सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

‘रखैल’ शब्द पर आपत्ति

‘रखैल’ शब्द से मेरे जेहन में तीन तस्वीरें उभरती हैं। चांद बीवी, बिंदिया नानी और भोलवा की मां। भोलवा की मां 1980 में ही गुजर गयीं। चांद बीवी अभी जिन्दा हैं। शायद बिंदिया नानी भी अब नहीं रही होंगी।
घर से बाहर ये औरतें कभी बेपर्दा नहीं दिखीं, हमेशा इनके चेहरे पर सिल्क का चादर चढ़ा रहा। पहचानने वाले कदकाठी से ही अनुमान लगाते होंगे कि ये फलां की रखैल हैं। ये लोग कभी किसी खास मौके पर मुहल्ले या रिश्तेदारों के घरों में नजर नहीं आयीं। तीज-त्यौहार, शादी-व्याह में इनका खाना इनके घर भिजवा दिया जाता था। कभी गयीं भी तो पंगत में नहीं बैठतीं, इनकी थाली अलग लगती थी। एकआध बार बैठीं भी तो और औरतें पंगत से उठ गयीं। इन्हें अलग मकान या घर के अलग हिस्सों में रखा जाता था। इनका परिवार आज भी ‘रखैल’ शब्द का दंश झेल रहा है।
रखैल किसी भी औरत के लिए शर्मनाक, वीभत्स, दंश देने वाला शब्द है। किसी भी औरत ने किसी भी काल में अपनी खुशी से किसी की रखैल बनना पसंद नहीं किया। औरत की मजबूरी, लाचारी, अज्ञानता और पुरुषों की सामंती प्रवृति ने महिलाओं को रखैल की संज्ञा दी। और अब जब हमारा लोकतंत्र महिला और पुरुष दोनों को समानता का अधिकार देता है तो ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘रखैल’ शब्द का प्रयोग सामंती मनोवृति ही कही जायेगी। भले ही यह अदालत की अवमानना हो पर ऐसे शब्दों के इस्तेमाल पर निंदा और आपत्ति होनी ही चाहिए।
महाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह की नाराजगी जायज है। हैरानी तो इस बात की है अवमानना के डर से चंद लोगों के सिवा किसी ने आपत्ति जताने की कोशिश नहीं की। बात-बात पर प्रतिक्रिया देने वाले राजनेता खामोश रहे।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर हमें ऐतराज नहीं, हमें उसके ‘रखैल’ शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति है। सामंती व्यवस्था में कोई भी औरत बिना शादी के किसी पुरुष के साथ उस पर निर्भर होकर पत्नी की तरह रहती थी तो उसे ‘रखैल’ कहा जाता था। लेकिन लिव-इन-रिलेशन समाज की नजर में गलत है पर कानूनन वैध तो औरत ‘रखैल’ कैसे हो सकती है? लिव-इन-रिलेशन में औरत और मर्द समान हक से एक साथ रहते हैं। ऐसे में अगर औरत ‘रखैल’ है तो फिर पुरुष…!
सवाल यहीं खत्म नहीं होता। विवाह के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष (पति-पत्नी की तरह) के संबंधों में औरत को ‘रखैल’ समझा जाता है। भले ही प्रेम-संबंध ही क्यों न हो। यह राय समाज के तथाकथित कुछ प्रबुद्ध लोगों की है। तो इस संदर्भ में आम आदमी की राय क्या होगी?
मैं हैरान हूं क्या औरत का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं? उसकी कोई इच्छा या अनिच्छा नहीं?
हम विकास की बातें करते हैं। दुनिया को दिखाने के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स का भव्य आयोजन करते हैं। लेकिन वैचारिक भव्यता से हम कोसों दूर हैं।

अधिकतर भारतीय पुरुषों की नजर में औरत आज भी मात्र एक देह है। उसके व्यक्तित्व, उसके कृतृत्व, मान-समान, बुद्धि, स्वामीभान का कोई मूल्य नहीं? जिस की आधी आबादी का मूल्याकंन इस तरह किया जाए। अंदाज लगा सकते हैं कि उस देश को परिपक्व होने में एक सदी और लग सकता है।


बुधवार, 21 जुलाई 2010

द बर्निंग जर्नलिस्ट पास्ट अवे

‘द बर्निंग जर्नलिस्ट पास्ट अवे’ किसी अखबार में नहीं छपा और न ही कहीं हेडलाइन बनी। न उनका जनाजा निकाला और न ही किसी ने मातम मनाया। यहां तक की उनकी मौत पर शोकसभा भी आयोजित नहीं की गयी, पर मैंने उन्हें मरते हुए करीब से देखा।

बात 9वें दशक की है, तब मैं कॉलेज में थी, या पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थी। ठीक से मुझे याद नहीं। अखबार पढ़ती थी, खबरों को समझती थी और पत्रकारों को बड़ा सम्मान करती थी। मेरे पिता भी पत्रकारों के बड़े मुरीद थे। साहित्य की छात्रा होने की वजह से साहित्यक गोष्ठियों में जाया करती थी। उन्हीं दिनों एक समारोह में मैंने उन्हें देखा। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। कपड़े भी शानदार थे। पता चला शहर में हाथों-हाथ बिकने वाला सांध्य दैनिक के संपादक हैं।

अखबार के नाम के साथ-साथ उनका भी बड़ा नाम था। उन्होंने कई बड़े स्कैंडल का खुलासा किया था। लोग कहते थे, उनकी कलम में ताकत भी है और सच कहने की कुव्वत भी। मुझ नाचीज से उनका किसी ने परिचय नहीं कराया।

मैंने सोचा पत्रकारों को बड़ा सम्मान मिलता है। मैं पत्रकार बनूंगी और अगर न बन सकी तो पत्रकार से ही शादी करुंगी। मैं ये दोनों सपने वर्षों तक देखती रही। पत्रकार बनने का मतलब मेरे लिए हिमालय की चोटी पर चढ़ने जैसा ही था। किसी स्कूल में टीचर बन जाऊं तो लोग कबूल भी कर लेंगे। पत्रकार बनने का मतलब…खैर बाद में उनके अखबार में मेरे कई लेख छपे, पर मैं संपादक जी से कभी मिलने नहीं गयी। सुना संपादक जी का तबादला हो गया, वो दिल्ली चले गये।

जब मैं दिल्ली आई तो किसी परिचित ने मेरा उनसे परिचय करवाया। मेरे लिए दिल्ली एक दम अजनबी थी। हर जगह जाने के लिए मैं पहले आईएसबीटी या आईटीओ जाती और फिर वहां से बस लेकर दूसरी जगह। शायद किसी ने यह बताया था हर जगह की बस इन्हीं दोनों जगह से जाती है। संपादक जी के घर के बगल में पटना के कई लोग रहते थे। उनलोगों ने मेरे लिए भी वहीं कमरा ढूंढ दिया।

संपादक जी सूट-बूट टाई पहने लंबी गाड़ी से दफ्तर जाते। गाड़ी उन्हें छोड़ने आती। यहां भी उन्हें मैंने बड़ी शान-शौकत में देखा। पास में होने और उनके व्यवहार की वजह से उन्हें सर और उनकी पत्नी को भाभी जी कहती थी। उनकी दो बेटियां बुआ और बड़ी बेटी दीदी कहती थी। मेरी मां उनकी पत्नी के साथ छत पर बैठकर स्वेटर बुना करती थी और मैं उनसे लेख और खबरों पर सलाह मशवरा। तभी पता चला उनके चार बच्चे थे। तीन बेटियां और एक बेटा। उनकी दुश्मनी का खामिजा उनके बेटे को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

कुछ दिन बाद ही पता चला अखबार बंद हो गया। अखबार के दफ्तर के खिड़की-दरवाजे तोड़ दिये गये। शायद लोगों ने आग भी लगा दी थी। अखबार का मालिक जेल भेज दिया गया। संपादक जी बेरोजगार हो गये। उनका सारा तेल-फूलेल खत्म हो गया। घर में रखा धरा सब चुक गया। विदेशी शराब ठर्रे में बदल गयी। गाड़ी से आने जाने वाले संपादक जी सड़क पर गिरते-लड़खड़ाते नजर आने लगे। घर की हालत को देखकर उनकी बड़ी बेटी ने एक पार्लर में काम करना शुरू किया, लेकिन दो-चार दिन बाद ही पता चला पार्लर की आड में वहां कुछ और ही चल रहा था। लड़की डरी सहमी घर में कैद हो गयी। पूरा परिवार एक वक्त की रोटी के लिए मोहताज था। कुछ दिनों बाद उनका कुनबा कहीं और चला गया। शायद पटना या किसी दूसरे शहर, जहां उनका पूरा परिवार रहता था।

उसके बाद उनका नाम मैंने किसी अखबार में नहीं देखा और न ही उनका लिखा कुछ पढ़ा। पता चला अपने परिवार की परवरिश के लिए उन्हें अपनी कलम गिरवी रखनी पड़ी। यहां-वहां छोटे पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करते रहे और लाला के कहे लिखते-छापते रहे। अब उनका परिवार कहां है, मुझे पता नहीं?

मुझे लगा एक पत्रकार को जिन्दा रहने के लिए महज कलम की ही नहीं दौलत की भी जरूरत है। खुशवंत सिंह की तरह बहुत कम ही खुशनसीब पत्रकार-साहित्यकार होते हैं, जिन्हें लाला की दुकान पर नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ती है। जब किसी पत्रकार को नौकरी से निकाला जाता है और उसे जीविका के लिए अपनी कलम रखने पड़ती है, तब पत्रकार अपनी मौत का दंश खुद झेलता है। मैंने ऐसे कई पत्रकारों को मरते ही नहीं कत्ल होते देखा है। इन्हें अपने कद के हिसाब से लाइजनिंग या कोई और पेशा अपना पड़ता है। लिखूं तो एक लंबी फेहरिस्त बन जायेगी। जिनकी कलम में ताकत नहीं होती और न ही पॉकेट में इस्तीफा , वो तथाकथित पत्रकार ही हैं। ऐसे पत्रकारों को जिन्हें हर पल इस्तीफा ले लेने का खौफ सताता है, जिनकी कलम मजबूत नहीं होती, उन्हें अपना विचार व्यक्त करने का हक भी नहीं मिलता।

मुझे चिंता पत्रकार की मौत या कत्ल की नहीं बल्कि चौथे स्तंभ की है। आखिर लोकतंत्र का कमजोर होता यह खंभा कब तक जिन्दा रह पायेगा।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

शनिवार, 15 मई 2010

क्या कोई मेरे शहर का है?


क्या कोई मेरे शहर का है?
सुना है,
वहां गलियां सड़क में तबदील हो गयीं हैं,
दरवाजे पर लगा नीम सूख गया है,
नन्हां बरगद जवान हो गया है,
पहले घर का पुरवारी कोना ढ़ह गया,
फिर घर का कोना-कोना बंट गया,
और तब
मैं सोचता रहा,
थोड़ा और कमा लूं,
बच्चों को यहीं पढ़ा लूं,
अब बच्चे जवान हो गये हैं,
अब ये यहीं बस गये हैं,
पहले बुजुर्गों ने साथ छोड़ा,
अब दोस्तों का स्मरण कमजोर हो गया है,
मेरा जवान चेहरा ही उन्हें ख्याल आता है,
अब अकेला, कैसे जाऊं, अपने शहर,
बस ढूंढता हूं,
क्या कोई मेरे शहर का है?

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मां!



मां शक्ति,
मां पूजा,
मां इबादत,
मां जीवन की पहली पाठशाला,
मां प्रकृति की अनमोल निधि,
सपनों में मां,
ख्यालों में मां,
हर दुख-सुख में याद आती है मां,
मां कभी नहीं मरती,
अस्थियां विसर्जन के बाद भी,
मां का अवशेष नहीं मिटता,
मां कभी नहीं मर सकती,
मां जिन्दा रहती है,
मौत के बाद भी,
मां,
महानायक की मां,
नायक की मां,
खलनायक की मां,
सब की,
एक सी,
होती है,
मां...

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

चिरकुटानंद स्वामी

चिरकुट-कामचोर,
पॉकेट में हाथ,
हर वक्त होते बॉस के साथ,
काम का बस करते शोर,
ये चिरकुट-कामचोर,
मुंह में हरदम गुटका और पान,
यही है चिरकुट की पहचान

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

गिरगिट सा रंग




जब मैं छोटी थी,
जब कहीं गिरगिटों को देखती,
अपनी आंखें गड़ा देती,
जानना चाहती,
गिरगिट कैसे रंग बदलते हैं,
अब आंखें नहीं गड़ाती,
फिर भी देख लेती हूं,
गिरगिटों को रंग बदले।

घर और आतंकी का खेल

गुड़ियों को आद्रे की खीर खिलाकर कहा
अब सो जाओ,
जब दिवाली आयेगी तो,
तेरे लिए नये घरौदें बनाऊंगी
नये खिलौने लाऊंगी
फिर रोज खेलेंगे गुड़ियों का खेल
पिंकू दफ्तर जायेगा,
रिंकू स्कूल जायेगा,
तब जाड़े की धूप में बैठ कर
तुम सब के लिए स्वेटर बुनूंगी,
जब धूप छत के मुरेड़े से वापस जायेगी
चूल्हा जलाऊंगी,
तुम सब के लिए चाय बनाऊंगी,
खाना बनाऊंगी,
रात होगी हम सो जायेंगे,
तब भईया आतंकी का खेल खेलेगा,
मेरे गुड्डों का सर मरोड देगा,
गुड़ियों का बाल नोच लेगा,
मैं रोऊंगी, चिल्लाऊंगी,
मां समझायेगी,
मत रो,
जब तुम बड़ी हो होगी,
तो सच के गुड्डे-गुड़ियां होंगे
उनके सच के हाथ पैर होंगे,
सच की अंगुलियां होंगी,
वे हंसेंगे, खिलखिलायेंगे,
मगर सोना मत, भईया फिर आयेगा,
आतंकी का खेल खेलेगा,
और तुम्हारा घर उजाड़ देंगा।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

घर और आतंकी का खेल




गुड्डियों को आद्रे की खीर खिलाकर कहा
अब सो जाओ,
जब दिवाली आयेगी तो,
तेरे लिए नये घरौदें बनाऊंगी
नये खिलौने लाऊंगी
फिर रोज खेलेंगे गुड्डियों का खेल
पिंकू दफ्तर जायेगा,
रिंकू स्कूल जायेगा,
तब जाड़े की धूप में बैठ कर
तुम सब के लिए स्वेटर बुनूंगी,
जब धूप छत के मुरेड़े से वापस जायेगी
चूल्हा जलाऊंगी,
तुम सब के लिए चाय बनाऊंगी,
खाना बनाऊंगी,
रात होगी हम सो जायेंगे,
तब भईया आतंकी का खेल खेलेगा,
मेरे गुड्डों का सर मरोड देगा,
गुड्डियों का बाल नोच लेगा,
मैं रोऊंगी, चिल्लाऊंगी,
मां समझायेगी,
मत रो,
जब तुम बड़ी हो होगी,
तो सच के गुड्डे-गुड्डियां होंगे
उनके सच के हाथ पैर होंगे,
सच की अंगुलियां होंगी,
वे हंसेंगे, खिलखिलायेंगे,
मगर सोना मत, भईया फिर आयेगा,
आतंकी का खेल खेलेगा,
और तुम्हारा घर उजाड़ देंगा।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

देश को रंग-बिरंगे झंडों की नहीं तिरंगे की जरूरत

एमएनएस प्रमुख राज ठाकरे के हालिया बयान ने उनकी राष्ट्रीयता की भावना पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में सिर्फ उन्हीं लोगों को नौकरी मिलनी चाहिए, जिनका जन्म राज्य में हुआ हो। उत्तर भारतीयों को मराठी सीखने की जरूरत नहीं है। महाराष्ट्र में आने के लिए लोग यूपी-बिहार में ही मराठी भाषा का स्कूल खोल लेंगे’। सही मायने में बिहार और यूपी के लोगों को मराठी सीखने की जरूरत नहीं बल्कि राज ठाकरे को ही नहीं शिवसेना प्रमुख सहित पूरे ठाकरे परिवार को राष्ट्रीयता की पाठशाला में पढ़ने की जरूरत है। ठाकरे परिवार को शुक्रगुजार होना चाहिए कि देशवासियों ने अपनी योग्याता से खास कर मुंबई को समृद्ध किया।अपने देश की अखंडता से प्यार करने वाला कोई भी व्यक्ति चाहे वो महाराष्ट्र का हो या कश्मीर का या यूपी-बिहार का, ऐसे नेताओं को बरदाश्त नहीं कर सकता है। ये देशवासियों की भलमनसाहत है कि अब तक फिरंगियों की तरफ फूट डालकर राजनीति करने वालों के खिलाफ एकजुट होकर जबाव नहीं दिया। लेकिन अब पानी सर से ऊपर बहने लगा है। मुंबईकर को भी अपनी राष्ट्रीयता जगानी होगी और राज ठाकरे और शिवसेना प्रमुख को भी अपनी हद पहचाननी होगी। शिवसेना और एमएनएम प्रमुखों का तकरीबन हर बयान आतंकी हमले से कम घातक नहीं होता। उनकी जबान देश और दिल को तोड़ती है। उनकी विकृत और आपराधिक सोच से निकली शर्तों की फेहरिस्त हद से ज्यादा लंबी होती जा रही है। देश को खंडित करने वाले ऐसे क्षेत्रीय नेताओं की आज जरूरत नहीं,जो राष्ट्रीयता नहीं बल्कि देश की युवा पीढी को विखंडन की राह दिखाने में अपना हित साध रहे हों। मराठी मानुष के हित की बात बनाकर उन्हें तो सत्ता की बिसात पर मूर्ख बना ही रहे हैं,उनके ऐसे हर बयान से बिहार और यूपी के लोगों के प्रति खाई खोदने का काम भी हो रहा है।इन प्रांतों के लोगों का ये धैर्य है कि उन जैसे नेताओं को जड़ से उखाड़ने के लिए अब तक कोई सुनियोजित और बदले की भावना से भरा कोई कदम नहीं उठाया। देश को जरूरत है, स्वस्थ और सुलझी राजनीति की। ऐसे अवसरवादी क्षेत्रीय नेताओं की नहीं,जो कठिन समय में चूहे की तरह बिल में घुस जाते हैं। बात-बात पर यूपी-बिहार करने वाले शिवसेना और एमएनएस के नेता और कार्यकर्ता 26/11 के आतंकी हमले के दौरान कहां गायब थे।क्यों नहीं तब एमएनएस या शिवसैनिक सीने पर गोली खाने और आतंकियों का मुकाबला करने आगे आये। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने सोमवार को बिहार में कहा वो सोलह आने ठीक है। राज ठाकरे बिहार-यूपी के लोगों को निकालने की बात करते हैं,लेकिन जब मुंबई में हमला हुआ, तो जिन एनएसजी के कमांडो ने आतंकियों को मार गिराया, उनमें बिहार, यूपी और देश के दूसरे प्रांत के लोग भी थे। तब उन्हें गैर-मराठी कहकर नहीं रोका गया था। देश और देशवासियों को प्रांतीय नहीं राष्ट्रीय नेताओं और लाल, पीले, हरे, नील रंग-बिरंगे झंड़ों की नहीं तिरंगे की जरूरत है।