाती है तो कोई ठगा महसूस करेगा तो वो जनता होगी जिसने तपती धूप में मतदान केन्द्रों की क़तार में खड़े होकर अपना खून जलाया ।

शुक्रवार, 8 मई 2009

इतिहास बन कर रह गयी पटना कलम शैली

पटना कभी गुलाब, कभी शबाब और कभी अपने निराले अंदाज के लिए मशहूर रहा, तो कभी कला की खूबसूरती और बारीकी के लिए जाना जाता रहा. पटना की एक खास कला “पटना कलम” के नाम से विख्यात विश्व के चित्र कला शैलियों में एक अलग पहचान रखती है, लेकिन आज समय के प्रवाह ने इसे उस जगह ला दिया है, जहां इसकी पहचान बरकरार रखना भी मुश्किल हो गया है.
यों तो प्रत्येक कला शैली पर देश, काल, सामाजिक वातावरण, प्रकृति, व्यक्तिगत विचार और मनोवृति का प्रभाव तो पड़ता ही है, उस पर समाकालीन कला शैली का भी असर होता है. “पटना कलम” शैली भी इस प्रभाव से अछूती न रह सकी. नतीजतन ये शैली धीरे-धीरे अपनी पहचान खोती चली गयी. आज स्थिति यह है कि इस शैली के चित्रकार नगण्य है. “पटना कलम” शैली को जिन्दा रखने के लिए न तो पुराने कलाकारों ने कोशिश की और न ही नये चित्रकारों ने इसे जानने और सिखने में दिलचस्पी दिखाई. प्रोत्साहन और प्रशिक्षण के अभाव ने“पटना कलम” शैली को विशिष्ट नहीं होने दिया. अब तो इस शैली के आखिरी चित्रकार राधामोहन बाबू को गुजरे भी जमाना हो गया.
हालांकि “पटना कलम” शैली कई कला शैलियों के सम्मिश्रण से विकसित हुई. बावजूद इसकी मौलिक पहचान थी. ये यहां के कलाकारों में ही विकसित हुई लेकिन
तत्कालीन मुगल शैली भिन्न थी. इस शैली की खासियत ये थी कि इस के चित्रकार स्केच का सहारा नहीं लेते थे. वे सीधे ब्रश से ही आकृतियां बनाया करते थे. इस रंग, ब्रश और कागज बनाने का तरीका भी अनोखा था.इस शैली के कलाकार रंग फूल, फल, पत्थर, काजल, धातू और मिट्टी से तैयार किया करते थे. सिन्दूर, सिंगरहट और गेरू से लाल रंग, हरश्रृगार और रामरस से पीला रंग, लाजू पत्थर और नील से नीला रंग, चराग के फुलियों से काला, सोने से सुनहरा और शगरी मिट्टी से सफेद बनाया करते थे. ब्रश भी कई तरह के बनाये थे. बारीक चित्रकारी के लिए गिलहरी की पूछ के बाल से ब्रश बनाया जाता था और मोटे कामों के लिए ऊंट, हिरण तथा बकरे के बालों को उबाल कर कबूतर या चील के पंख से बांध कर ब्रश बनाया जाता था. कैनवास बनाने के लिए सूत, फटे-पुराने कपड़े और बांस इस्तेमाल करते थे और कैनवास पर रंग लगाने के लिए गोंद का उपयोग करते. ये इनकी शैली की खास विशेषता थी.

इनके काम का अंदाज भी बिल्कुल अलग था. ये बरसात के दिनों में रंगों का निर्माण करते, गर्मी के दिनों में आकृतियां बनाते और जाड़े के दिनों में आकृतियों में रंग भरा करते थे. बाद में दूसरी शैलियों के प्रभाव में ये शैली अपनी मूल तकनीक से अलग होती चली गई. इसका माध्यम जल रंग था. पाश्चात्य शैलियों के संपर्क में आने के बाद इसमें तैल रंगो का प्रयोग किया जाने लगा. स्टींपलिंग की जगह पर ब्रश स्ट्रोक्स का प्रयोग होने लगा. इसके चित्रकारों परम्परागत चित्रांकन को नए रूप में ढ़ाला. बड़े-बड़े चित्रों की जगह छोटे-छोटे चित्र बनाने की शुरुआत इन्हीं चित्रकारों ने की.
पटना कलम के चित्रकारों के बारे में कहा जाता है कि ये शैली राजस्थान, दिल्ली, मुरादाबाद के राज घरानों से होती हुई पटना के आम घरों पर दाखिल हुई और इनकी रोजमर्रा की जिन्दगी में अंकित होने लगी. इन लोगों ने राजा-महाराजाओं के चित्रों की जगह चाक पर काम करते कुम्हार, लोहार, मोची, भंगी और पशु-पक्षियों को चित्रित किया. कला जगत में प्रगतिवाद की शुरुआत यही से हुई.
जैसा कि कहा जाता है पटना कलम के चित्रकारों के पूर्वज प्रतापगढ़ के रहने वाले थे और अकबर के दरवार में चित्रकारी किया करते थे. यह भी कहा जाता है कि पटना शैली के पूर्वज मनोहर अकबर के समय के ही चित्रकार थे. इनके वंशज औरंगजेब के काल में अत्याचार तंग होकर पटना भाग आए और मुर्शिदाबाद चले गए. सन् 1857 में वे लोग भी मुर्शिदाबाद से पटना चले आए और पटना सिटी के लोदी कटरा, चौक, दिवान मुहल्ला इलाकों में बस गए. यहां के कलाविद रईसों, जमींदारों-नवाबों ने इन्हें प्रश्रय दिया. बाद में ये लोग यहीं के होकर रह गए.
पटना कलम शैली का विकास करीब 1760 में हुआ जो बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक रहा. इस शैली के प्रथम चित्रकार श्री सेवक राम माने जाते हैं. इनका कार्यकाल 1770 से 1830 माना जाता है. इनके समकालीन दुलास लाल का कार्यकाल 1875 तक माना जाता है. जयराम दास का नाम इन्हीं दिनों के कलाकरों में लिया जाता है. सन् 1830 और 1850 के बीच झुमकलाल, फकीरचंद लाला का नाम आता है, सन् 1850 से 1880 के दौरान पटना शैली के दो कलाकार शिवलाल और शिव दयाल लाल लोकप्रिय हुए. गोपाल लाल, मुकुंद लाल, गुरु सहाय लाल, बेनी लाल और गोविन्द लाल प्रमुख थे. इनके अलावा इस शैली में दो महिला चित्रकार सोना देवी और दक्षो देवी ने भी योगदान दिया. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध आते-आते पटना शैली की गति धीमी होती गई. नवाबों का जमाना चला गया, अंग्रेजों की उपेक्षा के शिकार कलाकार धीरे-धीरे शहर छोड़कर चले गए या दूसरे पेशे को अपना लिया. पटना कलम का घराना महादेव लाल का लोदी कटरा में रह गया. उन्हीं से यहां चित्रकारों ने प्रशिक्षण लिया.

जैसा कहा जाता है पटना शैली के आखिरी कलाकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा हुए. वे चित्रकार शिवलाल जी के नाती थे. ईश्वरी प्रसाद के पुत्र रामेश्वर प्रसाद ने भी चित्रकारी कि शिक्षा ली थी. इनके अलाव पटना कलम के तीन चित्रकारों का लिया जाता है, राधा मोहन बाबू, उपेन्द्र महारथी और दामोदर प्रसाद अम्बष्ठ. राधा मोहन बाबू ने इसे जीवित रखने का प्रयास किया. दामोदर बाबू की कला शैली पर कई शैलियों का प्रभाव रहा. मौजूदा कलाकार पटना शैली के कलाकार होने का दावा जरूर करते हैं पर इनकी कला को पटना शैली का कहना पटना कलम के साथ अन्यान होगा. हालांकि इस शैली को जीवित रखने के लिए कई कलाकारों ने अपनी तूलिका चलायी वहीं कई लेखकों ने भी इसकी संरचना रूपरंग को जिन्दा रखने के लिए अपनी लेखनी चलायी.