गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

काश! कुर्सी टूट जाती

गांव शुरू होते ही शुरू होती हैं, छोटी-छोटी झोपडियां और आखिर में आलीशान इमारत. गांव का सबसे पुरानी और भव्य, जो अब जर्जर हो चुकी है. इमारत में जहां-तहां के प्लास्टर उजड़ चुके हैं. पूरी इमारत की रंगाई-सफाई के खर्च से तंग आकर इसके कुछ ही हिस्सों में ही ताजी सफेदी नजर आती है. हवेली का पूरा कुनबा एक कोने में सिमट गया है. बहुत कुछ बदल गया है,इस गांव में और इस हवेली में भी. आज से तीस साल पहले जी टी रोड के दोनों तरफ कच्चा मकान हुआ करता था और गांव के आखिर में ये इमारत. दूर से ही गांव के सबसे अमीर आदमी की हवेली होने की पहचान कराती थी. खंडहर बन चुकी ये इमारत,आज भी ये अपनी पहचान से महरूम नहीं है.यदि कुछ नहीं बदला तो हवेली के बाहर का बरामदा और उसमें झूलती कुर्सी और घर्र-घर्र करती आटे चक्की की मशीन.
दरवाजे पर गाड़ी रुकी तो मेरी तंद्रा भंग हुई. गाड़ी के आस-पास गली के बच्चे जमा होने लगे. दरवाजे पर गाड़ी रुकने की आवाज सुनकर इमारत के लोग भी बाहर निकल आए. एक-एक कर गाड़ी से सामान निकाला जा रहा था और मैं पुराने ख्यालों में डूबती जा रही थी. तब कारें इस सड़क पर कम चला करती थी और कब सरपट दौड़ती निकल जाती पता ही नहीं चलता. ननिहाल से जब आना होता तो पहले ही स्टेशन पर बग्गी भेज दी जाती. मां बित्ते भर घुघट किये बग्गी के अंदर दुबक जाती और हम उचक-उचक कर धीमी गति से पीछे छूटते खेत-खलिहान और गांव घरों को देखते. जैसे ही अपना खेत नजर आता चिल्ला पड़ते, वो देखो,अपना खेत. दूर दिखाती उंगुलियों के इशारे में मां एक से दिखते खेतों में अपना खेत ठूंठती और हम कहते , हां वही वाला जिसमें गेंहू की सुनहरी फलियां सबसे ऊंची लहरा रही हैं. अपना खेत हमें सबसे बड़ा और उसमें लगी फसल हमें सब उन्नत लगती थी. खेत-खलिहान दिखाते हम कब घर पहुंच जाते हमें पता ही नहीं चलता. ऐसे ही सामान उतारा जाता. मैं घर पहुंचते ही बरामदे में लगी कुर्सी की और लपकती. पर बैठने से पहले ही रोक दी जाती. बरामदे में लगी कुर्सी दादा जी की याद में रखी हुई है. इस कुर्सी पर घर के मर्द गाहे-बगाहें ही बैठते हैं. जबकि घर की औरतों को इस पर बैठने की रत्ति भर इजाजत नहीं हैं. यहां तक की अकेल में चोरी से भी नहीं.
कुर्सी पहले की तरह अब भी झूल रही थी पर पहले वाली चमक नहीं रह गयी थी. बार-बार मरम्मत न होने की वजह से लकड़ी के जोड़ों का पेबंद साफ दिखाई देती थी. कुर्सी
पर नजर पड़ते ही दादा जी की काल्पनिक आकृति आखों के सामने झूलने लगी. मैं हमेशा सोचा करती थी कि दादा इस कुर्सी पर बैठे कैसे लगते होंगे. लोग कहते हैं, दादा के समय में बरामदे में बड़ी रोनक रहा करती थी. दादा की जमींदारी में सैंकड़ों गांव थे. उनकी तूती बोलती थी. वे इसी कुर्सी पर बैठकर रईयत, पटवारी और नुमाइंदों से हिसाब-किताब और जवाब-तलब किया करते थे. कुर्सी हमेशा झूलती रहती. चाहे वो कुर्सी पर हों या नहीं. हमेशा झूलती कुर्सी उनके होने का एहसास करती थी. यहां तक की जब कोई हवेली के रास्ते से गुजरता तो यह जरूर देख लेता कि जमींदार साहब हैं या नहीं. यदि गलती से भी अदब-सलाम किए बगैर गुजर जाता तो उसकी खैर नहीं. अंग्रेज चले गये, जमींदारी खत्म हो गयी. पर हवेली में रौनक-अदब कई सालों तक बरकरार रहा. इतना जरूर था कि अब दादा रइयत-पटवारी से हिसाब-किताब न कर गेंहू-पिसवाने वाले ग्राहकों और नौकरों से हिसाब-किताब किया करते थे. भीड़ वैसे ही लगी रहती, जैसे जमींदारी के दिनों में हुआ करती थी. जमींदारी खत्म होते ही दादा जी ने बड़ी चालाकी से काम लिया, इमारत के इसी बरामदे में आटा-चक्की, चावल, तेल की मशीनें लगा ली. कहते हैं,उस वक्त शहरों में ही ऐसी मीलें हुई करती थीं.कई कोस से लोग यहां आते थे. रात-दिन मशीनें चलती रहतीं.
दादा जी की मौत के बाद बरामदे में पड़ी कुर्सी उसी तरह झूलती रही. मैंने उन्हें नहीं देखा, पर सुनते हैं,उनकी मौत के दस साल बाद मेरा जन्म हुआ था. जमींदरी तो खत्म हो गयी,पर कई वर्षों तक हवेली में रौनक और उसकी ठाट-बाट बनी रही. कुर्सी उनकी शान-शौकत की निशानी थी. कुर्सी पर बैठने की इजाजत तो बच्चों को भी नहीं थी. हां इसी बरामदे के एक कोने में लगे आदमकद तराजू के पलड़े पर हमारा पूरा आधिपत्य था और खासकर एकलौती होने से मेरा आधिपत्य छिन जाने का खतरा भी नहीं था. उसके एक पलड़े पर मन-दो मन का भारी भरकम बाट रहता और दूसरे पलड़े पर मैं कुर्सी वाले अंदाज में झूलती रहती. मेरा एक अलग सम्राज्य था. बावजूद मैं मौका मिलते ही कुर्सी पर झूलने से बाज नहीं आती.
आज भी पलड़ा और कुर्सी उसी अंदाज में झूल रहा था. मुझे याद हो आयी, सूरदास की वो पंक्ति, बूझत श्याम कौन तू गोरी, कहां रहत काकी है छोरी, लेकिन यहां मामला उलटा था. मैं पलड़े पर बैठी दादा की कुर्सी वाले अंदाज में झूल रही थी. एक अंजान लड़का पलड़े की वायीं तरफ आकर खड़ा हो गया और पेंग पर अपनी नजरें हिलाते मुझे देखता रहा. वो हमउम्र या थोड़ा बड़ा होगा तब अंदाज लगाना नहीं आता था.गोरा मासूम और बेहद प्यारा. गंजीनुमा शर्ट और अंडरवियरनुमा पैंट और उससे लटकता जारबंद. मैंने पूछा तुम कौन हो ? कहां से आए हो ? तुम्हारे बाप का नाम क्या है? उसने संकोच से अपना नाम बताया, गोपाल. तब तक उसका पिता आ चुका था. अब उसके परिचय की हमें कोई जरूरत नहीं थी. मैं उसके पिता को अच्छी तरह जानती थी. उसका बाप ग्वाला है. दूध बेचता है. पास के ही किसी गांव में रहता है. गेंहू पिसवाने आया करता है. पैसे के बदले में घी, दूध, दही दे जाती है, मैंने शाही अंदाज में शायद दादा की तरह सर हिलाते हुए कहा, तो ये तुम्हारा बेटा है, उसने कहा, जी हां. और गोपाल का हाथ पकड़कर वहां से चला गया. भीड़ के उस हिस्से में जहां आंटा पिसवाने वालों की कत्तार लगी रहती थी.
स्कूल में जब मैंने पहली बार उसे देखा तो अच्छा लगा. वह एक कोने में बैठा मुझे देखता रहता. मेरे कपड़ों को निहारता, मेरे साथ खेलने के लिए पास आने की कोशिश करता और फिर ठिठककर रह जाता. वो मेरा हमेशा ख्याल रखता. खेल के समय और बदमाश बच्चों से भी. मैं उसकी नजर में क्या थी पता नहीं, एहसास था पर समझ नहीं.
अब वो अकसर अपने पिता के साथ आने. गेंहू पिस जाने तक मुझे पलड़े पर झूलते देखता रहता. मुझे अपनी भव्यता का बोध उसके साथ झूलने का निमंत्रण नहीं देने देता लेकिन उसे देखकर दादा जी के कमरे में लगी तस्वीर की लड़की और झूला झूलाते लड़के की तस्वीर मेरी आंखों के सामने साकार हो जाती.
एक दिन वह फिर उसी तरह आकर खड़ा हो गया. मैं झूलती रही, दो चार पेंग लेने के बाद मैं रुकी, उसे अपने पास बुलाया. उसने मेरी रेश्मी फ्राक को छूआ और फिर दोनों हाथ पीछे मोड़ कर खड़ा हो गया. किसी आदेश के इंतजार में. मैं झूलती रही और वो मुझे झूलाता रहा है और न जाने कब मेरे साथ पलड़े पर खड़ा होकर झूलने लगा, मुझे पता ही नहीं चला. हम घंटों झूलते रहे. वो जब भी आता हम उसी तरह पलड़े पर झूलते रहते या कुर्सी के चारों तरफ घूम-घूम कर एक दूसरे को छूने का खेल खेलते. शुरू-शुरू में घर के बड़े यहां तक की नौकर भी खेलने से मना नहीं करते लेकिन बाद में तो उसे देखते ही हमें अंदर जाने का आदेश दे दिया जाता या अंदर से बुला लिया जाता. इसके बाद तस्वीर में झूलती लड़की हवेली में कैद कर दी गयी. मेरा मर्यादा का ये अतिक्रमण मान्य नहीं था. मेरा झूलने का शौक देखते हुए मेरे लिए आंगन के बरामदे में झूला डाल दिया गया, जो आंगन और बरामदे के बीच झूलता रहता और मैं उसपर बैठी गुनगुनाती रहती. घर की देहरी पार करने की बंदिशें शुरू हो गयीं थी. कभी-कभार बाहर बरामदे में गुड्डियों का ब्याह रचने या दूसरे खेल-खेलने चली जाती लेकिन अगल ही पल डांटकर अंदर भेज दी जाती. स्कूल में भी दो हिस्सों में कत्तारें लगने लगीं. जिसके एक हिस्से में लड़के और दूसरे हिस्से में लड़कियों बैठा करती थीं. खेलकूद में भी लड़के लड़कियों की टोली अलग होती थी.
घर में सामान बंधता देख पता चला कि हम शहर जा रहे हैं. तीसरी के बाद आगे की पढ़ाई गांव में नहीं होती थी और चार मील दूर कस्बे के स्कूल में लड़की को भेजने की जहमत उठाना नहीं चाहते थे. मां की जिद्द से हम शहर जा रहे थे. वो नहीं चाहती थी कि गांव की लड़कियों की तरह हम अनपढ़ रह जाए. शहर जाने की बात हमें अच्छी लगी. शायद इसलिए कि अब स्कूल जाने के लिए बस आयेगी और शहरी अंदाज के स्कूल ड्रेस भी. और न जाने क्या सोच-सोचकर में खुश होती रही. इस खुशी के बावजूद गुड्डा-गुड्डिया,घर-घरोंदा छुट जाने का दुख सालता रहा. मगर धीरे-धीरे किताबों की बोझ तले सब दब कर रह गया.
शहर आने के बाद गांव आने का मौका न के बराबर ही आया. गांव आयी भी तो एक आधे दिन में ही लोट गयी. गांव के किस्से कहानियां सुनने को जरूर मिलती रही. उन्हीं दिनों पता चला कि मुझे कंधे पर बैठाकर स्कूल लाने-लेजाने वाले रामखेलावन के पिता का चेहरा मेरे दादा जी से मिलता था और रामखेलावन का चेहरा मेरे पिता से. रामखेलावन का चेहरा तो मुझे आज भी याद है. मेरे पिता की तरह दप-दप गोरा. सुना था रामखेलावन की दादी मागो विधवा थी और मेरी परदादी की सेवा-टहल करती थी. दिन-रात की सेवा-टहल का परिणाम का था वह. परदादी अपने साथ उसे भी मायके ले गयी. पांच महीने बाद गांव वापस आयी तो उसकी गोद में रामखिलावन का पिता था.
बताते हैं रामखेलावन की मां रधिया बड़ी खूबसूरत थी. शादी होते ही बड़े साहब की भेंट चढ़ गयी और फिर पैदा हुआ रामखेलावन. उसे देखकर तो लोग दांतों तले उंगुली दबा लेते थे. हाय कैसा कुदरत का करिश्मा है. पाप नहीं छिपता... पर बड़े साहब का सीना और गज भर चौड़ा हो गया था. उन्होंने परम्परा निभाने में कोई कोताही नहीं की थी. रधिया भी जीवन भर महारानी जैसा सुख भोगती रही.
धीरे-धरे आस-पास के गांवों में भी आटा चक्कियां लग गयी. भीड़ और आमदनी दोनों ही कम हो गयी. हवेली की खुशहाली बदहाली में बदल रही थी. न तो गांव में हमारी जरूरत रह गयी थी और न ही गांव जाने की हमने जरूरत समझी. कॉलेज के अंतिम साल में शादी की बात शुरू हुई, फिर चट मंगनी पट ब्याह. वे लोग शादी के बाद तुरंत वापस चले गए. एक तरफ मुझे ले के लिए पासपोर्ट वीजा की कई कानूनी अड़चने थी. दूसरी लोगों ताने. ब्याही बेटी मायके में ही सड़ेगी. इन सब बातों ने हमें परेशान कर दिया था. उसका असर मेरी सेहत पर पड़ा. पहली बार लम्बे समय के लिए हम गांव आए.ताकि मेरा मन बदल सके. ज्यों-ज्यों समय बितता जा रहा था, मेरा मन डूबता जा रहा था. मुझे यकीन सा हो गया था कि वे लोग मुझे नहीं ले जाएंगे. यह कोई पहली घटना नहीं थी. विदेश में ब्याही रिश्ते की कई लड़कियां अपनी किस्मत पर रो रही थी.
इतने वर्षों में गांव की पूरी शक्ल ही बदल गयी थी. सड़के चौड़ी हो गयी. सड़क के किनारे होटल चाय-पान की कई दुकाने खुल गयी. स्कूल पांचवी से बारहवीं तक हो गया. गांव के कच्चे घर हमारी हवेली से ऊंचे और पक्के बन गए. ऊंची जाति की औरतें खेत खलिहानों में जाने लगी थी. सुना था कि गांव में ऊंची जाति के मर्दों का उद्धम खुले आम हो गया. घर के मर्दों का खासकर जवान लड़कों का खेत-खलिहान में मुसहरों की औरतों के साथ रंगरेलिया आम बात हो गयी थी. रात-रात भर घर के लड़के उनकी सोहवत में पड़े रहते. इनकी औरतें अपना बड़ा से पेट लिये अपने दावेदारी कर जातीं. नकदी रुपए से लेकर दाल-चावल, आटा तेल घर के भंडार से निकलकर इनकी रसोई में पहुंच जाता. न सिर्फ हवेली में बल्कि गांव के दूसरे रईसों के घरों में बदहाली साफ दिखने लगी थी. छोटी जाति के लड़के और ऊंची जाति के लड़कियों के किस्से दबी जुबान में खूब होते. इन सब के बावजूद बरामदे में रखी कुर्सी पहले की तरह झूलती रहती. लाचारी में घर के पुरुषों का या मेहमानों इसी कुर्सी पर बैठना पड़ता. गौशाले में न तो गायें थी और न ही दरवाजे पर बंधे बैलों की जोड़ियां खेतों पर बंटाइदारों का कब्जा हो चुका था.
मेरे आने की खबर सुनकर मुझ से मिलने वालों का कम तरस खाने वालों का जमावड़ा लग गया. मैं कई दिनों तक मदारी के बंदर की तरह तमाशे की चीज बनी रही. मैं प्राय: उसी कुर्सी पर आकर बैठ जाती और सड़कों पर गुजरते ट्रक, बस और कारों को देखती और बचपन की यादों में डूब जाती. लगता मैं कुर्सी पर नहीं पलड़े पर झूल रही हूं.
पलड़ा धीरे-धीरे झूलता रहा. चक्की उसी रफ्तार में चलती रहती. ग्राहक आते और चले जाते. मुझे न ग्राहकों में रुचि थी और न ही आने-जाने वालों से.
चक्की बंद हो गयी थी. सभी ग्राहक जा चुके थे. नौकर कहीं किसी काम में व्यस्त हो गया था. किसी के पास आने से मेरा ध्यान भंग हो गया. मैंने नजरें उठाकर देखा, सामने सांवला सा नौजवान आटे का गठ्ठर लिये खड़ा था और मुझे पहचाने की कोशिश कर रहा था. उसे देखते ही मैं खड़ी हो गयी. चहरा पहचाना सा लगा. कड़ी मेहनत, धूप और रूखी बेरहम हवाओं ने उसका रंग सांवला कर दिया था. उसके चेहरे पर वही सादगी और मासूमियत थी. बीस साल पुरानी घटनाएं पल भर को ताजा हो गयी. वो नन्हा सा गोपाल नहीं, सुदर्शन युवक हो गया था. हम एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते रहे. वह अपनी गठ्ठरी जमीन पर रखकर खड़ा हो गया. उसके सर पर गठ्ठरी रखने वाला कोई नहीं था. मैंने उसकी गठ्ठरी उठाकर उसके सर पर रखना चाहा. न जाने गठ्ठरी कैसे खुल गयी. आटा बचाने के क्रम में हम दोनों आलिंगन बद्ध हो गए. एक रंग होकर कुछ
पलों तक हम वैसे ही खड़े रहे. जब होश आया तो मैं धम से कुर्सी पर बैठ गयी. लगा दादा की कुर्सी आज चरमराकर टूट गयी. मैं बुत बनी रही और कुर्सी अपने अंदाज में झूलने लगी. वह सर से पांव तक आटे से रंगा, जल्दी-जल्दी आटा समेट रहा था. और मैं सोच रही थी काश ! आज ये कुर्सी टूट जाती.

काला पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू

आज रसोई से आती चूड़ियों की खनक में कोई राग नहीं था. न भैरवी न यमन न खमाज. मां जब सुबह की चाय बनाती तब मुझे भैरवी सुनाई देती थी और तब अनायास ही गले से भैरवी फूट पड़ती-सा रे ग म प ध नी सा ----सा नि ध प म ग रे सा...जा…. गो….नंदला...ल...प्या...रे...
मां की चूड़ियों में मुझे आरोह-अवरोह, स्थाई-अंतरा तान सब कुछ सुनाई देता. केतली में पानी भरे जाने से लेकर चाय बन जाने तक, एक संगीत होता. मां की चूड़ियों का संगीत. मां चाय का ट्रे बरामदे के टेबुल पर रखती तब मेरे आलाप का अंतिम स्वर होता था. पापा शायद इसी वक्त का इंतजार करते. अखबार टेबुल पर रखते और घंटी बजाते. चाय की घंटी सबको जगाने की घंटी. घंटी क्या सब लोग उस वक्त तक जाग ही चुके होते थे. मैं रियाज के लिए सुबह ही उठती थी. मां-पापा मुझ से पहले ही जाग चुके होते थे. ले-देकर भइया, जिसे जगाने के लिए घंटी की जरूरत पड़ती या चिढ़ाने के लिए. वह आंखें मलता हुआ कहता ये सुबह से ही आलाप शुरू कर देती है और पापा...आपको तो पता ही है, मैं देर रात से सोता हूं, फिर भी आप... आगे का वाक्य हम सब को पता था. हम सब हंसते मन ही मन खुश होते.
मुझे लगा अब चाय छानी जा रही है, लेकिन चूड़ियों में कोई संगीत नहीं था और न ही आलाप का अंतिम स्वर. चूड़यों की आवाज में बहुत फर्क है, शायद चूड़ियों की संख्या की वजह से. नौ-नौ या बारह-बारह होगी. मां के हाथों में सात-सात चूड़ियां हुआ करती थी. संगीत के सात स्वर. मां की चूड़ियों में एक संगीत होता था. जाना पहचाना संगीत. मां जब रोटियां बनाती तो मुझे सारंग सुनाई देता. मसाला पीसती तो मालकोश, कपड़े धोती तो धमार और जब हम सब के पास आती तो यमन सुनाई देता नी रे ग म ग रे नि रे सा...मां के हर काम में चूड़ियां खनकतीं. उसकी खनक में कोई-न कोई राग जरूर होता. अब शायद चाय का ट्रे टेबुल पर रखा जा रहा है, लेकिन पापा की घंटी सुनाई नहीं दी न ही भईया का चिड़चिड़ाना और न ही आलाप का अंतिम स्वर. मैं तानपूरे को छूती हूं. पापा इसे मेरे लिए ही लाये थे. मेरी मध्यमा पहले तार पर ही ठिठक गयी. मुझे महसूस हुआ मेरे हाथों के नीचे कोई चेहरा है. मेरा खुद का चेहरा थोड़ा रूखा और कठोर. चेहरे का अधिकांश हिस्से धने बालों से ढ़का है. मां कहती है, मैं पापा जैसी हूं. पापा का बेजान चेहरा जब पहली बार बड़ी होने पर स्पर्श किया था तो ऐसा ही महसूस हुआ था. मैंने बचपन में उनकी उंगुलियां सहारे के लिए पकड़ी. उनके चरण आशिर्वाद के लिए कई बार स्पर्श किए, लेकिन उनका चेहरा पहली बार उनकी मौत के बाद छुआ. अपना ही बेजान चेहरा, जिसपर बाल रूखापन और झुर्रियां थी. मुझे दाढ़ी से नफरत थी. मुझे याद है, बचपन में कई बार पापा अपनी दाढ़ी मेरे मुंह पर रगड़ दिया करते थे। कहते अब तुम्हें भी दाढ़ी हो जाएगी। मैं उनके चेहरे को छूती, कहती दाढ़ी बड़ी बुरी लगती है पापा. मेरे चेहरे पर दाढ़ी कभी नहीं होगी ना? पापा कहते, तुम मम्मी जैसी होगी.
मैं पापा से पूछती, पान का रंग कैसा होता है?
पापा कहते, लाल. लाओ तुम्हारा मुंह लाल कर देता हूं और मेरे मुंह में अपनी जीभ रगड़ देते. मैं थूकती, कई बार थूकती और चीखती मेरा मुंह जुठा हो गया. उसी समय से ही मेरे मन में पान की खुशबू हमेशा के लिए मेरे मन में बस गयी. पापा के पान की खुशबू. काला-पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू. जो उनके अंतिम दिनों तक यह सुगंध उनके साथ रही. यही उनकी पहचान थी मेरे लिए.
मुझे पापा ने ही बताया था कि आसमान का रंग नीला होता है. मैंने पूछा था, नीला ही क्यों? लाला पीला क्यों नहीं होता?
क्योंकि आसमान शून्य है, शून्य का रंग नीला होता है.
मुझे महसूस हुआ उनके बाद मेरा ह्रदय शून्य हो गया है. यानी नीला, आघात, चोट या शून्यता से, पता नहीं.
पापा का शव सीढ़ियों से उतारने के थोड़ी देर बाद सारा घर रो पीट कर एकदम शांत हो गया था. सब लोग नहा धोकर उनके बारे में ही बातें कर रहे थे. मैंने मां को पूरे घर में ढ़ंढ़ा. वह एक कोने में बैठी थी, अपने सारे स्वरों के टूट जाने के कातर भाव लेकर मां का चेहरा पहले कैसा लगता होगा. यह मेरी कल्पना से बाहर की बात थी. माथे पर सिन्दूर नहीं होगा, लाल बिन्दी नहीं होगी.
मां का लाल सिन्दूर, मां की लाल बिन्दी, लाल रंग...पान का लाल रंग...पान की खुशबू यानी काला पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू...घर के किसी कोने में नहीं थी. मां की सूनी कलाई...सात चूड़ियों का सरगम...मां की पहचान...पापा की पहचान... सब कुछ खो गया! सब कुछ!
शायद चाय का ट्रे बरामदे की टेबुल पर रखा जा चुका है. अठारह चूड़ियों की खनक और पायजेब की रूनझुन भैया के कमरे तक पहुंच गयी है. मां शायद छत पर सूर्य को अर्ध्य दे रही होगी या या तुलसी में जल डाल रही होगी. मां जब तुलसी में जल डालती थी, तब भी कोई राग बजता था मुझे याद नहीं. जब पहली बार राग भूपाली गायी थी तब पापा कितने खुश हुए थे. जो भी आता सबसे मेरी तारीफ करते, कहते कैसे गाती हो, इन्हें भी सुनाओ. वो वाला गाना...सा रे ग म प ध नि सा...मैं कहती सा रे ग मा प ध नि सा नहीं पापा. सा रे ग प ध सा...और मैं शुरू हो जाती द s र..s...श...न...s...दि..s ज...sए...त्रि..भू..व... न... पा…. ली...
इन स्वरों ने मुझे बहुत परेशान किया. मुझमें एक हमेशा बेचैनी बनी रहती. शायद ईश्वर को मुझ पर दया आ गई होगी. सूर को सुर दे दिया. मुझ में सुर था, लय था, रिदम था लेकिन कोई नहीं चाहता था कि मैं संगीत सीखूं. पापा भी नहीं चाहते थे. कहते थे, मेरे खानदान की लड़कियां गाएगी, बजाएगी लोग क्या कहेंगे. ये कैसे हो सकता है? उस गुरु से सिखने जाएगी जो हमारे यहां कभी तवायफों को नचवाया करते थे. बर्मा अंकल ने पापा को कई बार समझाया था, अब जमाना बदल गया है, बड़े-बड़े घरों की लड़कियां स्टेज पर गाती है. इसका जमाना आते-आते तो और भी बदल जाएगा. वैसे भी नेत्रहीन होने की वजह से इसकी पढ़ाई भी देर से शुरू की. बीस-बाईस साल की उम्र दसवीं ही पास कर पाएगी.
जब मैं पहली बार ब्रेल में लिखना सिखा था तब भी पापा बहुत खुश हुए. उन्हें लगा मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूंगी, लेकिन जब मैं खड़ी हुई तो पापा सो चुके थे. अपने पैरों पर खड़ा होने में कितना धक्का खाना पड़ा था. कई बार लगा मैं गिर जाऊंगी. घर और बाहर दोनों जगह हमें मानसिक यातनाएं सहनी पड़ती थी. बाहर की गर्द से बचने की हमेशा मेरी कोशिश रही और घर में उस गर्द की वेबजह झाड़-पोंछ होती जो मुझ पर पड़ी ही नहीं थी. भईया को पसंद नहीं था कि मैं बाहर गाऊं. उस दिन मैं तराना गा रही थी. मेरी आवाज बंद कमरे के बावजूद उनके कमरे में जा रही होगी. मैं स्वरों में खोयी थी. दुम ताना...ना...ना...दिम... ताना... ना...ना...
भईया लगभग चीखते हुए मेरे कमरे में आये, बंद करो दुम ता ना...ना.. ना...अगर तुम्हें गाने का इतना ही शौक है तो किसी कोठे पर चली जाओ. वहीं करती रहना दुम दाम. अब मुझे तुम्हारे ये सब नहीं सहे जाते. पापा का कमरा खाली है, वहीं रियाज किया करो. कम से कम तुम्हारी आवाज तो नहीं सुनाई देगी. मां-बेटी एक कमरे में भी रह सकती हो. मैं जम सी गई थी. बाद में मुझे लगा ये जमाव वक्त की सूई की है.
रसोई के बाद पापा का कमरा था फिर मेरा और उसके बाद भईया का. जब तक उनकी शादी नहीं हुई थी, बाहर के लोग उनके कमरे में ही आया जया करते थे. शादी के बाद एक कमरे की जरूर उन्होंने और महसूस की हो. शायद यह बात उन्होंने इसी बहाने कही. तब से मैं पापा के कमरे में रहती हूं. रियाज भी यही करती हूं, लेकिन अब वह संगीत सुनाई नहीं पड़ता, जो मां की चूड़ियों देता था. मैंने नए तारीके से मां की पहचान शुरू की. उनकी आहटों से, पैरों की मंथर गति से. मां की चूड़ियां खो जाने के बाद कोई राग नहीं बजा, कोई घंटी नहीं बजी. आज भी नहीं बजेगी. मां शायद कुर्सी पर बैठी मुझे आवाज दे रही है. चाय ठंड़ी हो जाएगी. आकर पी लो, न जाने क्यों कमरे में बंद रहती है. एक बूंद मेरे तानपूरे पर गिरा. बूंद तानपूरे पर फैल गया. मुझे लगा पापा का चेहरा आंसुओं से तर हो गया है. पता नहीं मां कब से चाय की प्याली लिये मेरे पास खड़ी है. आज कोई राग नहीं बजा। मुझे लगा काला-पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू मेरे पास पल भर ठिठक कर गुजर गयी थी.
अनिता कर्ण सिन्हा

सारांशहीन जिंदगी

समझौता, किससे? स्वयं से या परिस्थितियों से? शायद संभव होता तो कर लेता. लड़ता आया हूं, महत्वकांझाओं से. कब तक लड़ता रहूंगा. जिन्दगी का हर ब्याकरण मुझे गलत और निरर्थक लगता है. मैं निराश हो गया हूं. पराजीत हो गया हूं. नहीं, नहीं मेरा वजूद अब भी जिन्दा है, लेकिन कब तक... कब तक जिन्दा रहेगा.यह उसकी डायरी का एक पन्ना है, जो शायद उसकी गलती से मेरे पास आ गया था. मैं उसे लौटाना भी नहीं चाहती थी. चाहकर भी नहीं लौटा सकी, क्योंकि उसका हर शब्दा मुझे अच्छा लगाता था, उसकी लिखने की शैली, उसके टूटे-अधूरे शब्द. तीन बिन्दुओं को रेखांकित करती उसकी अनकही बातें. वह शब्दों का कृपण था. उसे हमेशा डर लगा रहता मैं उसके शब्द चुरा न लूं. वह मुझे कब देने वाला था शब्दों से भरा पन्ना भी.वह किसी नाम का पर्याय नहीं था इसी लिए मैं उसे अपर्याय ही समझा.ऐसा नहीं था कि मैं उसके व्यक्तित्व की आंच से न झुलसी थी, लेकिन, मेरे अहम का बितान उसके अहं के बितान से छोटा नहीं था. चाहकर भी हम दोनों अपने-अपने से बितान से नहीं निकल सके. बस झांकते ही रह गए. हम दोनों ही एक-दूसरे की कहानी के पात्र थे. महज कहानी के पात्र. उसका ब्याकरण गलत था और मेरा गणित. वह मेरा आलोचक था. मैं उसकी प्रशंसिका. बावजूद एक-दूसरे को पराजीत करने की होड थी, लेकिन उसका ‘तुम” संबोधन मेरे लिए जय-पराजय की परिधि से परे था. उसकी प्रतिभा की गंध मेरे मन में थी, तो दूसरी तरफ उसकी उसी प्रतिभा की तेज मुझे झुलसाये रहता था. उन दिनों मेरा और उसका डेस्क पास ही बराबर में लगा हुआ था. वह चुपचाप आकर बैठ जाता, घंटों काम करता रहता. उससे बात करने के लिए मुझे ही पहल करनी पड़ती थी. औरों की तरह उसे चाय-पान का भी शौक नहीं था. बस कहीं जाना होता तो एकाएक उठकर चला जाता, लेकिन उसके विपरीत चुप रहना मेरी लिए सजा थी. मैं चुप नहीं रह सकती. मैं आस-पास के बैठे लोगों से बेवजह ही बातें करती. मैं जानती थी कि उसे अच्छा नहीं लगता है. मेरा लोगों से बतियाना, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी, मेरे अतिरिक्त दूसरा महिला कर्मचारी भी नहीं थी. अगर होती तो मैं न स्वयं को जान पाती और न उसे भी. प्राय: वहां सभी लिखते थे. परन्तु मैं उसके लेखन से आहत थी. उससे भी ज्यादा आहत थी उसके अहंकार से. बारिश की उस शाम को मैं आज भी नहीं भूल पायी हूं. बारिश घंटों बाद भी जारी थी. हल्के-फुल्के छींटे पड़ रहे थे. लगभग सभी जा चुके थे. मेरा उसका एक साथ ही निकलना हुआ. मैंने रिक्शा ले ली. वह रोज पैदल ही जाया करता था. उसका यह फक्कड़ मिजाज मुझे अच्छा लगता और बुरा भी. बारिश की बूंद उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं थीं. भींगना, ठिठुरना और तपना उसकी आदत सी थी. पर न तो उसे मेरी तपिस का अहसास था और न ही इन बूंदों का. उस दिन भी वह बेफिक्र अपने विचारों में गुम चला जा रहा था. बादल अभी साफ नहीं हुए थे. बारिश होने की अभी पूरी आशंका थी. रिक्शेवाले ने चारों तरफ से प्लास्टिक लगा था. ताकि में कहीं से न भींगू. खुद भी प्लास्टिक का ठोंगा ओढ़ लिया था. वह भी कहीं से नहीं भींग रहा था. वैसे भी मेरे पास छाता रहा करता था, जो मैं अक्सर रिक्शेवाले को दे दिया करती थी. वह महाशय भींगते ही चले जा रहे थे. मैंने अचानक ही रिक्शा रोक कर कह दिया. “ आप भींग जाएंगे, मेरे पास छाता है, ले लीजिए. नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूं. रास्ते भर बारिश होती रही. मैं उसके भींगने की कल्पना से ही द्रवित होती रही. घर जाने के बाद उसके भूरे बालों में अटकी बारिश की बूंदों में ही मेरा मन उलझा रहा.कई बार मुझे लगा वो कुछ कहना चाहता है. मैं भी कभी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पायी. वह कहना चाहता था. तीन बिन्दुओं में अपनी सारी बातें और मैं जानना चाहती थी उसकी असंबद्ध बातों के बीच आये शब्दों में उसके मन के भावों का अर्थ. तीन बिन्दू मेरे लिए अस्पष्ट थे असंबद्ध वातें उसके लिए व्यर्थ. कई बार मैं उसके अल्प शब्दों का विश्लेषण करती. ढूंढ़ती उसे कहे गये शब्दों का पर्याय. उसके स्पष्ट-अस्पष्ट शब्दों के जाल में फंस कर रह जाती. फड़फड़ाने लगती मकड़े की जाल में मधुमक्खी की तरह.यूं ही तीन साल गुजर गए. उसके ख्यालों में ही मैं पल-पल जीती रही. नही के द्वीप में लगे बट वृक्ष की तरह वह मेरे मन में अपनी जड़े फैलाता रहा. उसने तरक्की के सारे फासले तय कर लिये. मुझे तब एहसास हुआ, जब उसे अखबार के प्रधान संपादक बनाए जाने की बातें लोगों में होने लगी. तीन साल गुजर जाने के बाद भी वह अपनी जगह तटस्थ रहा और मैं अपनी जगह. उसके जाने की पूरी तैयारी हो रही थी. अब केवल दो दिन ही शेष रह गये थे. मुझे लगने लगा था, मेरे मन का अंश टूट रहा है. मेरी कलम की नींव कहीं से दरक गयी है. शब्द खामोश हो गये हैं. उसके तेबर की किरण, जो विकिरण होकर मुझ तक आती थी. हवा में कहीं लुप्त हो गयी थी. उस दिन मैं समय से पहले ही पहुंच गयी थी. अभी देर थी लोगों के आने में. मैं अकेली, अपने डेस्क पर बैठी, लम्बे शीशे के पार, नीले आसमान के रंगों के बदलाव को देख रही थी. बादल नीला, सफेद,स्याह रंगों में बदल रहा था. अचानक वह मेरे पास आया. आश्चर्य था उसका मेरे पास आना, उससे बड़ा आश्चर्य था उसके कहे शब्द, “तुम मुझ से शादी करोगी” ?
मैं स्तब्ध रह गयी. एकटक मैंने उसकी आंखों में देखा. वही शांत, भावहीन, शून्य में ताकती आंखें, दो मेरे चेहरे पर टिकी थी. एक क्षण को मैं पथरा सी गयी. मेरे अधर हिले, ‘तुम मजाक तो नहीं कर रहे’
-‘नहीं’ ‘फिर अचानक ऐसी बातें’
-इतने दिनों की भूमिका क्या कम थी ?
मेरा चेतना लौट आयी. अहं का बितान मैंने खींच लिये- ‘नहीं यह कभी संभव नहीं हो सकता.’
‘लेकिन क्यों’ ? ‘क्यों’ का कोई जवाब मेरे पास नहीं है. आप और मुझ में आसमान जमीन का फासला है, जो कभी तय नहीं हो सकता’ घबराहट में मैं असंगत बातें कह गयी थी. अनजाने में ही मैं उसके ‘अहं” को चोट कर गयी थी. स्त्री अपने चरित्र पर और पुरुष ‘अहं’ पर चोट बर्दाश्त नहीं कर पाते. वह तिलमिला गया. -‘ खुद को तुम क्या समझती हो ?’
- ‘ जो मैं हूं’
-‘मैं औरों जैसा नहीं हूं’
-‘मैंने कब कहा ? आप जो भी हैं लोगों से अलग नहीं हैं.’
-‘तुम मुझे कभी नहीं भूल पाओगी’
-‘मैंने आपको याद ही कब किया है?’
सच मैं उसे कभी नहीं भूल पायी. वह मेरी कहानियों में कई बार छद्म रूप में आया. उसका छद्म रूप मुझे अभिन्न कभी नहीं रहा. आज उसे शोहरत मिली. मुझे भी, लेकिन, मैं इतिवृत में ही सिमटी कर रह गयी. वह छपता रहा रोज नये अखबारों में, नये आयामों में नये शब्दों के साथ. आज मेरे पास सब कुछ है. सुख-वैभव की समस्त चीजें. अच्छे ओहदे का पति, बच्चे, सब कुछ, लेकिन मुझे लगता है, उसके बेगैर अपनी रचनाओ में निर्रथक सारांश और लक्ष्मण रेखा में घिरी सारांशहीन जिन्दगी.