शनिवार, 18 जुलाई 2009

असुरक्षित द्रोपदी

वसंती बड़ी मुश्किल से माचिस और ढ़िबरी ढूंढ़ पायी. ढ़िबरी जला कर फिर कंबल में दुबक गयी. कंबल तो नाम मात्र का ही रह गया था. उस पर दसों पेंबंद लगा चादर का खोल, कंबल कम कंथा अधिक है. नीचे का पुआल ही थोड़ा सहारा है. नहीं तो इस झोपड़ी में आकर वो जम ही जाती. उसकी झोपड़ी इससे कुछ अलग नहीं थी. थोड़ी बदहाल कम जरूर थी. आखिर उसका खर्च ही क्या था. अकेली के लिए रोज की तीस रुपये की मजदूरी उसके लिए काफी ही थी. काम चल ही जाता था. उसे चिंता होती है, अभी तक उसका नवौढ़ा पति आया क्यों नहीं. उसके लिए ही खाने-पीने की चीज लाने गया है. आता ही होगा. दो चार लोग मिल गये होंगे, छेड़-छाड़ चल रही होगी. किसी के घर से अच्छे खाने की खुशबू आती है. उसकी भूख और तेज हो जाती है. भूख तो उसका नसीब बन चुका है. आज भी.. ....
यहां के घरों से अच्छे खाने की खुशबू आना लाजमी है.. ये झोपड़ी बड़ी-बड़ी इमारतों के पिछवाड़े बनी है...नहीं तो हमेशा यहां एक सड़ी सी बदबू आती रहती है...इस इलाके का सारा कूड़ा यहीं जमा होता है. और इसी कूड़े के ढेर पर बनी है रघू की झोपड़ी.
वसंती सोचती है. दो चार दिन में मैं अपना सब समान ले आऊंगी और यहीं किसी घर में चौका-बर्तन का काम भी ढ़ूंढ लूंगी, सौ-पचास रुपये तो महीने में कमा ही लूंगी. और घरों से अच्छा खाना-नाश्ता भी मिल जाया करेगा और क्या चाहिए.आखिर घर में रह कर भी क्या करूंगी. ये जो रिक्शा चलाता है, उसके पैसे से मिला-जुलाकर किसी तरह घर गृहस्थी की गाड़ी चल ही जाएगी.
वसंती आज ही रघु से सगाई कर ( शादी ) इस घर में आयी है. रघु जवानी के दिनों से ही रिक्शा चलाने का काम करता आ रहा है. उस समय रिक्शे की कमाई से अच्छी आमदनी हो जाया करती थी. एक दिन में वो सौ-सबा सौ रुपये तक कमा लेता था. जवानी में खाया-पीया और ऐश किया. शादी की, बच्चे हुए, उन्हें पाला-पोसा जवान किया. उन्हें काम धंधों पर लगाया. बीवी वक्त से पहले मर गयी.बच्चे अपने-अपने रास्ते लग गये. अब किसे फुर्सत है, इस बूढ़े की देख-भाल करने की. जब उनका अपना ही पेट खाली हो तो दूसरे को कोई क्यों पूछे? अब जमाना भी बूढ़े मां-बाप को पूछने का नहीं रहा. मां-बाप,बेटा-बेटी सब अपनी ही दुनिया में खोये हुए हैं,उन्हें रोजी-रोटी से फुर्सत ही कहां है. उसके बेटों की नीयत
भी ठीक नहीं.


अब तो वे सोचते हैं कि बूढ़े का पैर कब्र में लटका है, कब फिसल जाए और उसका पुराना रिक्शा भी उसका ही हो जाए. दूसरों का रिक्शा चलाने से क्या फायदा. आधी कमाई तो उधर ही चली जाती है. कुछ रिक्शा मालिक के पास तो कुछ कारपोरेशन वालों को देना पड़ता और कुछ पुलिस वालों को. नया रिक्शा खरीदने की उनकी औकात कहां? पुराने का दाम ही हजार डेढ़ हज़ार से ज्यादा हो गया है. अब बाबू का जीना भी किस काम का. अब क्या बचा है, उसकी जिन्दगी में, पचास की उम्र तो पार ही कर चुके हैं..
कहते हैं, साठ तो पाठ. लेकिन रघु पचास में ही सत्तर का लगता है. जो भी हो बूढ़ा तो बूढ़ा होता है. चाहे पचास में बूढ़ा दिखे या सौ साल में. इंसान बूढ़ा लगने से बूढ़ा होता है. रघु ने भी सोचा बुढ़ापे में देख-रेख के लिए भी कोई न कोई होना ही चाहिए न. बेटे बहू का क्या आसरा? रोटी-पानी देने वाले की जरूरत हर किसी को होती है. रघु को भी थी. और पैंतीस की उम्र पार कर चुकी वसती को भी. वो बेसहारा थी, उसे भी सहारे की तलाश थी. सहारा उसे भी चाहिए था. उसे प्रेम की समझ कहां? इस उम्र में देह की भूख कहां रह जाती है? है भी तो उसे इसका एहसास कहां? बस उसे सहारा चाहिए. पेट की आग तो खुद भी कमा कर बुझा लेती.
वसंती की उम्र पैंतीस की होगी. उसकी उम्र का भी कहां लेखा-जोखा है. लोग समझते हैं बस. उसके चेहरे पर बुढ़ापे की झलक दूर तक नहीं. गठा हुआ बदन. शरीर के उतार-चढ़ाव से वो पूरी जवान नज़र आती है. अब उसे चिंता किसी बात की नहीं, न मान की न मर्यादा की. अकेली कमाती-खाती थी. जो दुख था भी वो वर्षों पहले छोड़ आयी थी. अब तो उसे ख्याल तक नहीं आता. चार मर्द कर के भी वो कहां सुख पा सकी. पहले पति से तो उसका आज जवान बेटा होता. यदि वह जिन्दा होता तो शायद आज उसे ये दिन नहीं देखने पड़ते. औरत अपने बच्चों की सूरत देख कर सारी जिन्दगी काट लेती है. वो भी काट लेती. भले ही उसका पति रहे या न रहे. क्या कमी थी, उस घर में. भरापूरा घर था. अपनी खेती होती, अनाज के बोरों से घर भरा रहता. घर की चौखट पार करना भी हेठी समझी जाती थी. लेकिन उसका पति ही निकम्मा निकला. दस साल का बेटा बुखार से तप कर मर गया लेकिन उसे पैसे कमाने से फुर्सत कहां थी. बेटा मरते ही उसके लिए घर के दरवाजे भी बंद हो गये. लगा था बेटे के साथ-साथ उसकी भी मौत हो गयी. उसकी कोई संतान नहीं थी. उसकी देह पति लिए किसी काम की नहीं थी. पंसद तो अपने पति की कभी रही ही नहीं. फिर उसकी जरूरत ही क्या थी. घर से निकालते ही... उसने दूसरी शादी कर ली.
रघु ने बड़े प्यार से कहा. ले खा ले. तो वो अपने बीते दिनों से बाहर निकल कर आयी. वो कह रहा था, "कल से चूल्हा चौके का इंतजाम हो जतऊ,तब अपने बनइहें खईहें"..उसके हाथों में कचौड़ी-जलेबी का दोना था. उसे अच्छा लगा. रघु उसकी उम्र से दोगुना जरूर लगता है, पर वो उसका ख्याल तो रखता. उसे तसल्ली होती है.उसे वो दिन याद हो आया, जब उसकी पहली शादी हुई थी. तब कितना धूम-धड़ाका हुआ था. ब्याह का तो उसे ज्यदा कुछ याद नहीं. शादी में तो वो ससुराल भी नहीं गयी थी. रोस्गदी में ही उसकी मां ने उसे लाद-साज कर ससुराल भेजा था. सामान देख कर उसकी सास खूब खुश हुई थी. पर उसका चेहरा देखते ही मुंह बनाया था. सबसे कहती फिरती थी, अगर हम एकरा बिआह में देखती अई हल तब रोस्गदिये न करतीये हल. हमर गोरा चिठ्ठा बेटा में तो ई पेऊन लगहई. हम एकरा साथ अपन बेटा के न रहे देबई. औकरा हम दूसर बियाह करबई. ( अगर मैं शादी के वक्त देखती, तो इसे विदा कराके घर ही नहीं लाती. मेरे गोरे-सुन्दर बेटे में ये पैंच सी लगती है. मैं इसके साथ अपने बेटे को नहीं रहने दूंगी. दूसरी शादी करवा दूंगी) वसंती को किसी तरह एक बेटा हुआ, लेकिन वो भी न रहा. वैसे भी उसके पति ने उसे अपना बेटा कभी नहीं समझा. उसकी शकल मां की तरह. आखिर काली कलूटी वसंती का बेटा भी काला. इसी उपेक्षा ने उसके बेटे की जान तक ले ली. वो एकदम बेसहारा सी हो गयी.
उसे याद हो आया, एक दिन उससे रघु ने पूछा था, ऊ दिन तोरा से रामजन मिस्तिरी का कहत रहऊ?..वसंती चुप रही, कहती भी तो क्या ..जितनी अभद्र बातें वो कह रहा था, वैसी बातें कोई शरीफ औरत अपने मुंह से नहीं कह सकती. लेकिन वो तो अब ऐसी बातें सुनने की आदी हो गयी है. मर्दों के साथ जब कुली-बेलदारी का कमा करना है, तो सब कुछ सुनना-सहना ही पड़ेगा. इंसान को पेट के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता. वह मेहनत-मजदूरी कर के दो वक्त की रोटी कमाती रही है. देह का तो सौदा नहीं करती. अगर किसी से समझौता किया भी तो सिर्फ सहारे के लिए. रघु से शादी भी तो एक समझौता ही है न. पता नहीं इस बूढ़े का...क्या ठिकाना. पता नहीं कब...
एक दिन तो हद ही कर दी थी रामजन मिस्त्री ने तो, कह रहा था तू ऊ राजमिस्त्री के साथ रहहलीं तब तोरा सरम न लग हलऊ. कौन मार बियाह कर के रहहले रखनीये न हले.कौन हम तोरा जिन्दगी भर साथ रहे ला कह रहलिअऊ हे. रात दू रात के तो बात हऊ. पैसा चाहिअऊ तो रख ले दस पांच रुपया. और का चाहउ लाख दो लाख, ( जब तुम उस राजमिस्त्री के साथ रहती थी, तो तुम्हें शर्म नहीं आती थी. क्या तुम ने शादी की थी. उसकी रखैल ही तो थी. मैं तुम्हें जिन्दगी भर साथ रहने को कह रहा हूं, रात दो रात की तो बात है. पैसा चाहिए तो रख लो दस-पांच रुपये और क्या तुम्हें, लाख दो लाख चाहिए) मर गयी थी, वो जीते जी मर गयी थी, लगा आसमान फट पड़ा है. उसके सामने. काश जमीन फट जाती. वो रामदेव मिस्त्री के साथ रहती थी. बिन ब्याहे ही तो क्या हुआ. उसने उसे मान-सम्मान और प्यार तो दिया ही था. उसने उससे ऐसी गंदी बातें नहीं कीं. अगर ब्याह न किया तो न सही. माना इसमें उसका स्वार्थ ही रहा होगा. कमाऊ औरत खुद अपना पेट पाल लेती थी, उसके लिए रोटियां भी सेक देती. अगर आज वो होता तो किसी को ऐसी बातें करने की हिम्मत नहीं होती. कुछ रिश्ते मन से जुड़े होते हैं, उसके लिए शादी- ब्याह जैसे रीति की जरूरत नहीं होती. भले लोगों की नज़र में वो रिश्ता नाजायज हो, लेकिन जिस रिश्ते को आत्मा स्वीकार करती हो, वो रिश्ते कभी नापाक नहीं होते. गलत तो वो रिश्ते होते हैं, जो दिखावट में कुछ और असल में कुछ और होते हैं, और जिन्हें छुपाने के लिए रिश्तों की आड़ देने की जरूरत होती है. वसंती को इतनी समझ कहां पर उसे रामदेव मिस्त्री का साथ सुकून देता था.
रामदेव के जाने के बाद लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे, लोग कहते वसंती को रामदेव धोखा दे गया. दिल भर गया होगा. पता नहीं क्या-क्या. पर वो जानती है, रामदेव का जाना लाचारी थी. उसके बीवी-बच्ची थे. वो उन्हें छोड़ नहीं सकता था. उसने उससे कुछ छुपाया भी तो नहीं, उसकी बेटी जवान थी, शादी की फिक्र थी उसे, वो उन लोगों में कम से कम नहीं था, जो न तो बीवी से वफादारी करते हैं और न किसी और से. जो भी हो आखिर उसे मिला क्या. सिर्फ दरदर की ठोकरें खाने के सिवाय. चार मर्द कर के भी. उसे क्या सुख मिला, उसकी किस्मत में वक्त से समझौता करने के सिवाय रखा क्या है.
वसंती की दूसरी शादी की भी लम्बी कहानी है. जब वो पहले पति के घर से बेरहमी से निकाली गयी थी, तब वो चार कोस पैदल चल कर अपने मायके गयी थी. महीना दो महीना तो लोगों ने खिलाया- पिलाया और फिर, भाई-भाभी के ताने-बाने शुरू हो गये. और फिर शादी की सलाह, मां-बाप के बिना मायके क्या, आखिर ब्याह दी गयी, सात बच्चे के पिता लंगड़े खैनी बेचने वाले से. घर चलाना आसान नहीं था, उसके लिए, उसे भी सर पर टोकरी उठानी पड़ती. दिन भर की बेलदारी की थकान शाम होते ही घर में कलह और मार-पीट. अपनी कमाई खा पी कर उड़ा देता और उसकी कमाई से घर चलता. ऐसा कब तक चलता. आखिर औरत थी, अपना बच्चा पालना होता तो सब सह लेती. पर सतवा( सौतेले) के लिए कौन सहता है. सात सालों तक सहती रही. आखिरकार वो घर भी छोड़ना पड़ा उसे. उस घर से निकलने के बाद एक बार फिर बेसहारा हो गयी. दर दर की ठोकरें खाने के बाद, उसका सहारा बना रामदेव मिस्त्री. रामदेव से उसे अपनापन मिला था. क्यों नहीं रहती उसके साथ, उसका सुख-दुख समझता था वह. पर बरसात का मौसम और मर्द पर क्या भरोसा. बदलने के सौ बहाने होते है. शायद लोग सच ही कहते हैं. रामदेव ने बसंती को धोखा दिया. वह भी कभी-कभी ऐसा ही सोचती है.
रघु भला आदमी है, बाप जैसा लगाता है. मजबूरी जो न कराये. नारी चाहे कितनी भी सबल और स्वाबलम्बी क्यों न बन जाए, गिद्धों का समाज उसे अकेले जीने नहीं देता. गिद्धों से बचने के लिए आड़ की जरूरत होती है, भले ही ठूंठ पेड़ की ही क्यों न हो. उस दिन सारा तमाश रघु के सामने ही हुआ था, बुधई बढ़ई मिस्त्री कितनी गंदी बातें कर रहा था. रघु ने उसे मना किया तो उसे भी चार बातें सुननी पड़ी. तू भी तो इससे मिठ्ठा बतियाता रहता है.बूढ़ा होकर तुम्हरा ई हाल है तो हमनी सब तो जबान हैं. रघु तिलमिला गया था, जरा सरम करो सरम.
सरम का करें, तू का एकर बाप लगता है, तू भी तो एकर इयारे हैं न. ज्यादा है तो तू ही रख ले. रघु के मन ने चाहा उससे भिड़ जाये, पर अपने शरीर की हालत देख कर चुप रह गया.
जहां बसंती काम करती थी, उसके मालिक को रघु लाने ले जाने का काम करता था, उसके पिछवाड़े में बनी झोपड़ी में रहती थी. रघु से बसंती की जान-पहचान भी यहीं हुई थी. एक दूसरे से बीड़ी-उड़ी मांग कर पी लिया करते थे. दोनों ने एक दूसरे के सहारे की जरूरत महसूस की और फिर एक दूसरे की रजामंदी से शादी कर ली.
दिन महीने और साल बीते. दो-तीन साल में ही रघु इतना बूढ़ा हो गया कि रिक्शा चलाना उसके लिए मुश्किल होने लगा. चार कदम के बाद ही उसकी सांस फूलने लगती. कोई उसके रिक्शे पर बैठना नहीं चाहता. इस भागती हुई दुनिया में किसे इतनी फुर्सत है कि कुछ मिनटों का सफर घंटों में करे. पेट भरने के लिए पैसा तो चाहिए ही. इस ठूकुर-ठूकुर की कमाई से कैसे घर चलता. घर चलाने के लिए रुपये-पैसे तो चाहिए ही. दिन ब दिन आटा -दाल तेल-तरकारी सबकी सब महंगी होती जा रही हैं. बसंती चून-बीन कर लकड़ी ले आती है. पर आटा-दाल के लिए तो पैसे चाहिए ही. कोठियों में चौका-बर्तन से दोनों का पेट नहीं भरता. बसंती फिर बेलदारी करने लगी. उन्हीं मर्दों के बीच. उसे वैसी ही बातें सुननी पड़तीं हैं. रघु सब जानता है. वो दिन ब दिन और कमजोर होता जा रहा है. उसका कोई आसरा नहीं, उसके जीने की उम्मीद अब नहीं रही. रात-रात भर खांसता रहता है. दो चार कदम चलना भी उसके लिए मुश्किल सा हो गया है.

एक दिन बसंती फिर बेसहारा हो गयी.रघु का साथ अब उसे नहीं रहा. उसे फिर सहारा तलाशना पड़ रहा है. गिद्धों से आड़ के लिए, इस तपती जिन्दगी की धूप से बचने के लिए, कितने दिनों तक लोगों की बातें सुनती रहेगी. आखिर एक दिन उसे रामजन की बात माननी पड़गी, सौ-पचास रुपये के लिए. नहीं वो कभी नहीं करेगी वो सब, भले ही उसे पांचवा मर्द करना पड़े, लेकिन क्या वो पांचवां आखिरी होगा ?

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