मंगलवार, 26 मई 2015

'जेही मोहे मारा तेही मैंने मारा'

एक-दो दिनों से हमें अपना बचपन याद आ रहा है. हम गांव में रहते थे. पूरे दिन इधर-उधर खेत-खलियान में घूमते थे. कई बार कांटे भी चुभ जाते थे. तब हम नागफनी ढूंढ़ते थे.

नागफनी का लंबा, नुकीला मजबूत कांटा चुटकी में कांटे को निकाल देता था. तब यह मुहावरा पता भी नहीं था कि 'कांटे से कांटा' निकाला जाता है. लेकिन जान जरूर लिया था कि कांटा निकालने के लिए कांटे का ही इस्तेमाल करना चाहिए. सेफ्टीपिन का नहीं उससे नासूर बन जाता है.

हां, सेफ्टीपिन से कांटा निकालने से नासूर बनते देखा भी है, लेकिन हैरान हूं अब तलक हमारे देश के नेताओं ने क्यों नहीं समझा, क्यों नहीं उनके जेहन ये बात आयी कि 'कांटे से कांटा' से निकाला जाता है.

हमारे रक्षा मंत्री ने पहली बार ये बात कही तो लोग चौंके क्यूं? क्यों हैरान हूए? हमने अब तक कांटों को सेफ्टीपिन से निकालने की कोशिश की, जिसका नतीजा यह हुआ कि यह नासूर बना ही नहीं बढ़ता गया.
रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर के आतंकियों के संदर्भ में कहा गया मुहावरा 'कांटे से कांटा निकालना' पड़ोसी देश  को चुभ गया है.  पाक बौखला गया है, अपने देश की सियासत में भी खलबली मच गयी, विपक्षी पार्टी सरकार को कोसने लगी, नैतिकता का हवाला देने लगी. रक्षा मंत्री के बयान से नाराज मुख्य विपक्षी दल ने इसके सुबूत देने या फिर सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की बात तक कह डाली. यही राजनीति भी है.
हम भी इस बात से सहमत हैं कि उन्हें ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए थी. ऐसी बातें कही भी नहीं जाती. कौटिल्य ने भी कहा है करने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए. कूटनीति यही कहती है.

आतंकवाद हमारे देश का बड़ा नासूर है. देश में कितनी आतंकी घटनाएं हुईं? कितनी जानें गयीं? अंगुलियों पर नहीं गिने जा सकते. कितने घर बर्बाद हुए, कितने बच्चे अनाथ हुए, कितनी महिलाएं विधवा हो गईं, किसी से छुपा नहीं है.

दुखद बात तो यह है कि इन आतंकियों से लड़ते-लड़ते हमारे हजारों जवान शहीद हो गए. हम हैरान हैं कि आतंकवाद से निपटने के मुद्दे पर हमारे राजनेता सिद्धांत और नैतिकता की बात कैसे कर रहे हैं. उनसे निपटने के लिए अब तक वाजिब रास्ता नहीं ढूंढा.

क्या इन्होंने बम धमाके की घटनाएं नहीं दिखी, बम विस्फोट की आवाज इनके कान तक नहीं पहुंची. ऐसे नेताओं को अगर इनके सामने आंकड़े और सबूत पेश कर दिया जाएं तो वह अंधों के सामने आईना दिखाने जैसा ही होगा.

अब बात पाकिस्तान की है. रक्षामंत्री की बात पर उसका बौखलाना लाजमी है. किसी से छुपा नहीं है. आतंक की पौध कहां लगी है? कौन सींच रहा है? और इसके पीछे किसका हाथ है. अगर पड़ोसी देश के पास नैतिकता और मानवता जैसी चीज नहीं है तो हम क्यों सिद्धान्त बघार रहे हैं.

दुख तो इस बात का है कि नैतिकता और सिद्धान्त की बात करने वाले अपने ही नैतिक ग्रंथों को ठीक से समझ नहीं पाएं, जहां लिखा है, जो नहिं दंड करों सठ तोरा है भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा.

ये बात भी सही है कि रक्षा मंत्री पार्रिकर ने ऐसी बात कहकर भारत के लिए कूटनीतिक मुसीबत खड़ी की, उन्हें रक्षा मंत्री के तौर पर औपचारिक रूप से ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए थी. हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने स्थिति को संभालने की कोशिश की और पार्रिकर ने भी बयान से पलटने का प्रयास किया. लेकिन कहते हैं 'तीर कमान से और बात जबान से' निकलने के बाद वापस नहीं आती.

हम तीन दशक से आतंकवाद का दंश झेल रहे हैं. इस दौरान कई सरकारें आईं और गईं. सरकार आतंकवादियों से जूझती रही, चिन्ता व्यक्त करती रही पर सही विकल्प नहीं ढूंढ पायी. अगर पिछली सरकारों ने इसका सही इलाज किया होता तो आज 'कांटे से कांटा' का मुहावरा नहीं पढ़ा जाता.

आतंकवाद अब देश का सबसे बड़ा नासूर बन चुका है. चाहे कांटे से हो या लेजर से...अब इसका सही इलाज जरूरी है. पर एक बात यह भी सच है कि कांटा निकालना है तो नागफनी तलाशनी होगी. गोस्वामी तुलसी दास ने भी कहा है 'जेही मोहे मारा तेही मैंने मारा'.