शनिवार, 16 मई 2015

हर घर में भट्टाचार्या साहब और पीकू

पीकू को अपने पिता की मौत पर दुख होता है. उसकी आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं. वह दुखी होती है पर हैरान नहीं होती. उसे खुशी इस बात की है कि उसके पिता को एक शानदार स्वाभाविक मौत मिली.
उसके पिता की इच्छा के मुताबिक उनकी मौत किसी अस्पताल के बिस्तर पर नहीं हुई. न डॉक्टर, न वेंटिलेटर, न इंजेक्शन, न नर्स और न दवाइयां.
सब कुछ उनके मुताबिक ही हुआ. जैसा वो चाहते थे. कांस्टिपेशन से परेशान उसके पिता पूरी तरह से रिलैक्स होकर 'मुकद्दर के सिकंदर' की मौत मरे.
हालांकि पीकू के पिता भट्टाचार्या साहब बड़े ही झक्की, मिजाजी और इरिटेटिंग आदमी थे. पीकू उनपर खीजती है, चिढ़ती है पर वे उसके पिता हैं, हर वक्त उसकी जेहन में रहते हैं. वह उनकी गलत-सही हर बात मानती है. वह उन्हें प्यार करती है.
हालांकि भट्टाचार्या साहब अपने जमाने में बड़े ही सुलझे और शानदार व्यक्तित्व के मालिक रहे होंगे. लेकिन बुढ़ापा ऐसा हा होता है. भट्टाचार्या साहब की हो या चटर्जी साहब की, पर ऐसी स्वस्थ्य और स्वाभाविक मौत किसी को कहां नसीब होती है? जैसी बनर्जी साहब को मिली.
भट्टाचार्या साहब एकलौते बूढे नहीं है. बुढ़ापा हर किसी के दरवाजे पर दस्तक देता है और जबरन घुस भी आता है. लाख कोशिश करो, चाहे कितना भी खुद को फिट रखो, प्रणायाम-ध्यान करो. सब धरा का धरा रह जाता है.
सिनेमा हॉल में खूब ठहाके लगे, मैं भी खूब हंसी. हंसने-मुस्कुराने के परहेजी पति 'सिन्हा जी भी' दांत निकाले बिना आवाज किये हंसते रहे. और मेरी चार साल की बेटी आध्या भी 'दादा जी' यानी 'बिग बी' की मजेदार हरकतों पर खूब हंसी.
'भट्टाचार्या जी' जैसे तीन बुजुर्ग मेरे घर में हैं. भगवान की कृपा से एक दिन भी मेरा घर बुजुर्गों से खाली नहीं रहा. कभी तीनों मेरी मां, मेरी सासू मां, और पापा (ससूर जी) रहते हैं. साल में दो-तीन महीने दूसरे बेटी-बहुओं के पास रहते हैं. मेरी हालत पीकू से कम नहीं है. गिरती पड़ती ऑफिस पहुंचती हूं.  नाश्ता खाना अक्सर ऑटो में या ऑफिस में ही करती हूं.
सोचती हूं घर में अगर दो बाथ-रूम न होता तो ? और मेरे ऑफिस में 'नहाने धोने' का ऑप्शन होता तो कितना अच्छा होता. बाथरूम सुबह से ही बुक हो जाता है. दो-दो घंटे के लिए, एक के बाद एक, यह सिलसिला एक बजे तक चलता है. बुजुर्ग हैं उन्हें दो नहीं हर बार चार बाल्टी पानी की जरूरत होती है.
अब मैं निर्गुन हो गयी हूं. पहले सगुन थी, भगवान की पूजा करती थी, अब मैं ध्यान और स्मरण से ही काम चला लेती हूं. पूजा-घर हमारा मंदिर जैसा है, एक के बाद एक की लाइन लगी रहती है. हम हाथ जोड़ ले भगवान से, यही काफी है. फिर भी मैं खुश हूं. कहते हैं जहां बुजुर्ग नहीं होते वह घर श्मशान जैसा हो जाता है.





अपने पत्रकारिता के करियर में 'वृद्धाश्रम' की कई स्टोरीज कीं, अक्सर मन भर आया. तब मैंने सोचा था चाहे जो भी हो, हमारे बुजुर्ग किसी 'वृद्धाश्रम' की कोठरी में नहीं, घर के आंगन में रहें.
उनकी देखभाल ऐसी हो कि उनकी मौत किसी अस्पताल में वेंटिलेटर से जबरन सांस लेते नहीं . बल्कि साफ-स्वच्छ हवा में ईश्वर उन्हें एक स्वस्थ मौत दे सके.

बुढ़ापा जिन्दगी का आखिरी पड़ाव है. लेकिन हम भूल जाते हैं कि हमारे बुजुर्गों ने अपना कर्तव्य निभाया. हर अच्छे-बुरे हालात से उन्होंने समझौता कर हमें योग्य बनाया. अब बारी हमारी है अपना कर्तव्य निभाने की.
हमें न उनकी पढ़ाई की फिक्र है और न शादी-ब्याह की. बस उनके लिए फिक्र इतनी होती  है  कि वे अपनों के बीच चैन की आखिरी सांस ले सकें. ताकि उन्हें भी सुकून मिल सके और हमें आजीवन उनका आशीर्वाद...