शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

कलम का अल्पविराम

 कलम का अल्पविराम खत्म



साहित्कार अज्ञय ने लिखा है,' दुख सबको मांजता है और दृष्टा बनाता है'. दुख ने मुझे भी मांजा. दृष्टा बनाया या नहीं, कह नहीं सकती. पर भावों से लबरेज जरूर किया और मन का घड़ा भरता गया.

घड़ा भरा हो तो कुछ और नहीं भरा जा सकता . उसे भरने के लिए खाली करना जरूरी होता है और मन को भी.

न जाने क्यों कुछ दिनों से मैं खुद को बीस साल पीछे महसूस कर रही हूं. जब मेरे पास, घर नहीं था, फोन नहीं था, मोबाइल नहीं था, पैसे नहीं थे, नौकरी नहीं थी. एक छोटी सी बाइक हीरो पुक थी, जिसे मैं पूरे शहर में घूमाती थी. वो थकती नहीं, मैं भी नहीं थकती थी.

पटना से दिल्ली आई तो वो भी छूट गयी. मैं अकेली खाली हाथ बेगाना शहर में थी.

लोग मिले, दोस्त मिले, अपने मिले, अपने जैसे मिले, नौकरी, पैसा, घर, गाड़ी, सुख और दुख भी...

'सहारा' ने हमें सहारा दिया पर अपनों के लिए मैंने सहारा छोड़ दिया.

बड़ी पीड़ा और बोझिल मन से मैंने सहारा से विदाई ली. लगा आखिर मेरी कलम की नींव टूट ही गयी, जो मेरी जान से भी अजीज है. मेरी साधना है.

दुख-पीड़ा में मैंने कलम को विराम दे दिया, लेकिन पटना सिटी के प्रतिष्ठित पत्रकार नारायण भक्त याद आते रहे, 'अनिता अच्छा लिखती हो कभी अपनी कलम को विराम मत देना.

मेरी कलम एक बार फिर चल पड़ी है. बेखौफ.... वे मेरे गुरु नहीं थे, गुरु के सानिध्य थे...मैं उनका सम्मान करती हूं. उनके 'कहे' ने हमें प्रेरणा दी है...वह अब जीवित हैं या नहीं पर ये मेरा सादर अभिवादन है.