शनिवार, 29 अप्रैल 2017

मुरली मनोहर बोलते रहे, मैं विनोद खन्ना में खोयी रही...


विनोद खन्ना जी के निधन से हमें बहुत दुख हुआ. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.

 विनोद खन्ना जी को मैं बहुत करीब से नहीं जानती, लेकिन वो जब भी याद आते हैं मैं मुस्कुरा देती  हूं.

बात अटल जी की सरकार के समय की है. तब मैं 'राष्ट्रिय सहारा'के रिपोर्टिग में थी. तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जी ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किसी मुद्दे पर प्रेस वार्ता बुलाई थी. मुझे कवर करने के लिए भेजा गया.

किन्हीं कारणों से मैं देर हो गयी. मैं गिरती-पड़ती वहां पहुंची.

अंदर जाने के लिए शीशे का गेट खोला ही था कि पीछे से विनोद खन्ना जी अपने दो-तीन साथियों के साथ नजर आये.

मैंने उनकी राह छोड़ दी. कहा पहले आप, उन्होंने भी कहा पहले आप, दो तीन बार हम एक दूसरे को आप आप कहते रहे, जब उन्होंने बड़े प्यार से अंदर जाने का इशारा किया तो मैं मना नहीं कर पायी.

आगे हम लोग गलती से दूसरे हॉल में चले गये, जहां कोई सेमिनार चल रहा था. हॉल में अंधेरा था, वापस मुड़ने लगे तो गलती से मेरी सैंडिल उनके चप्पल से टकरा गयी, इस बार एक दूसरे को माफ कीजिए, माफ कीजिए कहना पड़ा.

बात यहीं खत्म नहीं हुई. संयोग से जहां वो बैठे, ठीक उनके सामने मुझे बैठने की जगह मिल गयी.
बार-बार उन्हें देखने की मेरी इच्छा हो रही थी.

मुरली मनोहर जी बोलते रहे लेकिन मुझे कुछ सुनाई -दिखाई नहीं दे रहा था, मेरी आंखों के सामने तो बस विनोद खन्ना जी की फिल्मे चल रही थीं. वो अलग-अलग रोल में दिख रहे थे.

कई बार-बार मैंने उन्हें जी भर के देखने की कोशिश की लेकिन हर बार मेरी नजर उनसे टकरा जाती.
इससे पहले मैंने कभी इतना सुशदर्शन पुरुष नहीं देखा था.

शांत शिष्ट और खूबसूरत आंखें, दिव्य चेहरा और शालीन मुस्कुराहट, जिसे बार-बार देखने का मन करता हो.

उस दिन मैंने किसी तरह प्रेस रिलिज से खबर बनायी.

कई दिनों तक विनोद जी मेरे जहन में रहे. जब भी विनोद खन्ना याद आते हैं तो मैं मुस्कुरा देती हूं.

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

कलम का अल्पविराम

 कलम का अल्पविराम खत्म



साहित्कार अज्ञय ने लिखा है,' दुख सबको मांजता है और दृष्टा बनाता है'. दुख ने मुझे भी मांजा. दृष्टा बनाया या नहीं, कह नहीं सकती. पर भावों से लबरेज जरूर किया और मन का घड़ा भरता गया.

घड़ा भरा हो तो कुछ और नहीं भरा जा सकता . उसे भरने के लिए खाली करना जरूरी होता है और मन को भी.

न जाने क्यों कुछ दिनों से मैं खुद को बीस साल पीछे महसूस कर रही हूं. जब मेरे पास, घर नहीं था, फोन नहीं था, मोबाइल नहीं था, पैसे नहीं थे, नौकरी नहीं थी. एक छोटी सी बाइक हीरो पुक थी, जिसे मैं पूरे शहर में घूमाती थी. वो थकती नहीं, मैं भी नहीं थकती थी.

पटना से दिल्ली आई तो वो भी छूट गयी. मैं अकेली खाली हाथ बेगाना शहर में थी.

लोग मिले, दोस्त मिले, अपने मिले, अपने जैसे मिले, नौकरी, पैसा, घर, गाड़ी, सुख और दुख भी...

'सहारा' ने हमें सहारा दिया पर अपनों के लिए मैंने सहारा छोड़ दिया.

बड़ी पीड़ा और बोझिल मन से मैंने सहारा से विदाई ली. लगा आखिर मेरी कलम की नींव टूट ही गयी, जो मेरी जान से भी अजीज है. मेरी साधना है.

दुख-पीड़ा में मैंने कलम को विराम दे दिया, लेकिन पटना सिटी के प्रतिष्ठित पत्रकार नारायण भक्त याद आते रहे, 'अनिता अच्छा लिखती हो कभी अपनी कलम को विराम मत देना.

मेरी कलम एक बार फिर चल पड़ी है. बेखौफ.... वे मेरे गुरु नहीं थे, गुरु के सानिध्य थे...मैं उनका सम्मान करती हूं. उनके 'कहे' ने हमें प्रेरणा दी है...वह अब जीवित हैं या नहीं पर ये मेरा सादर अभिवादन है.