सोमवार, 4 दिसंबर 2017

अपना शहर झांक आओ

अपना शहर झांक आओ

कभी तुम अपना शहर झांक आओ,
जहां मेरी मोहब्बत की
हजारों चिठ्ठियां अब भी पड़ी हैं,

मेरा छोटा सा घर,
मेरे टूटे खिलौने,
मेरा सपनों का घरोंदा तो अब भी वहीं हैं,

दरख्तों पर हमने अपनी मोहब्बत की,
जो की थी किताबत
तारीख उसपर अब भी पड़ी,

बह गईं दरिया से हजारों लहरें
आंसुओं में लिपटीं मेरी आंखें
अब भी वहीं हैं.

कभी तुम अपना शहर झांक आओ,
जहां मेरी मोहब्बत की
हजारों चिठ्ठियां अब भी पड़ी हैं.-अनिता कर्ण 30.12.2017

सोमवार, 24 जुलाई 2017

कंडोम मुफ्त, सेनिटरी पैड्स क्यों नहीं?

देश की आधी आबादी को मोदी सरकार से बहुत उम्मीदे हैं, पूरी भी हो रही हैं, लेकिन एक ऐसी उम्मीद, जिसपर न तो महिलाओं ने खुलकर मुंह खोलने की जरुरत समझी और न ही खुलकर मांग की.

सच तो यह है कि 'सेन्टरी नैपकिन' हमारे देश में शोध या खोज का विषय कभी नहीं रहा. पुरुषों से हमेशा 'चुन्दरी का यह दाग' छुपाया गया. फिर नीति निर्धारक पुरुषों की 'नजर' या उनके ख्याल में यह दाग कैसे आता? वहीं महिलाएं अपने हर मौलिक अधिकारों से समझौता करती रही हैं और आज भी कर रही हैं. तब उनकी यह अहम समस्या एक बड़ा मुद्दा कभी नहीं बन सकती, जिसपर चर्चा हो या जनआदोलन किया जाए.

साड़ी-दुपट्टा से नहीं थमता रक्त प्रवाह...

हां, जब जीएसटी लागू हुआ तो मुठ्ठीभर महिलाओं को यह मंहगा लगने लगा. उनकी मांग भी सही है. मौजूदा सरकार या पिछली किसी भी सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए इसे इतना अहम नहीं समझा. लेकिन सच तो यह है कि देश के विकास के लिए आधी आबादी का स्वस्थ और शिक्षित होना पहली जरूरत है. महिलाएं स्वस्थ नहीं होंगी तो उनके बच्चे स्वस्थ कैसे होगे? और जब बच्चे स्वस्थ नहीं होंगे तो देश का विकास नारे और विचारों में ही रह जाएगा.

यह बहुत ही छोटा मुद्दा है पर देश की आधी आबादी के लिए बहुत ही अहम. परिवार से लेकर सरकार तक को समझनी चाहिए. शहरी महिलाएं अपने पीरिटड्स के दौरान सेन्टरी पैड का इस्तेमाल करती हैं पर गांवों की ज्यदातर महिलाएं सेन्टरी नैपकिन का नाम तक नहीं जानतीं.  उपयोग करना तो दूर की बात है. अपने देश में 80 फीसदी महिलाएं ही सेन्टरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करती हैं.

और एक रिसर्च के मुताबिक तो 88 प्रतिशत महिलाएं तो खरीद ही नहीं पाती. वे आज भी पुराने कपड़े, टाट, बालू, राख सूखी पत्तियां और अखबार का इस्तेमाल करती हैं. उपयोग किये गए कपड़ों को बार-बार धोना-सूखाना इनकी लाचारी है.

इससे कई तरह की बीमारियां पैदा होती हैं. डॉक्‍टर्स के माने तो करीब 70 प्रतिशत महिलाएं बांझपन, यूटरेस-वेजाइनल इन्‍फेक्‍शन से पीडि़त हैं. इतना ही नहीं पिछड़े इलाकों की कुछ महिलाएं मासिक धर्म के दौरान किसी भी तरह के पैड का इस्तेमाल ही नहीं करतीं.

अब नहीं लगनी चाहिए 'चुन्दरी में दाग'

हालांकि किशारावस्था में किसी भी लड़की के लिए  'नदी की बाढ़' की तरह इसके रक्त प्रवाह को संभालना आसान नहीं होता है. उनके पांच दिनों के इस रक्त प्रवाह को मां की पुरानी साड़ी और बहन का दुपट्टा मुश्किल से ही रोक पाता है.

इस दौरान महिलाएं कूदना-फांद करना तो दूर ठीक से चल भी नहीं पातीं हैं. दोनों नितंब छिल जाते हैं. माहावारी के दौरान ग्रामीण लड़कियों की 'चाल' लाख छुपाने के बाद भी सबको बयां कर देती है. जरा सी असावधानी उन्हें शर्मसार कर देता है. खासकर किशोरियों के लिए यह किसी आपदा से कम नहीं लेकिन इसके प्रबंधन के लिए कोई योजना नहीं और बनी भी  तो सही तरीके से लागू करने की जरूरी नहीं समझी गयी.

दुख की बात तो यह है कि ग्रामीण इलाकों की किशोरियां पीरियड्स के दौरान पांच-छह दिनों तक स्कूल नहीं जाती हैं. 23 प्रतिशत बच्चियां, पीरियड्स  शुरू होने के बाद स्कूल से ड्रोपआउट हो जाती हैं.

सवाल यह है कि हमारे देश में तकरीबन तीन-चार दशक से गर्भनिरोधक कंडोम मुफ्त बांटे जा रहे हैं लेकिन  सेनिटरी पैड्स क्यों नहीं?  हालांकि कई राज्यों में सेनिटरी पैड्स छात्रों को मुफ्त दिए जा रहे हैं पर ये ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है. जबकि सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में 12 से 45-50 साल की महिलाओं को 5-10 पैड्स मुफ्त दिये जाएं. तभी महिलाएं 'अपनी चुन्दरी में दाग' से बेफिक्र होगी. जब तक उन्हें दाग का डर डराता रहेगा. वे बेखौफ नहीं होंगी. और तब तक खौफ रहेगा उनका विकास नहीं होगा. और जब तक महिलाओं का विकास नहीं होगा...तब तक देश के विकास पर प्रश्न लगता रहेगा. 

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

मुरली मनोहर बोलते रहे, मैं विनोद खन्ना में खोयी रही...


विनोद खन्ना जी के निधन से हमें बहुत दुख हुआ. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.

 विनोद खन्ना जी को मैं बहुत करीब से नहीं जानती, लेकिन वो जब भी याद आते हैं मैं मुस्कुरा देती  हूं.

बात अटल जी की सरकार के समय की है. तब मैं 'राष्ट्रिय सहारा'के रिपोर्टिग में थी. तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जी ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किसी मुद्दे पर प्रेस वार्ता बुलाई थी. मुझे कवर करने के लिए भेजा गया.

किन्हीं कारणों से मैं देर हो गयी. मैं गिरती-पड़ती वहां पहुंची.

अंदर जाने के लिए शीशे का गेट खोला ही था कि पीछे से विनोद खन्ना जी अपने दो-तीन साथियों के साथ नजर आये.

मैंने उनकी राह छोड़ दी. कहा पहले आप, उन्होंने भी कहा पहले आप, दो तीन बार हम एक दूसरे को आप आप कहते रहे, जब उन्होंने बड़े प्यार से अंदर जाने का इशारा किया तो मैं मना नहीं कर पायी.

आगे हम लोग गलती से दूसरे हॉल में चले गये, जहां कोई सेमिनार चल रहा था. हॉल में अंधेरा था, वापस मुड़ने लगे तो गलती से मेरी सैंडिल उनके चप्पल से टकरा गयी, इस बार एक दूसरे को माफ कीजिए, माफ कीजिए कहना पड़ा.

बात यहीं खत्म नहीं हुई. संयोग से जहां वो बैठे, ठीक उनके सामने मुझे बैठने की जगह मिल गयी.
बार-बार उन्हें देखने की मेरी इच्छा हो रही थी.

मुरली मनोहर जी बोलते रहे लेकिन मुझे कुछ सुनाई -दिखाई नहीं दे रहा था, मेरी आंखों के सामने तो बस विनोद खन्ना जी की फिल्मे चल रही थीं. वो अलग-अलग रोल में दिख रहे थे.

कई बार-बार मैंने उन्हें जी भर के देखने की कोशिश की लेकिन हर बार मेरी नजर उनसे टकरा जाती.
इससे पहले मैंने कभी इतना सुशदर्शन पुरुष नहीं देखा था.

शांत शिष्ट और खूबसूरत आंखें, दिव्य चेहरा और शालीन मुस्कुराहट, जिसे बार-बार देखने का मन करता हो.

उस दिन मैंने किसी तरह प्रेस रिलिज से खबर बनायी.

कई दिनों तक विनोद जी मेरे जहन में रहे. जब भी विनोद खन्ना याद आते हैं तो मैं मुस्कुरा देती हूं.

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

कलम का अल्पविराम

 कलम का अल्पविराम खत्म



साहित्कार अज्ञय ने लिखा है,' दुख सबको मांजता है और दृष्टा बनाता है'. दुख ने मुझे भी मांजा. दृष्टा बनाया या नहीं, कह नहीं सकती. पर भावों से लबरेज जरूर किया और मन का घड़ा भरता गया.

घड़ा भरा हो तो कुछ और नहीं भरा जा सकता . उसे भरने के लिए खाली करना जरूरी होता है और मन को भी.

न जाने क्यों कुछ दिनों से मैं खुद को बीस साल पीछे महसूस कर रही हूं. जब मेरे पास, घर नहीं था, फोन नहीं था, मोबाइल नहीं था, पैसे नहीं थे, नौकरी नहीं थी. एक छोटी सी बाइक हीरो पुक थी, जिसे मैं पूरे शहर में घूमाती थी. वो थकती नहीं, मैं भी नहीं थकती थी.

पटना से दिल्ली आई तो वो भी छूट गयी. मैं अकेली खाली हाथ बेगाना शहर में थी.

लोग मिले, दोस्त मिले, अपने मिले, अपने जैसे मिले, नौकरी, पैसा, घर, गाड़ी, सुख और दुख भी...

'सहारा' ने हमें सहारा दिया पर अपनों के लिए मैंने सहारा छोड़ दिया.

बड़ी पीड़ा और बोझिल मन से मैंने सहारा से विदाई ली. लगा आखिर मेरी कलम की नींव टूट ही गयी, जो मेरी जान से भी अजीज है. मेरी साधना है.

दुख-पीड़ा में मैंने कलम को विराम दे दिया, लेकिन पटना सिटी के प्रतिष्ठित पत्रकार नारायण भक्त याद आते रहे, 'अनिता अच्छा लिखती हो कभी अपनी कलम को विराम मत देना.

मेरी कलम एक बार फिर चल पड़ी है. बेखौफ.... वे मेरे गुरु नहीं थे, गुरु के सानिध्य थे...मैं उनका सम्मान करती हूं. उनके 'कहे' ने हमें प्रेरणा दी है...वह अब जीवित हैं या नहीं पर ये मेरा सादर अभिवादन है.