गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

सारांशहीन जिंदगी

समझौता, किससे? स्वयं से या परिस्थितियों से? शायद संभव होता तो कर लेता. लड़ता आया हूं, महत्वकांझाओं से. कब तक लड़ता रहूंगा. जिन्दगी का हर ब्याकरण मुझे गलत और निरर्थक लगता है. मैं निराश हो गया हूं. पराजीत हो गया हूं. नहीं, नहीं मेरा वजूद अब भी जिन्दा है, लेकिन कब तक... कब तक जिन्दा रहेगा.यह उसकी डायरी का एक पन्ना है, जो शायद उसकी गलती से मेरे पास आ गया था. मैं उसे लौटाना भी नहीं चाहती थी. चाहकर भी नहीं लौटा सकी, क्योंकि उसका हर शब्दा मुझे अच्छा लगाता था, उसकी लिखने की शैली, उसके टूटे-अधूरे शब्द. तीन बिन्दुओं को रेखांकित करती उसकी अनकही बातें. वह शब्दों का कृपण था. उसे हमेशा डर लगा रहता मैं उसके शब्द चुरा न लूं. वह मुझे कब देने वाला था शब्दों से भरा पन्ना भी.वह किसी नाम का पर्याय नहीं था इसी लिए मैं उसे अपर्याय ही समझा.ऐसा नहीं था कि मैं उसके व्यक्तित्व की आंच से न झुलसी थी, लेकिन, मेरे अहम का बितान उसके अहं के बितान से छोटा नहीं था. चाहकर भी हम दोनों अपने-अपने से बितान से नहीं निकल सके. बस झांकते ही रह गए. हम दोनों ही एक-दूसरे की कहानी के पात्र थे. महज कहानी के पात्र. उसका ब्याकरण गलत था और मेरा गणित. वह मेरा आलोचक था. मैं उसकी प्रशंसिका. बावजूद एक-दूसरे को पराजीत करने की होड थी, लेकिन उसका ‘तुम” संबोधन मेरे लिए जय-पराजय की परिधि से परे था. उसकी प्रतिभा की गंध मेरे मन में थी, तो दूसरी तरफ उसकी उसी प्रतिभा की तेज मुझे झुलसाये रहता था. उन दिनों मेरा और उसका डेस्क पास ही बराबर में लगा हुआ था. वह चुपचाप आकर बैठ जाता, घंटों काम करता रहता. उससे बात करने के लिए मुझे ही पहल करनी पड़ती थी. औरों की तरह उसे चाय-पान का भी शौक नहीं था. बस कहीं जाना होता तो एकाएक उठकर चला जाता, लेकिन उसके विपरीत चुप रहना मेरी लिए सजा थी. मैं चुप नहीं रह सकती. मैं आस-पास के बैठे लोगों से बेवजह ही बातें करती. मैं जानती थी कि उसे अच्छा नहीं लगता है. मेरा लोगों से बतियाना, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी, मेरे अतिरिक्त दूसरा महिला कर्मचारी भी नहीं थी. अगर होती तो मैं न स्वयं को जान पाती और न उसे भी. प्राय: वहां सभी लिखते थे. परन्तु मैं उसके लेखन से आहत थी. उससे भी ज्यादा आहत थी उसके अहंकार से. बारिश की उस शाम को मैं आज भी नहीं भूल पायी हूं. बारिश घंटों बाद भी जारी थी. हल्के-फुल्के छींटे पड़ रहे थे. लगभग सभी जा चुके थे. मेरा उसका एक साथ ही निकलना हुआ. मैंने रिक्शा ले ली. वह रोज पैदल ही जाया करता था. उसका यह फक्कड़ मिजाज मुझे अच्छा लगता और बुरा भी. बारिश की बूंद उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं थीं. भींगना, ठिठुरना और तपना उसकी आदत सी थी. पर न तो उसे मेरी तपिस का अहसास था और न ही इन बूंदों का. उस दिन भी वह बेफिक्र अपने विचारों में गुम चला जा रहा था. बादल अभी साफ नहीं हुए थे. बारिश होने की अभी पूरी आशंका थी. रिक्शेवाले ने चारों तरफ से प्लास्टिक लगा था. ताकि में कहीं से न भींगू. खुद भी प्लास्टिक का ठोंगा ओढ़ लिया था. वह भी कहीं से नहीं भींग रहा था. वैसे भी मेरे पास छाता रहा करता था, जो मैं अक्सर रिक्शेवाले को दे दिया करती थी. वह महाशय भींगते ही चले जा रहे थे. मैंने अचानक ही रिक्शा रोक कर कह दिया. “ आप भींग जाएंगे, मेरे पास छाता है, ले लीजिए. नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूं. रास्ते भर बारिश होती रही. मैं उसके भींगने की कल्पना से ही द्रवित होती रही. घर जाने के बाद उसके भूरे बालों में अटकी बारिश की बूंदों में ही मेरा मन उलझा रहा.कई बार मुझे लगा वो कुछ कहना चाहता है. मैं भी कभी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पायी. वह कहना चाहता था. तीन बिन्दुओं में अपनी सारी बातें और मैं जानना चाहती थी उसकी असंबद्ध बातों के बीच आये शब्दों में उसके मन के भावों का अर्थ. तीन बिन्दू मेरे लिए अस्पष्ट थे असंबद्ध वातें उसके लिए व्यर्थ. कई बार मैं उसके अल्प शब्दों का विश्लेषण करती. ढूंढ़ती उसे कहे गये शब्दों का पर्याय. उसके स्पष्ट-अस्पष्ट शब्दों के जाल में फंस कर रह जाती. फड़फड़ाने लगती मकड़े की जाल में मधुमक्खी की तरह.यूं ही तीन साल गुजर गए. उसके ख्यालों में ही मैं पल-पल जीती रही. नही के द्वीप में लगे बट वृक्ष की तरह वह मेरे मन में अपनी जड़े फैलाता रहा. उसने तरक्की के सारे फासले तय कर लिये. मुझे तब एहसास हुआ, जब उसे अखबार के प्रधान संपादक बनाए जाने की बातें लोगों में होने लगी. तीन साल गुजर जाने के बाद भी वह अपनी जगह तटस्थ रहा और मैं अपनी जगह. उसके जाने की पूरी तैयारी हो रही थी. अब केवल दो दिन ही शेष रह गये थे. मुझे लगने लगा था, मेरे मन का अंश टूट रहा है. मेरी कलम की नींव कहीं से दरक गयी है. शब्द खामोश हो गये हैं. उसके तेबर की किरण, जो विकिरण होकर मुझ तक आती थी. हवा में कहीं लुप्त हो गयी थी. उस दिन मैं समय से पहले ही पहुंच गयी थी. अभी देर थी लोगों के आने में. मैं अकेली, अपने डेस्क पर बैठी, लम्बे शीशे के पार, नीले आसमान के रंगों के बदलाव को देख रही थी. बादल नीला, सफेद,स्याह रंगों में बदल रहा था. अचानक वह मेरे पास आया. आश्चर्य था उसका मेरे पास आना, उससे बड़ा आश्चर्य था उसके कहे शब्द, “तुम मुझ से शादी करोगी” ?
मैं स्तब्ध रह गयी. एकटक मैंने उसकी आंखों में देखा. वही शांत, भावहीन, शून्य में ताकती आंखें, दो मेरे चेहरे पर टिकी थी. एक क्षण को मैं पथरा सी गयी. मेरे अधर हिले, ‘तुम मजाक तो नहीं कर रहे’
-‘नहीं’ ‘फिर अचानक ऐसी बातें’
-इतने दिनों की भूमिका क्या कम थी ?
मेरा चेतना लौट आयी. अहं का बितान मैंने खींच लिये- ‘नहीं यह कभी संभव नहीं हो सकता.’
‘लेकिन क्यों’ ? ‘क्यों’ का कोई जवाब मेरे पास नहीं है. आप और मुझ में आसमान जमीन का फासला है, जो कभी तय नहीं हो सकता’ घबराहट में मैं असंगत बातें कह गयी थी. अनजाने में ही मैं उसके ‘अहं” को चोट कर गयी थी. स्त्री अपने चरित्र पर और पुरुष ‘अहं’ पर चोट बर्दाश्त नहीं कर पाते. वह तिलमिला गया. -‘ खुद को तुम क्या समझती हो ?’
- ‘ जो मैं हूं’
-‘मैं औरों जैसा नहीं हूं’
-‘मैंने कब कहा ? आप जो भी हैं लोगों से अलग नहीं हैं.’
-‘तुम मुझे कभी नहीं भूल पाओगी’
-‘मैंने आपको याद ही कब किया है?’
सच मैं उसे कभी नहीं भूल पायी. वह मेरी कहानियों में कई बार छद्म रूप में आया. उसका छद्म रूप मुझे अभिन्न कभी नहीं रहा. आज उसे शोहरत मिली. मुझे भी, लेकिन, मैं इतिवृत में ही सिमटी कर रह गयी. वह छपता रहा रोज नये अखबारों में, नये आयामों में नये शब्दों के साथ. आज मेरे पास सब कुछ है. सुख-वैभव की समस्त चीजें. अच्छे ओहदे का पति, बच्चे, सब कुछ, लेकिन मुझे लगता है, उसके बेगैर अपनी रचनाओ में निर्रथक सारांश और लक्ष्मण रेखा में घिरी सारांशहीन जिन्दगी.

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