गुरुवार, 25 जून 2009

मेरे पत्रकार गुरु

प्रख्यात कथाशिल्पी किशन चंदर ने एक जगह लिखा है, पूछा है-“ अपनी जिन्दगी में तुमने क्या किया? किसी को सच्चे दिल से प्यार किया? किसी को नेक सलाह दी ? किसी दुश्मन के बेटे को मोहब्बत की नजर से देखा? जहां अंधेरा था, वहां चराग ले गये? मैं नहीं जानती कि पत्रकारिता के तप:पूत्र एवं मेरे श्रद्धेय पत्रकार गुरु रामजी मिश्र ‘मनोहर’ का व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व इन सारे प्रश्नों के प्रति साकारात्मक है या नहीं, किन्तु इतना अवश्य जानती हूं कि इन्होंने जहां भी अंधेरा देखा, वहां रौशनी की किरण ले गये, तम को भगाया-मिटाया। वो कहते थे-
“अपना तो काम है जलाते चलो चराग,
खाह दोस्त का घर मिले, दुश्मन का घर मिले”
अब वो रहे नहीं पर मैं उनके सैकड़ों शिष्य-शिष्याओं एवं श्रद्धा रखने वालों में से एक हूं, जिनके जीवन को इन्होंने एक दिशा दी है, जिनके अंदर ज्ञान की ज्योति जलाई है, आत्मविश्वास जगाया है और कुछ कर गुजरने को प्रेरित-प्रोत्साहित किया है। दीपक में यदि तेल हो, बाती हो, किन्तु उसे जलाने वाला न हो, तो मिट्टी के उस पात्र का कोई अर्थ नहीं रह जाता। शब्द-शिल्प के क्षेत्र में मेरा प्रयास भले अपना रहा हो, लेकिन उसे तराशकर आकार देने का श्रेय गुरुदेव को ही जाता है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार सांचे में ढ़ली मूर्ति को रंग, रूप और आभा देने का श्रेय मूर्तिकार को जाता है।
अपने स्कूल-कॉलेज में आयोजित समरोहों के सिलसिले में इन्हें देखने-सुनने का अवसर मुझे बचपन से मिलता रहा, किन्तु इन्हें निकट से जानने-समझने का मौका वर्ष 1991 ई. की शुरुआत मे मिला, जब मैं लब्धप्रतिष्ठ मूर्तिकार-चित्रकार आदरणीय दामोदरप्रसाद अम्बष्ठ जो अब नहीं रहे, के साथ मनोहर जी के आवास पर गई थी, पत्रकारिता के पेशे तथा पत्रकारिता परिक्षण के बारे में जानकारी लेने। दामोदर बाबू के पास चित्रकला सिखने जाया करती थी, जो एक वरिष्ठ एवं कर्मठ पत्रकार तथा समर्पित समाजसेवी के रूप में मनोहर जी की चर्चा किया करते थे। इनके बारे में जितना सुना था, मिलने पर उससे अधिक पाया। इनकी ऊंचाई के लिए मेरे मन-मस्तिष्क में पहले से खिंची तमाम रेखाएं बौनी हो गईं। लगा कि इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए जो रेखा खींची जा सकती है, उसका स्पर्श आम आदमी नहीं कर सकता।
इनसे होने वाली मुलाकातों के सिलसिले में पत्रकारिता के प्रति मेरा रुझान-झुकाव लगातर बढ़ता गया, लेकिन इन्होंने मुझे हमेशा इस पेशे के संघर्ष,चुनौतियों और खतरों के प्रति आगाह किया और समझाया-पत्रकारिता अपनाना है तो त्याग, सेवा, समर्पण और जनकल्याण की भावना से अपनाओं न कि इससे जु़ड़े ग्लैमर, पावर या सुविधाओं के लिए। यह पेशा दाल-रोटी का जरिया के रूप में अपनाये जाने वाले अन्य पेशों की तरह नहीं है। बनना है तो सेवाधर्मी पत्रकार बनो, इस पेशे को पूजा मानकर चला। मैंने उनका कहा अक्षरश: माना। पत्रकारिता मेरे लिए साधना है।

मनोहर जी के नैकट्य से मुझे बिहार-पत्रकारिता एवं संग्रहालय तथा पटना नगर हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन की गतिविधियों में भी सक्रिय भागीदारी मिली। बीच के दो-तीन साल तक मैंने एक कॉलेज में प्राध्यापकी भी की, किन्तु मेरा मन रमा-जमा नहीं। शोधकार्य के संबंध में सामग्री खोजने के क्रम में जब मनोहर जी के संग्रहालय को नजदीक से देखा-परखा तब वहां उपल्बध ज्ञान के विपुल भांडार का पता लगा और पूरे संग्रह को करीब से देखने की इच्छा हुई। और बस मैं अपनी मित्र-सहकर्मी डॉ ममता श्रीवास्तव के साथ जुट गई राजेन्द्रनगर स्थित संग्रह की सूची बनाने में। दो-तीन माह के अंदर हम दोनों ने वहां की दस-बारह आलमारी पुस्ककों की सूची बना डाली। सूची बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य था उस ज्ञान सागर में गोते लगाना और ज्ञान के कीमती रत्न बटोरना।

मेरे गुरुदेव का जीवन खुली किताब थी। आज के जमाने में ऐसा खुलापन दुर्लभ ही है। मुंहदेखी बात वे कभी नहीं करते थे। अपने निकट आने वाले हर व्यक्ति को बिना किसी लाग-लपेट के खरी सलाह देते थे। मेरे मन में भी कई तरह की तरेंगे उठती थी। कभी लगता कि प्राध्यापकी में स्थिरता प्राप्त करूं, कभी लगता प्रखर पत्रकार बनुं, कभी विचार आता कि ड्रेस डिजाइनिंग का काम करूं तो कभी मन में आता कि लड़कियों के लिए सिलाई,कढ़ाई, पेंटिग का प्रशिक्षण केन्द्र चलाऊं। और, रंगमंच से मेरा पुराना जुड़ाव होने के कारण जब कभी नाट्य संस्था के लोग आ जाते, तब विचार आता रंगकर्म के क्षेत्र में ही कैरियर बनाऊं। ऐसी दिशाहीनता में गुरुदेव ने बिना अपना कोई विचार लादे खरी सलाह की कि मैं एकलव्य की तरह लक्ष्य साधूं। एक ही रास्ता चुनूं जो सबसे अनुकूल नजर आये। और आज मुझे लगता है कि मैंने जो लक्ष्य किया वो मेरे लिया सबसे उचित है। लेखन मेरी साधना है। पत्रकारिता मेरा कर्म।
आज मुझे गुरुदेव की कमी खलती है। क्योंकि सच्ची-खरी बात कहने वाला कोई नहीं। गुरुदेव कभी मेरी कमियों एवं खामियों पर कस कर बरस पड़ते थे, तो कभी बेटी-सा प्यार, दुलार, स्नेह की वर्षा करते थे और कभी हमउम्र और समान स्तर का सम्मान भी देते थे। कभी कुछ अच्छा लिखा तो, प्रोत्साहित भी करते थे। कभी-कभी स्नेह-प्रवाह में अतिशयोक्ति भी कर जाते आपको बहुत आगे बढ़ना है, कुलदीप नैयर, खुशवंत सिंह और राजेन्द्र माथुर बनना है। वाणी और कलम के संयम के लिए उन्होंने मुझे कई बार इस अंदाज में झाड़ा-झपेटा, जिसे सुनकर-झेलकर सम्भवत: अपनी बहू-बेटी भी बिदककर भाग जाये और फिर पास न फटके। किन्तु मैं जानती हूं कि उनका ऐसा व्यवहार मेरे प्रगति, मेरे उत्थान और मेरे उत्कर्ष के लिए था। मेरे जैसे अनेक नवसिखुओं के लिए अपना कीमती समय एवं ऊर्जा देने के पीछे कहीं से, किसी प्रकार का लेशमात्र का भी उनका स्वार्थ नहीं था।

सर 70 वर्ष की अवस्था में भी चुस्त-दुरुस्त थे। उनका समय अपने लिए कम, दूसरों के लिए अधिक था। उनके खपड़पोश मकान का कोई कोना चूता-धंसता रहता तो उन्हें कोई चिंता नहीं सताती थी, लेकिन जब पश्चिम दरवाजा का पुराना स्तम्भ गिर जाये, अपने समय की प्रख्यात गायिका कोकिलकंठ अल्ला जिलाई का कचौड़ी गली स्थित पुराना मकान ध्वस्त हो जाये या मदरसा-मस्जिद का गुंबद गिर जाये तो वे आहत-मर्माहत हो जाते थे। उसके संरक्षण के लिए व्यग्र और आंदोलित हो उठते। उन्हें उम्र के साथ आने वाली अपनी और अपनी पत्नी की बीमारी की चिंता उन्हें नहीं थी,लेकिन जब चित्रकार दामोदर अम्बष्ठ या उपन्यासकार हिमांशु श्रीवास्तव या उनके जैसे कलासेवी, साहित्यकार बीमार पड़ जायें या किसी तरह की परेशानी में हो तो गुरुदेव की पीड़ा-व्यथा देखने लायक होती थी। ऐसे लोगों की स्वास्थ्य रक्षा एवं सहायता के लिए वो अपनी पूरी टीम के साथ जुट जाते थे। अपना सब दर्द भूलकर दूसरों की पी़ड़ा से पीड़ित होनेवाला,नगर के दर्द से व्यथित-मर्माहत होनेवाला तथा पाटलिपुत्र की अतीत गरिमा के संरक्षण एवं इसके सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए अपना वर्त्तमान दांव पर लगानेवाला ऐसा व्यक्ति बहुत खोजने पर भी कहीं नहीं मिलेगा। अब गुरुदेव नहीं रहे वक्त और नियति उन्हें उम्र के उस मौकाम पर पहुंचा दिया जहां इंसान अपनी क्षमता खोने लगता है। गुरुदेव ह्रदय रोग से पीड़ित हो गए। ऑपरेशन भी हुआ, लेकिन वो ज्यादा दिन जीवित न रह सके। उनकी मौत के चंद महीने बाद ही उनकी सहज-सरल पत्नी, जिन्हें मैं मामी जी कहती थी चल बसीं। उनके बाद मुझे रिक्ता का बोध हुआ। एक ऐसी रिक्ता, जिसे कभी नहीं भरी जा सकती । दोनों के प्रति मेरी आपार श्रद्धा है।

शनिवार, 20 जून 2009

सौ वर्ष पूर्व बिहार के कार्यालयों में हिन्दी

सौ वर्ष पूर्व बिहार के कार्यालयों में हिन्दी
हिन्दी संघर्षरत भाषा रही है। इसका विरोध शुरू ही होता रहा है। आज कार्यालयों में राजभाषा हिन्दी के प्रयोग पर जोर देने के बावजूद अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। आज से लगभग तेरह-चौदह दशक पूर्व भी हिन्दी की यही स्थिति थी। यहां की कचहरियों में इसके प्रयोग को लेकर उर्दू भाषियों से संघर्ष करना पड़ रहा था। उस समय यहां के कार्यालयों की भाषा उर्दू फारसी थी। यह संघर्ष लगभग दो-तीन दशक तक चलता रहा।
हिन्दी की लिपि देवनागर ब्राह्मी लिपि के एक रूप नागरी लिपि से उत्पन्न भारत की प्राचीनतम लिपि मानी जाती है। नागरी लिपि के प्रयोग के उदाहरण उत्तर भारत में 10वीं सदी तक पाये जाते हैं। 11वीं सदी में इस लिपि की प्रमुखता रही। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में 10वीं सदी के सभी शिलालेख, पत्रादि इसी लिपि में लिखे गए। लगभग 14वीं, 15वीं सदी में अकबर के समय फारसी में दफ्तरी काम-काज होने लगा, किन्तु देहाती काम-काज हिन्दी में ही थे।
सन 1837 में ब्रिटानी सरकार ने फारसी को क्लिष्ट समझकर हिन्दी को पुन: जारी करना चाहा। परन्तु उस समय सरकार की ओर से हिन्दी भाषा का कोई शिक्षा विभाग नहीं था। नतीजतन हिन्ही की पढ़ाई नहीं हो सकी। फलत: स्थिति पूर्ववत बनी रही। सन 1873 में कैम्पवेल ने अरबी-फारसी शब्दों की कठिनाई को महसूस किया और नागरी लिपि जारी करने पर बल दिया। उनके बाद जितने भी लेफ्टिनेंट गवर्नर आये वे सभी हिन्दी के समर्थक रहे। सर एडिन साहब हिन्दी के प्रति विशेष उदार थे। उन्होंने ही बिहार के कार्यालयों में नागरी जारी करने का सफल प्रयास किया। हिन्दी जारी करने में
‘बिहार उपकार सभा’ की न केवल महत्वपूर्ण भूमिका रही, बल्कि ‘बिहार उपकार सभा’ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी। (उन्होंने बिहार उपकार सभा की स्थापना की जिसकी खास नियत एक यह थी कि नागरी की तरक्की हो-‘बिहार-बन्धु’ पटना-7वीं जुलाई 1880।)
दूसरी अप्रैल सन 1874 को हिन्दी जारी करने का आदेश दिया कि भागलपुर और छोटानागपुर में कुल काम, इश्तिहार और इतिलाये हिन्दी में लिखी जावें और कुल सरकारी दफ्तर हिन्दी में रखें जावें। (बिहार-बन्धु-जिल्द-8) किन्तु यह पूर्णरूप से कार्यान्वित नहीं हो पाया।
हिन्दी पर विषेश श्रद्धा रखने वाले डॉ ग्रियर्सन ने बिहार के कचहरियों में सबसे पहले मधुबनी जिले में नागरी लिपि जारी करवाई थी। गया के अदालतों में भी सारी कार्यवाहियां नागरी में प्रारंभ हो गई थी। 31 दिसम्बर 1880 तक ही उर्दू-फारसी बिहार के कार्यालयों की भाषा रही। जनवरी 1881 से सभी कार्यालयों में नागरी जारी करने का आदेश दिया गया। उस समय कार्यालयों में नागरी जारी करने का विरोध न केवल तत्कालीन मुसलमानों ने बल्कि हिन्दुओं ने भी किया जो या तो हिन्दी जानते नहीं थे या सरकारी कर्मचारी या मुख्तार थे। उस वक्त के कायस्थों ने भी जिनकी उर्दू में अच्छी दखल थी, नागरी जारी होने का कम विरोध नहीं किया। यहां तक कि हिन्दी जारी होने के विरोध में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के पास आवेदन भी भेजा गया। उन्हीं दिनों बिहार के अंग्रेजी साप्ताहिक ‘बिहार हैरल्ड’ में नागरी के खिलाफ सैयद विलायत अली खां साहब सी.आई.ई. की एक चिठ्ठी छपी थी और उन्हीं की कोशिश से एक कमेटी भी बनायी गई थी, जिसके द्वारा बंगाल गवर्नमेंट में एक दरखास्त भेजी गयी, जो बाद में नामंजूर कर दी गई।
वहीं हिन्दी और उर्दू जो एक दूसरे के पूरक का काम कर रही थी और सगी बहनों की तरह रह रही थी, सरकारी दफ्तरों में देवनागरी जारी होने के आदेश से एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी हो गई। ऐसा नहीं था कि सभी मुस्लमान हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के विरोधी थे। बल्कि उनमें से एक बहुत बड़ा वर्ग जो देवनागरी लिपि के वैज्ञानिक महत्व को समझता था इसका समर्थक था। ‘
बिहार-बंधु’ के प्रथम संपादक मुंशी हसन अली (1972-74) स्वयं मुसलमान थे।
उन दिनों उर्दू और हिन्दी दो सगी बहने न मानकर एक दूसरे को सौतन माना जाने लगा था। एक दूसरे के विरुद्ध टीका-टिप्पणी आये दिन अखबारों में छपती रहती थी। यथा- ‘कचहरी से उठी उर्दू हुई अब नागरी जारी
बधवा अब बिठाओ भाइयों भागा है दुख भारी
जमाय जड़ बहुत दिन से जो सौतिन नागरी की थी
लजाकर के चली अब आप ही इस देश से हारी’
(‘बिहार-बंधु’ 7वीं सेप्टेम्बर)
22 अगस्त 1880 को पटना कॉलेज के एक हॉल में एक सभा आयोजित की गयी, जिसमें सर ऐशली एडिन साहब के अतिरिक्त शहर के रईस और सरकारी ऑफिसर मौजूद थे। इस सभा में बिहार उपकार सभा की तरफ से कुंवर सुखराज बहादुर साहब, बाबू रामकृष्ण पाण्डेय, बाबू कृष्ण सिंह, बाबू गोविन्द चरण साहब उपस्थित थे। इन लोगों की ओर से एक आवेदन तथा सिफारिशनामा लेफ्टिनेंट गवर्नर साहब को पेश किया गया था। ये आवेदन नागरी जारी होने के विरोध में दिये गये आवेदन का जवाब था, जिसके विरोध में सभा में उपस्थित मौलवी खुदाबक्श खां ने कहा कि “नागरी जारी होने से कबादत होगी। इसका पढ़ा जाना बड़ी मुश्किल है और नागरी एक किसिम की नहीं बल्कि कितने किसिम की है ।” इसके जवाब में एडिन साहब ने कहा कि अगर बढ़खत लिखा जायेगा चो बेशक नहीं पढ़ा जायेगा, लेकिन यह बात सब हर्फों में है। फारसी, अंग्रेजी, सबमें नागरी में ही नहीं। ( ‘बिहार-बंधु’ जिल्द 1880)
बिहार के सर्वप्रथम पत्र ‘बिहार-बंधु’ ने बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठत करने के लिए जोरदार आंदोलन किया। ‘बिहार-बंधु’ 27 वीं दिसम्बर 1883 जिल्द 11 नम्बर के अनुसार “शुरू-शुरू में बिहार में हिन्दी जारी होने का कारण अगर सच और वाजिब पूछो तो ‘बिहार-बंधु’ का ही है। जिस वक्त से ‘बिहार-बंधु’ की पैदाईश हुई उसी वक्त से गोया हिन्दी की नींव दी गयी। जिस हिन्दी के लिए बड़ी कोशिशें हुईं और बहुत कुछ करने के बाद आज यह बात है कि दीवानी, पुलिस और कचहरियों में हिन्दी की सूरत देखने को आती है। दस वर्ष पहले एक सम्मन को पढ़ने के लिए देहात के लोगों को हैरान होना पड़ता था। यह वह हिन्दी है, जिसके चाहने वाले कदरदान विलायत तक हैं।”
इस समर्थन और विरोध के बावजूद हिन्दी कुछ समय के लिए कार्यालय की भाषा रही, लेकिन कालान्तर में अंग्रेजी के वर्चस्व ने इसे रहने नहीं दिया। नतीजतन अंग्रेजी कार्यालयों की भाषा बना दी गयी। आजादी के बाद सन् 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 में यह व्यवस्था की गयी कि 15 वर्षों तक अंग्रेजी केन्द्र सरकार के राजकाज की भाषा बनी रही रहेगी और धीरे-धीरे हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ग्रहण कर लेगी, परन्तु इसके विपरीत यह हुआ कि संविधान को संशोधित करके अंग्रेजी अनिश्चित समय तक के लिए हिन्दी के साथ सरकारी कामकाज की भाषा धोषित कर दी गयी।