सोमवार, 24 जुलाई 2017

कंडोम मुफ्त, सेनिटरी पैड्स क्यों नहीं?

देश की आधी आबादी को मोदी सरकार से बहुत उम्मीदे हैं, पूरी भी हो रही हैं, लेकिन एक ऐसी उम्मीद, जिसपर न तो महिलाओं ने खुलकर मुंह खोलने की जरुरत समझी और न ही खुलकर मांग की.

सच तो यह है कि 'सेन्टरी नैपकिन' हमारे देश में शोध या खोज का विषय कभी नहीं रहा. पुरुषों से हमेशा 'चुन्दरी का यह दाग' छुपाया गया. फिर नीति निर्धारक पुरुषों की 'नजर' या उनके ख्याल में यह दाग कैसे आता? वहीं महिलाएं अपने हर मौलिक अधिकारों से समझौता करती रही हैं और आज भी कर रही हैं. तब उनकी यह अहम समस्या एक बड़ा मुद्दा कभी नहीं बन सकती, जिसपर चर्चा हो या जनआदोलन किया जाए.

साड़ी-दुपट्टा से नहीं थमता रक्त प्रवाह...

हां, जब जीएसटी लागू हुआ तो मुठ्ठीभर महिलाओं को यह मंहगा लगने लगा. उनकी मांग भी सही है. मौजूदा सरकार या पिछली किसी भी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए इसे इतना अहम नहीं समझा. लेकिन सच तो यह है कि देश के विकास के लिए आधी आबादी का स्वस्थ और शिक्षित होना पहली जरूरत है. महिलाएं स्वस्थ नहीं होंगी तो उनके बच्चे स्वस्थ कैसे होगे? और जब बच्चे स्वस्थ नहीं होंगे तो देश का विकास नारे और विचारों में ही रह जाएगा.

यह बहुत ही छोटा मुद्दा है पर देश की आधी आबादी के लिए बहुत ही अहम. परिवार से लेकर सरकार तक को समझनी चाहिए. शहरी महिलाएं अपने पीरिटड्स के दौरान सेन्टरी पैड का इस्तेमाल करती हैं पर गांवों की ज्यदातर महिलाएं सेन्टरी नैपकिन का नाम तक नहीं जानतीं.  उपयोग करना तो दूर की बात है. अपने देश में 80 फीसदी महिलाएं ही सेन्टरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करती हैं.

और एक रिसर्च के मुताबिक तो 88 प्रतिशत महिलाएं तो खरीद ही नहीं पाती. वे आज भी पुराने कपड़े, टाट, बालू, राख सूखी पत्तियां और अखबार का इस्तेमाल करती हैं. उपयोग किये गए कपड़ों को बार-बार धोना-सूखाना इनकी लाचारी है.

इससे कई तरह की बीमारियां पैदा होती हैं. डॉक्‍टर्स के माने तो करीब 70 प्रतिशत महिलाएं बांझपन, यूटरेस-वेजाइनल इन्‍फेक्‍शन से पीडि़त हैं. इतना ही नहीं पिछड़े इलाकों की कुछ महिलाएं मासिक धर्म के दौरान किसी भी तरह के पैड का इस्तेमाल ही नहीं करतीं.

अब नहीं लगनी चाहिए 'चुन्दरी में दाग'

हालांकि किशारावस्था में किसी भी लड़की के लिए  'नदी की बाढ़' की तरह इसके रक्त प्रवाह को संभालना आसान नहीं होता है. उनके पांच दिनों के इस रक्त प्रवाह को मां की पुरानी साड़ी और बहन का दुपट्टा मुश्किल से ही रोक पाता है.

इस दौरान महिलाएं कूदना-फांद करना तो दूर ठीक से चल भी नहीं पातीं हैं. दोनों नितंब छिल जाते हैं. माहावारी के दौरान ग्रामीण लड़कियों की 'चाल' लाख छुपाने के बाद भी सबको बयां कर देती है. जरा सी असावधानी उन्हें शर्मसार कर देता है. खासकर किशोरियों के लिए यह किसी आपदा से कम नहीं लेकिन इसके प्रबंधन के लिए कोई योजना नहीं और बनी भी  तो सही तरीके से लागू करने की जरूरी नहीं समझी गयी.

दुख की बात तो यह है कि ग्रामीण इलाकों की किशोरियां पीरियड्स के दौरान पांच-छह दिनों तक स्कूल नहीं जाती हैं. 23 प्रतिशत बच्चियां, पीरियड्स  शुरू होने के बाद स्कूल से ड्रोपआउट हो जाती हैं.

सवाल यह है कि हमारे देश में तकरीबन तीन-चार दशक से गर्भनिरोधक कंडोम मुफ्त बांटे जा रहे हैं लेकिन  सेनिटरी पैड्स क्यों नहीं?  हालांकि कई राज्यों में सेनिटरी पैड्स छात्रों को मुफ्त दिए जा रहे हैं पर ये ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है. जबकि सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में 12 से 45-50 साल की महिलाओं को 5-10 पैड्स मुफ्त दिये जाएं. तभी महिलाएं 'अपनी चुन्दरी में दाग' से बेफिक्र होगी. जब तक उन्हें दाग का डर डराता रहेगा. वे बेखौफ नहीं होंगी. और तब तक खौफ रहेगा उनका विकास नहीं होगा. और जब तक महिलाओं का विकास नहीं होगा...तब तक देश के विकास पर प्रश्न लगता रहेगा.