शनिवार, 18 जुलाई 2009

पुरूरवा मुकम्मल है

पुरूरवा ! पुरूरवा मैं उस पुरूरवा की बात नहीं कर रही, जिसके मानवीय गंध से आकृष्ट हो उर्वशी गंधर्वों और देवताओं को छोड़कर आयी थी. मैं उस पुरूरवा की बात कर रही हूं, जो मुकम्मल होने के बावजूद स्वयं को अधूरा महसूस करता था. उस जैसी दैहिक स्पर्श की कामना गंधर्व कन्याओं के सपने हुआ करते थे... और मैं, न तो उर्वशी हूं और न स्वर्ग से गंधर्व और देवताओं को छोड़ कर आयी हूं, बावजूद लगता है... कुछ है... उस पुरूष में, जो मानवीय उर्वशियों को खींचता है, अपनी ओर और मुझे भी. कुछ अपने खालीपन को भरने के लिए. खासकर जबसे मुझे मुठ्ठियों से रेत निकलती नज़र आने लगी थी, तब से या उसके व्यक्तित्व का कोई हिस्सा कटता-छिलता देखकर समानता सी होने लगी थी. इसके अतिरिक्त भी कुछ था. शायद नारी-पुरूष, पुरूष-नारी की परिभाषा ... खैर उन दिनों शाम बहुत बोझिल हुआ करती थी. पूरे दिन बंद कमरे में रहने के बाद थोड़ी ताजी हवा की जरूरत होती थी या दिल खोलकर बातें करने की चाहत. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. मेरे कदम अनायास उसके घर की और उठ गये थे. मैं उसके घर की लॉन और बरामदे को पार करती उसके कमरे तक चली गयी थी. बेधड़क, बेतकल्लुफ, बेपरवाह... वह हमेशा की तरह चाय पीता या चाय का इंतजार करता बरामदे या लॉन की कुर्सी पर नहीं था. रोज की तरह खामोश, पर कमरे में बैठा पटियाला पैग ले रहा था. बोतल सामने खुली थी. ग्लास में आधा से ज्यादा शराब मौजूद थी उसने दो चार घूट ही ली होगी. मुझे आश्चर्य हुआ. वह चाय के समय चाय और ड्रिंक के समय ड्रिंक लेता है, पर आज... उसके लिए हर काम का वक्त होता है, यहां तक कि दोस्तों से मिलने का भी... जब से मुझे इस बात का एहसास हुआ मैंने उससे बेवक्त मिलना छोड़ दिया. लचरता उसके व्यक्तित्व में कहीं नहीं थी. फौजी अंदाज था. नपे तुले शब्द थे. नपी तुली बातें थीं. लम्बा कद सांवला रंग और चौड़ी छाती, सिंह की तरह कमर और फौजी अंदाज. पूरी की पूरी आकृति संपूर्णता की... मैंने कभी उसका खुला वक्ष नहीं देखा कि उसकी रोये की सधनता के साथ हृदय की गहरायी नाप सकूं. पर इतना जानती थी, वह मुकम्मल है. लिजलिजा या कापुरूष नहीं. एक अजीब सी बात थी मेरे मन में, उसका स्पर्श मुझे अपवित्र बना देगा. इसके बावजूद लगाता कोई ऐसी चीज है, जो मुझे खींचती है अपनी तरफ. शायद यही विवशता थी कि मैं अक्सर उसके पास जाया करती. धीरे- धीरे वह गैरों की श्रृंखला से अलग हो मेरे एहसासों में बसने लगा.



मैंने उसके बारे में कभी भी कुछ जानने की कोशिश नहीं की. क्या करता है ? कहां जाता है? किससे मिलता है? कौन-कौन उसके मित्र हैं? घर में कौन है? क्या है? कहां है... इन सब में मेरी रुचि नहीं थी. अगर उसने बातया भी होगा तो मैंने याद रखने की जरूरी नहीं समझी. इतना जानती थी कि वह कुछ करता है... खरीद-फरोख्त, लेन-देन या साथ में कोई नौकरी...
उसने मेरी आहट पहचान ली. बावजूद शराब की बोतल या ग्लास छिपाने की जरूरत महसूस नहीं की. वह यूं ही बैठा रहा, मौन. मैं जानती थी वही धीर पुरूष है पर इतना संजीदा उसे कभी नहीं देखा. उसने अपनी पलकें उठायी और मुझे देखा और फिर आहिस्ता से पलकें झुका कर बैठने का इशारा किया. कमरे के सारे बल्ब उसने बुझा रखे थे. उसकी कुर्सी के पीछे कोने में सजे लैम्प को मैंने जलाया. कमरे की प्रत्येक चीजों की आकृति मुखरित हो गयी. मैं उसके इशारे पर बैठ गयी. ठीक उसके सामने. लैम्प की रोशनी ऑवर शोल्डर शॉट की तरह उसके कंधे से होती मेरे चेहरे पर पड़ने लगी थी. उसके चेहरे पर अंधेरा और सघन हो गया था. उसके चेहरों पर आये भावों को पढ़ने के लिए मुझे अंधेरे को चीरना पड़ रहा था.
मेरे लिए यह कमरा बिल्कुल अजनबी नहीं था कई बार आ चुकी थी. तब इतनी रोशनी होती थी कि हर चीज साफ-साफ देखा जा सके. मैंने यह कमरा क्या पूरे घर की हर चीज को साफ-साफ देखा था. यहां तक कि उसके वजूद को भी पढ़ने की कोशिश की थी, पर आदमी आदमी होता है. निजीव वस्तुओं की तरह पारदर्शिता उस में नहीं होती, वह जैसा है, वैसा नहीं दिखता, जो दिखता है, वह होता नहीं... मुझे लगता, कुछ है... ऐसा कुछ अज्ञात है, अनभिज्ञ है मुझ से... उसके व्यक्तित्व का कोई दूसरा पहलू...
मेरे आने से उसका मौन भंग हो गया था. वह बोलने के मूड में नहीं था. थोड़ी देर तक हम दोनों ही खामोश रहें. उसकी खामोशी मुझे बेध रही थी. मैंने उठना चाहा तो उसने आंखें बंद कर मेरी हथेली को छूकर बैठने का इशारा किया. उसके इस पहले स्पर्श में कहीं दुराग्रह नहीं था. अब और चुप्पी मुझ से सही नहीं गयी.
-अंधेरा क्यों बना रखा है, कमरे.में -मैंने मौन तोड़ा
-मुझे अंधेरा अच्छा लगता है.
-पता है, अंधेरा निगल लेता है, इंसान के वजूद को
-उसने गहरी सांस ली, पर कुछ कहा नहीं, लगा सांस पूरी होते होते उसका कुछ कहने का औचित्य ही नहीं रह गया हो.
तुम आज कुछ ज्यादा ही संजीदा लग रहे हो?
वह चुप रहा. एक लम्बी सांस भरी ओर ग्लास उठा लिया और धीरे-धीरे सिप करने लगा. एक लम्बे वक्फे के बाद उसने कहा, देखों... मेरा प्रतिबिम्ब कितन अस्पष्ट और अधूरा लग रहा है. मेरे लिए उसे प्रकाश आकृति-पृष्टिभूमि, बिम्ब-प्रतिबिम्ब का सिद्धान्त बता पाती. कहा, बिम्ब पहले प्रखर बना लो, जैसा बिम्ब होगा, वैसा ही उसका प्रतिबिम्ब होगा और रोशनी का प्रभाव तो होता ही है... आतर्किक असंगत बातें करने का मुनासिब मेरा बात को आगे बढ़ाने का था.क्योंकि अब मुझे खीज सी होने लगी थी.
मेरी नज़र बोतल पर चली गयी. उसने भांप लिया.
माफ करना तुम जानती हो इस लिए छूपाया नहीं
अगर न जानती तो क्या छिपा देते? मैंने जिरह की. यह सोचता रहा हूं वर्षों से, क्या छुपाऊ, क्या नहीं. तुम उस समय से आती हो जब मैं एक छोटे से कमरे में रहता था. रोशनी इतनी कम होती थी कि दिन में बल्ब लगाने के बावजूद आंखों को कष्ट देना पड़ता था. तब और इस आलीशान भवन के दरम्यान कितने साल गुजर गये. तुमने सब कुछ देखा है. तुमने जानने की कोशिश क्यों नहीं की कि ये आलीशान भवन, ये साज-सज्जा, तड़क भड़क कहां से आई? जानती हो... जानती हो मैं व्यापार करता हूं, खरीद- फरोख्त करता हूं... मगर आत्मा नहीं बेची अब तक. जानती हो मैं क्या करता हूं? मैं वेश्या पुरूष हुं, वेश्या पुरूष! देह बेचता हूं. उसका अंतिम वाक्य असहाय सा हो गया था. कुर्सी के दोनों हाथों की पकड़ मज़बूत हो गयी. मुझे लगा उसके कहे शब्द मेरे शरीर के सारे रक्त खींच लिये हो. एक हूंक सी उठी और अनायास मेरे मुंह से ओह निकल गया.
उसने आखिरी शब्द के साथ ही आंखे बंद कर ली. मैंने उसके चेहर पर भाव तलाशने की कोशिश की. चेहरा सपाट था, भाव शून्य... कुंठा या पाश्चताप का भाव उसके चेहरे पर है या नहीं मेरी आंखें देख न सकी.
अंधेरा और सघन हो गया था. बाहर सूर्य की आखिरी किरणें भी डूब गयी थीं. कमरे में प्रकाश का प्रभाव और बढ़ गया था. मैं उठना चाहकर भी न उठ सकी. वह थोड़ा प्रगल्भ होता जा रहा था. अपनी बात कहने के लिए अब उसे किसी आड़ की जरूरत नहीं रह थी. वह बेहिचक सब कुछ कह सकता था पर होश अब भी बाकी थी. मुझे विश्वास था वह अशिष्ट नहीं हो सकता. अभी-अभी उसने कहा था मैंने आत्मा नहीं बेची. यही एक बात थी, जो मेरे विश्वास को डिगने नहीं दे रही थी. उसके प्रति और स्वयं के प्रति भी.
-तुमने सुना मैं वेश्या पुरूष हूं.
-हां मैं सुन रही हूं. हमेशा की तरह तुम्हारी बातें हमेशा ही गौर से सुनी है. आज भी सुन रही हूं.
हां... तो मैं कह रहा था. वह शाम और दिनों की तरह ही थी. रोज की तरह में उसके पास गया था. मेरा दोस्त था वह... शायद नहीं उसी का श्रेय था मुझे इस पेश में लाने का. श्रेय इस लिए कह रहा हूं कि उसका एहसान मंद था मैं. एहसान के तले दबा एक नामुराद आदमी. हसरत होती थी, उसकी दौलत, रईसी और ठाट-बाट को देख कर. वह अच्छे बुरे वक्त में काम आया था. आर्थिक परेशानियां इंसान को पतन के रास्ते पर सहज ले जाती है. उसी तंगी के दौरे ने मुझे यहां तक ले आया. शराब भी मैंने उसी से पीना सीखा और शबाब भी चखा. वह शाम आज भी मुझे याद है. जीवन की ऐसी शाम जिसे आज भी नहीं भूल पाया... वह मुझे ले गया एक ऐसी दुनिया में जो रहस्यमयी तलस्मी थी... फिर धीरे-धीरे जाना उस रहस्य को.. परत-दर-परत खुलता चला गया...मैंने फ्रेंच, जापानी और कई विदेशी भाषाऐं सीखी, खुद को बनाने सवांरने के लिए कई कोर्स भी किये...फिर शुरू हो गया एक नया सिलसिल...विदेशी औरतों के ईर्द-गिर्द घूमती जिन्दगी...उन्हें कुछ और भी चाहिये था एक गाइड के अलावा... इसके बदले में मोटी रकम और अफरात उपहार. फिर धीरे-धीरे शुरू हुआ देशी महिलाओं का सानिध्य. कुछ दिनों तक यह सब सुखद रहा है. लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगने लगा मेरे अंदर कुछ मरने लगा है...जानती हो तिल-तिल मेरा स्वाभिमान मरने लगा था.मैं उपयोग की वस्तु बन गया था, जो मन चाही कीमत पर कभी भी किसी भी कीमत पर बिक सकता था. भद्दी, कपटी, कांमाध बर्बर औरतों के जिस्म की भूख मिटाने की वस्तु बन कर रह गया था. तब मुझे लगा मेरा यह शरीर मेरी महत्वकांक्षाओं का गुलाम है. मैं मशीन बनता जा रहा हूं.आहिस्ता-आहिस्ता मशीन के पार्ट पुर्जे घीसने लगे थे. मुझे इस पेश से वितृष्णा होने लगी थी. एक समय आया जब मैं खुद को नपुंसक समझने लगा. अब मुझे लगने लगा, मैं यूज्ड होता रहा चंद पैसों के लिए.
पल भर रूका आगे कहने लगा, मैंने तुम्हारे बारे में कई बार सोचा, कुछ कहना भी चाहा पर कह न सका. एक अज्ञात भय था मरे मन में. तुम जानोगी तो मुझसे घृणा करोगी और शायद कभी मिलने भी न आओ. तुम्हें मुझ से घृणा हो रही होगी न?
उसकी सारी बातें आखों के सामने प्रतिबिम्बित हो गयी जुगुप्सित भाव मेरे मन में तिर गया था. अब और सुनने का सामर्थ मुझ में नहीं था. उसके प्रश्नों के उत्तर मेरे पास कदाचित नहीं थे. मैं खामोश रही. वह कुछ और कहेगा... पर वह चुप रहा. वह अपने प्रश्नों का उत्तर जान लेना चाहता था. मैंने उसके चेहरे को गैर से देखा. उसकी आंखें मुझ पर ही लगी थी. उसे अपने सवाल का जवाब चाहिए था. मैंने अपनी नज़रे झुका ली कहा, नहीं.
अप्रत्याशित था यह शब्द मेरे लिए और उसके लिए भी क्योंकि ये शब्द मेरे अंतर्मन के थे. अभी-अभी उपजे भाव से कई गुणा सबल वह भौचक्का मेरी तरफ देखता रहा. फिर पूछा, लेकिन क्यों? क्योंकि मैं तुमसे ... आगे के शब्द मेरे हलक में अटक गये. मदहोशी का आलम था और अभिव्यक्ति का पहला मौका. हजारों जोड़ी आंखें तलाशने के बाद स्निग्ध स्नेह से लहराता समंदर पहली बार देखा था, जिसमें वासना या याचना नहीं थी. पल भर को मैं विचलित हो गयी. क्या कहूं. मैं नहीं चाहती थी, वह मेरे के मन को भाव समझ ले.
जानना चाहते हो क्यों? क्योंकि तुम नपुसंक हो. यह कह कर मैं जोर से हंसी, उसका पूरा वजूद चरमरा गया.
क्या तुम मुझे... उसका पूरा वाक्य अधूरा रह गया था. क्या तुम भी... पता नहीं क्या कहना चाहता था. इस के आगे उसे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. मैं हंसती जा रही था और उसका चेहरा सूर्ख होता जा रहा था. थोड़ा तमतमाया हुआ भी.
अब बारी मेरी थी, पर मैं चुप रही... प्रत्यक्ष में कुछ और, और अप्रत्यक्ष में कुछ और चलता रहा. ऐसे क्षणों में आदमी जो सोचता है वह कह नहीं पाता, जो कहता है, उसे सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता. यह एक इंसिडेन्ट था, एक घटना थी. विल्कुल अप्रत्याशित. प्रत्यक्ष में बस इतना ही कह पायी, तुम क्या हो? क्या करते हो? इससे मेरा कोई ताल्लुक नहीं, कोई लेना देना नहीं. तुम्हारे सुदर्शन व्यक्तित्व में मेरी कोई रुचि नहीं, तुम्हारे देह से मेरा कोई लेना देना नहीं. पर तुम्हारे चेहरे पर सबसे प्यारी है, वह है तुम्हारी निष्पाप आंखे, जिसे मैंने सीधी नजरों से कभी नहीं देखा.
इस के अलावा भी उसके चेहरे पर कुछ था जो उसे और भी आकर्षक बनाता था. वह अपने पेशे में इसी वजह से सफल भी रहा होगा. मैं कहना चाहती थी, और भी कुछ है तुम्हारे चेहरे पर, उसने मेरे मन के भावों को समझ लिया. उसने कहा कुछ और भी है मेरे चेहरे पर जिसे तुमने इतने सालों से बातचीत के दौरान माध्य बनाए रखा है. मेरा चेहरा सुर्ख हो गया था. वह सधा हुआ था, उसका प्रहार में सह न सकी. मैंने स्वीकृति में सर हिलाया. उसने आंखें बंद कर ली और कहा, अब छू लो.
प्यार की अभिव्यक्ति की कोई भाषा नहीं होती, कोई शब्द नहीं होते. प्यार पवित्रता-अपवित्रता की सीमाओं से परे होता है. प्रिय पात्र के स्पर्श से ही मृत संवेदनाएं जाग उठती हैं. देह, मन और आत्मा जलतरंग की अनुभूति से अहलादित हो जाते हैं. उसने भी शायद पहली बार तन और मन की एक रूकपता को महसूस किया होगा. जिन भावों की अभिव्यक्त के लिए शब्द तलाशते इतने साल गुजर गये थे. मैंने उसकी अभिव्यक्ति अपने अधर उसकी ठोढ़ी पर रख कर कर दी. मन में कई भाव संचरित होने लगे, फिर भाव शून्यता और समय शून्यता व्याप्त हो गयी. लगा जैसे समय ठहर सा गया हो.मुझे सुधि ही न रही. बस इतना भर अहसास रहा धरती अपने पंजों के बल खड़ी थी. उसके अधरों पर आसमान झुका था. चिड़ियों ने सुबह की आहट पहचान ली. हवा का एक ताजा झोंका पर्दे को फड़फड़ता कमरे में रखी हर चीज को तितर-बितर करता पूरे घर में फैल गया. उसके सिरहाने उर्वशी का पहला पन्ना खुला था. उर्वशी के वक्ष पर सर रखे पुरूरवा अब भी मुकम्मल था...

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