‘रखैल’ शब्द से मेरे जेहन में तीन तस्वीरें उभरती हैं। चांद बीवी, बिंदिया नानी और भोलवा की मां। भोलवा की मां 1980 में ही गुजर गयीं। चांद बीवी अभी जिन्दा हैं। शायद बिंदिया नानी भी अब नहीं रही होंगी।
घर से बाहर ये औरतें कभी बेपर्दा नहीं दिखीं, हमेशा इनके चेहरे पर सिल्क का चादर चढ़ा रहा। पहचानने वाले कदकाठी से ही अनुमान लगाते होंगे कि ये फलां की रखैल हैं। ये लोग कभी किसी खास मौके पर मुहल्ले या रिश्तेदारों के घरों में नजर नहीं आयीं। तीज-त्यौहार, शादी-व्याह में इनका खाना इनके घर भिजवा दिया जाता था। कभी गयीं भी तो पंगत में नहीं बैठतीं, इनकी थाली अलग लगती थी। एकआध बार बैठीं भी तो और औरतें पंगत से उठ गयीं। इन्हें अलग मकान या घर के अलग हिस्सों में रखा जाता था। इनका परिवार आज भी ‘रखैल’ शब्द का दंश झेल रहा है।
रखैल किसी भी औरत के लिए शर्मनाक, वीभत्स, दंश देने वाला शब्द है। किसी भी औरत ने किसी भी काल में अपनी खुशी से किसी की रखैल बनना पसंद नहीं किया। औरत की मजबूरी, लाचारी, अज्ञानता और पुरुषों की सामंती प्रवृति ने महिलाओं को रखैल की संज्ञा दी। और अब जब हमारा लोकतंत्र महिला और पुरुष दोनों को समानता का अधिकार देता है तो ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘रखैल’ शब्द का प्रयोग सामंती मनोवृति ही कही जायेगी। भले ही यह अदालत की अवमानना हो पर ऐसे शब्दों के इस्तेमाल पर निंदा और आपत्ति होनी ही चाहिए।
महाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह की नाराजगी जायज है। हैरानी तो इस बात की है अवमानना के डर से चंद लोगों के सिवा किसी ने आपत्ति जताने की कोशिश नहीं की। बात-बात पर प्रतिक्रिया देने वाले राजनेता खामोश रहे।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर हमें ऐतराज नहीं, हमें उसके ‘रखैल’ शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति है। सामंती व्यवस्था में कोई भी औरत बिना शादी के किसी पुरुष के साथ उस पर निर्भर होकर पत्नी की तरह रहती थी तो उसे ‘रखैल’ कहा जाता था। लेकिन लिव-इन-रिलेशन समाज की नजर में गलत है पर कानूनन वैध तो औरत ‘रखैल’ कैसे हो सकती है? लिव-इन-रिलेशन में औरत और मर्द समान हक से एक साथ रहते हैं। ऐसे में अगर औरत ‘रखैल’ है तो फिर पुरुष…!
सवाल यहीं खत्म नहीं होता। विवाह के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष (पति-पत्नी की तरह) के संबंधों में औरत को ‘रखैल’ समझा जाता है। भले ही प्रेम-संबंध ही क्यों न हो। यह राय समाज के तथाकथित कुछ प्रबुद्ध लोगों की है। तो इस संदर्भ में आम आदमी की राय क्या होगी?
मैं हैरान हूं क्या औरत का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं? उसकी कोई इच्छा या अनिच्छा नहीं?
हम विकास की बातें करते हैं। दुनिया को दिखाने के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स का भव्य आयोजन करते हैं। लेकिन वैचारिक भव्यता से हम कोसों दूर हैं।

अधिकतर भारतीय पुरुषों की नजर में औरत आज भी मात्र एक देह है। उसके व्यक्तित्व, उसके कृतृत्व, मान-समान, बुद्धि, स्वामीभान का कोई मूल्य नहीं? जिस की आधी आबादी का मूल्याकंन इस तरह किया जाए। अंदाज लगा सकते हैं कि उस देश को परिपक्व होने में एक सदी और लग सकता है।