‘द बर्निंग जर्नलिस्ट पास्ट अवे’ किसी अखबार में नहीं छपा और न ही कहीं हेडलाइन बनी। न उनका जनाजा निकाला और न ही किसी ने मातम मनाया। यहां तक की उनकी मौत पर शोकसभा भी आयोजित नहीं की गयी, पर मैंने उन्हें मरते हुए करीब से देखा।

बात 9वें दशक की है, तब मैं कॉलेज में थी, या पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थी। ठीक से मुझे याद नहीं। अखबार पढ़ती थी, खबरों को समझती थी और पत्रकारों को बड़ा सम्मान करती थी। मेरे पिता भी पत्रकारों के बड़े मुरीद थे। साहित्य की छात्रा होने की वजह से साहित्यक गोष्ठियों में जाया करती थी। उन्हीं दिनों एक समारोह में मैंने उन्हें देखा। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। कपड़े भी शानदार थे। पता चला शहर में हाथों-हाथ बिकने वाला सांध्य दैनिक के संपादक हैं।

अखबार के नाम के साथ-साथ उनका भी बड़ा नाम था। उन्होंने कई बड़े स्कैंडल का खुलासा किया था। लोग कहते थे, उनकी कलम में ताकत भी है और सच कहने की कुव्वत भी। मुझ नाचीज से उनका किसी ने परिचय नहीं कराया।

मैंने सोचा पत्रकारों को बड़ा सम्मान मिलता है। मैं पत्रकार बनूंगी और अगर न बन सकी तो पत्रकार से ही शादी करुंगी। मैं ये दोनों सपने वर्षों तक देखती रही। पत्रकार बनने का मतलब मेरे लिए हिमालय की चोटी पर चढ़ने जैसा ही था। किसी स्कूल में टीचर बन जाऊं तो लोग कबूल भी कर लेंगे। पत्रकार बनने का मतलब…खैर बाद में उनके अखबार में मेरे कई लेख छपे, पर मैं संपादक जी से कभी मिलने नहीं गयी। सुना संपादक जी का तबादला हो गया, वो दिल्ली चले गये।

जब मैं दिल्ली आई तो किसी परिचित ने मेरा उनसे परिचय करवाया। मेरे लिए दिल्ली एक दम अजनबी थी। हर जगह जाने के लिए मैं पहले आईएसबीटी या आईटीओ जाती और फिर वहां से बस लेकर दूसरी जगह। शायद किसी ने यह बताया था हर जगह की बस इन्हीं दोनों जगह से जाती है। संपादक जी के घर के बगल में पटना के कई लोग रहते थे। उनलोगों ने मेरे लिए भी वहीं कमरा ढूंढ दिया।

संपादक जी सूट-बूट टाई पहने लंबी गाड़ी से दफ्तर जाते। गाड़ी उन्हें छोड़ने आती। यहां भी उन्हें मैंने बड़ी शान-शौकत में देखा। पास में होने और उनके व्यवहार की वजह से उन्हें सर और उनकी पत्नी को भाभी जी कहती थी। उनकी दो बेटियां बुआ और बड़ी बेटी दीदी कहती थी। मेरी मां उनकी पत्नी के साथ छत पर बैठकर स्वेटर बुना करती थी और मैं उनसे लेख और खबरों पर सलाह मशवरा। तभी पता चला उनके चार बच्चे थे। तीन बेटियां और एक बेटा। उनकी दुश्मनी का खामिजा उनके बेटे को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

कुछ दिन बाद ही पता चला अखबार बंद हो गया। अखबार के दफ्तर के खिड़की-दरवाजे तोड़ दिये गये। शायद लोगों ने आग भी लगा दी थी। अखबार का मालिक जेल भेज दिया गया। संपादक जी बेरोजगार हो गये। उनका सारा तेल-फूलेल खत्म हो गया। घर में रखा धरा सब चुक गया। विदेशी शराब ठर्रे में बदल गयी। गाड़ी से आने जाने वाले संपादक जी सड़क पर गिरते-लड़खड़ाते नजर आने लगे। घर की हालत को देखकर उनकी बड़ी बेटी ने एक पार्लर में काम करना शुरू किया, लेकिन दो-चार दिन बाद ही पता चला पार्लर की आड में वहां कुछ और ही चल रहा था। लड़की डरी सहमी घर में कैद हो गयी। पूरा परिवार एक वक्त की रोटी के लिए मोहताज था। कुछ दिनों बाद उनका कुनबा कहीं और चला गया। शायद पटना या किसी दूसरे शहर, जहां उनका पूरा परिवार रहता था।

उसके बाद उनका नाम मैंने किसी अखबार में नहीं देखा और न ही उनका लिखा कुछ पढ़ा। पता चला अपने परिवार की परवरिश के लिए उन्हें अपनी कलम गिरवी रखनी पड़ी। यहां-वहां छोटे पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करते रहे और लाला के कहे लिखते-छापते रहे। अब उनका परिवार कहां है, मुझे पता नहीं?

मुझे लगा एक पत्रकार को जिन्दा रहने के लिए महज कलम की ही नहीं दौलत की भी जरूरत है। खुशवंत सिंह की तरह बहुत कम ही खुशनसीब पत्रकार-साहित्यकार होते हैं, जिन्हें लाला की दुकान पर नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ती है। जब किसी पत्रकार को नौकरी से निकाला जाता है और उसे जीविका के लिए अपनी कलम रखने पड़ती है, तब पत्रकार अपनी मौत का दंश खुद झेलता है। मैंने ऐसे कई पत्रकारों को मरते ही नहीं कत्ल होते देखा है। इन्हें अपने कद के हिसाब से लाइजनिंग या कोई और पेशा अपना पड़ता है। लिखूं तो एक लंबी फेहरिस्त बन जायेगी। जिनकी कलम में ताकत नहीं होती और न ही पॉकेट में इस्तीफा , वो तथाकथित पत्रकार ही हैं। ऐसे पत्रकारों को जिन्हें हर पल इस्तीफा ले लेने का खौफ सताता है, जिनकी कलम मजबूत नहीं होती, उन्हें अपना विचार व्यक्त करने का हक भी नहीं मिलता।

मुझे चिंता पत्रकार की मौत या कत्ल की नहीं बल्कि चौथे स्तंभ की है। आखिर लोकतंत्र का कमजोर होता यह खंभा कब तक जिन्दा रह पायेगा।