घर तो वही होता था ना,
रसोई से आती हुई दाल की खुशबू,
आंगन में फैली हुई खटाई,
बरामदे में फैली हुई चटाई,
पिता का घर में आना,
दूध, सब्जी और साथ में मिठाई लाना,
आते ही होती थी सबकी हाजरी,
गायबों की होती थी धुलाई,
फिर आता था,
फटकारों का मौसम,
क्यों नहीं खाने में बनाया सहजन,
कल तक हो जाएगा खराब,
क्या जानों पैसे का कद्र,
आठ घंटे की ड्यूटी,
दो घंटे आना-जाना,
घर आते ही रोज के नये लफड़े सुलझाना,
किसी खरोच, तो किसी को बुखार,
अभी-अभी गयी है ठंढ़
बड़े प्यार सेओढ़ा देते थे चादर,
न लग जाये किसी को सर्दी,
बंद रहता था,
मां के कान के साथ ही जुवान,
मौका मिलते ही,
सुलझाने बैठ जाती थी,
ऊन की उलझने,
खोल देती थी हर गांठ
और सुलझा देती थी,
हर उलझन.