शनिवार, 20 जून 2009

सौ वर्ष पूर्व बिहार के कार्यालयों में हिन्दी

सौ वर्ष पूर्व बिहार के कार्यालयों में हिन्दी
हिन्दी संघर्षरत भाषा रही है। इसका विरोध शुरू ही होता रहा है। आज कार्यालयों में राजभाषा हिन्दी के प्रयोग पर जोर देने के बावजूद अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। आज से लगभग तेरह-चौदह दशक पूर्व भी हिन्दी की यही स्थिति थी। यहां की कचहरियों में इसके प्रयोग को लेकर उर्दू भाषियों से संघर्ष करना पड़ रहा था। उस समय यहां के कार्यालयों की भाषा उर्दू फारसी थी। यह संघर्ष लगभग दो-तीन दशक तक चलता रहा।
हिन्दी की लिपि देवनागर ब्राह्मी लिपि के एक रूप नागरी लिपि से उत्पन्न भारत की प्राचीनतम लिपि मानी जाती है। नागरी लिपि के प्रयोग के उदाहरण उत्तर भारत में 10वीं सदी तक पाये जाते हैं। 11वीं सदी में इस लिपि की प्रमुखता रही। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में 10वीं सदी के सभी शिलालेख, पत्रादि इसी लिपि में लिखे गए। लगभग 14वीं, 15वीं सदी में अकबर के समय फारसी में दफ्तरी काम-काज होने लगा, किन्तु देहाती काम-काज हिन्दी में ही थे।
सन 1837 में ब्रिटानी सरकार ने फारसी को क्लिष्ट समझकर हिन्दी को पुन: जारी करना चाहा। परन्तु उस समय सरकार की ओर से हिन्दी भाषा का कोई शिक्षा विभाग नहीं था। नतीजतन हिन्ही की पढ़ाई नहीं हो सकी। फलत: स्थिति पूर्ववत बनी रही। सन 1873 में कैम्पवेल ने अरबी-फारसी शब्दों की कठिनाई को महसूस किया और नागरी लिपि जारी करने पर बल दिया। उनके बाद जितने भी लेफ्टिनेंट गवर्नर आये वे सभी हिन्दी के समर्थक रहे। सर एडिन साहब हिन्दी के प्रति विशेष उदार थे। उन्होंने ही बिहार के कार्यालयों में नागरी जारी करने का सफल प्रयास किया। हिन्दी जारी करने में
‘बिहार उपकार सभा’ की न केवल महत्वपूर्ण भूमिका रही, बल्कि ‘बिहार उपकार सभा’ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी। (उन्होंने बिहार उपकार सभा की स्थापना की जिसकी खास नियत एक यह थी कि नागरी की तरक्की हो-‘बिहार-बन्धु’ पटना-7वीं जुलाई 1880।)
दूसरी अप्रैल सन 1874 को हिन्दी जारी करने का आदेश दिया कि भागलपुर और छोटानागपुर में कुल काम, इश्तिहार और इतिलाये हिन्दी में लिखी जावें और कुल सरकारी दफ्तर हिन्दी में रखें जावें। (बिहार-बन्धु-जिल्द-8) किन्तु यह पूर्णरूप से कार्यान्वित नहीं हो पाया।
हिन्दी पर विषेश श्रद्धा रखने वाले डॉ ग्रियर्सन ने बिहार के कचहरियों में सबसे पहले मधुबनी जिले में नागरी लिपि जारी करवाई थी। गया के अदालतों में भी सारी कार्यवाहियां नागरी में प्रारंभ हो गई थी। 31 दिसम्बर 1880 तक ही उर्दू-फारसी बिहार के कार्यालयों की भाषा रही। जनवरी 1881 से सभी कार्यालयों में नागरी जारी करने का आदेश दिया गया। उस समय कार्यालयों में नागरी जारी करने का विरोध न केवल तत्कालीन मुसलमानों ने बल्कि हिन्दुओं ने भी किया जो या तो हिन्दी जानते नहीं थे या सरकारी कर्मचारी या मुख्तार थे। उस वक्त के कायस्थों ने भी जिनकी उर्दू में अच्छी दखल थी, नागरी जारी होने का कम विरोध नहीं किया। यहां तक कि हिन्दी जारी होने के विरोध में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के पास आवेदन भी भेजा गया। उन्हीं दिनों बिहार के अंग्रेजी साप्ताहिक ‘बिहार हैरल्ड’ में नागरी के खिलाफ सैयद विलायत अली खां साहब सी.आई.ई. की एक चिठ्ठी छपी थी और उन्हीं की कोशिश से एक कमेटी भी बनायी गई थी, जिसके द्वारा बंगाल गवर्नमेंट में एक दरखास्त भेजी गयी, जो बाद में नामंजूर कर दी गई।
वहीं हिन्दी और उर्दू जो एक दूसरे के पूरक का काम कर रही थी और सगी बहनों की तरह रह रही थी, सरकारी दफ्तरों में देवनागरी जारी होने के आदेश से एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी हो गई। ऐसा नहीं था कि सभी मुस्लमान हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के विरोधी थे। बल्कि उनमें से एक बहुत बड़ा वर्ग जो देवनागरी लिपि के वैज्ञानिक महत्व को समझता था इसका समर्थक था। ‘
बिहार-बंधु’ के प्रथम संपादक मुंशी हसन अली (1972-74) स्वयं मुसलमान थे।
उन दिनों उर्दू और हिन्दी दो सगी बहने न मानकर एक दूसरे को सौतन माना जाने लगा था। एक दूसरे के विरुद्ध टीका-टिप्पणी आये दिन अखबारों में छपती रहती थी। यथा- ‘कचहरी से उठी उर्दू हुई अब नागरी जारी
बधवा अब बिठाओ भाइयों भागा है दुख भारी
जमाय जड़ बहुत दिन से जो सौतिन नागरी की थी
लजाकर के चली अब आप ही इस देश से हारी’
(‘बिहार-बंधु’ 7वीं सेप्टेम्बर)
22 अगस्त 1880 को पटना कॉलेज के एक हॉल में एक सभा आयोजित की गयी, जिसमें सर ऐशली एडिन साहब के अतिरिक्त शहर के रईस और सरकारी ऑफिसर मौजूद थे। इस सभा में बिहार उपकार सभा की तरफ से कुंवर सुखराज बहादुर साहब, बाबू रामकृष्ण पाण्डेय, बाबू कृष्ण सिंह, बाबू गोविन्द चरण साहब उपस्थित थे। इन लोगों की ओर से एक आवेदन तथा सिफारिशनामा लेफ्टिनेंट गवर्नर साहब को पेश किया गया था। ये आवेदन नागरी जारी होने के विरोध में दिये गये आवेदन का जवाब था, जिसके विरोध में सभा में उपस्थित मौलवी खुदाबक्श खां ने कहा कि “नागरी जारी होने से कबादत होगी। इसका पढ़ा जाना बड़ी मुश्किल है और नागरी एक किसिम की नहीं बल्कि कितने किसिम की है ।” इसके जवाब में एडिन साहब ने कहा कि अगर बढ़खत लिखा जायेगा चो बेशक नहीं पढ़ा जायेगा, लेकिन यह बात सब हर्फों में है। फारसी, अंग्रेजी, सबमें नागरी में ही नहीं। ( ‘बिहार-बंधु’ जिल्द 1880)
बिहार के सर्वप्रथम पत्र ‘बिहार-बंधु’ ने बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठत करने के लिए जोरदार आंदोलन किया। ‘बिहार-बंधु’ 27 वीं दिसम्बर 1883 जिल्द 11 नम्बर के अनुसार “शुरू-शुरू में बिहार में हिन्दी जारी होने का कारण अगर सच और वाजिब पूछो तो ‘बिहार-बंधु’ का ही है। जिस वक्त से ‘बिहार-बंधु’ की पैदाईश हुई उसी वक्त से गोया हिन्दी की नींव दी गयी। जिस हिन्दी के लिए बड़ी कोशिशें हुईं और बहुत कुछ करने के बाद आज यह बात है कि दीवानी, पुलिस और कचहरियों में हिन्दी की सूरत देखने को आती है। दस वर्ष पहले एक सम्मन को पढ़ने के लिए देहात के लोगों को हैरान होना पड़ता था। यह वह हिन्दी है, जिसके चाहने वाले कदरदान विलायत तक हैं।”
इस समर्थन और विरोध के बावजूद हिन्दी कुछ समय के लिए कार्यालय की भाषा रही, लेकिन कालान्तर में अंग्रेजी के वर्चस्व ने इसे रहने नहीं दिया। नतीजतन अंग्रेजी कार्यालयों की भाषा बना दी गयी। आजादी के बाद सन् 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 में यह व्यवस्था की गयी कि 15 वर्षों तक अंग्रेजी केन्द्र सरकार के राजकाज की भाषा बनी रही रहेगी और धीरे-धीरे हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ग्रहण कर लेगी, परन्तु इसके विपरीत यह हुआ कि संविधान को संशोधित करके अंग्रेजी अनिश्चित समय तक के लिए हिन्दी के साथ सरकारी कामकाज की भाषा धोषित कर दी गयी।

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