गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

काश! कुर्सी टूट जाती

गांव शुरू होते ही शुरू होती हैं, छोटी-छोटी झोपडियां और आखिर में आलीशान इमारत. गांव का सबसे पुरानी और भव्य, जो अब जर्जर हो चुकी है. इमारत में जहां-तहां के प्लास्टर उजड़ चुके हैं. पूरी इमारत की रंगाई-सफाई के खर्च से तंग आकर इसके कुछ ही हिस्सों में ही ताजी सफेदी नजर आती है. हवेली का पूरा कुनबा एक कोने में सिमट गया है. बहुत कुछ बदल गया है,इस गांव में और इस हवेली में भी. आज से तीस साल पहले जी टी रोड के दोनों तरफ कच्चा मकान हुआ करता था और गांव के आखिर में ये इमारत. दूर से ही गांव के सबसे अमीर आदमी की हवेली होने की पहचान कराती थी. खंडहर बन चुकी ये इमारत,आज भी ये अपनी पहचान से महरूम नहीं है.यदि कुछ नहीं बदला तो हवेली के बाहर का बरामदा और उसमें झूलती कुर्सी और घर्र-घर्र करती आटे चक्की की मशीन.
दरवाजे पर गाड़ी रुकी तो मेरी तंद्रा भंग हुई. गाड़ी के आस-पास गली के बच्चे जमा होने लगे. दरवाजे पर गाड़ी रुकने की आवाज सुनकर इमारत के लोग भी बाहर निकल आए. एक-एक कर गाड़ी से सामान निकाला जा रहा था और मैं पुराने ख्यालों में डूबती जा रही थी. तब कारें इस सड़क पर कम चला करती थी और कब सरपट दौड़ती निकल जाती पता ही नहीं चलता. ननिहाल से जब आना होता तो पहले ही स्टेशन पर बग्गी भेज दी जाती. मां बित्ते भर घुघट किये बग्गी के अंदर दुबक जाती और हम उचक-उचक कर धीमी गति से पीछे छूटते खेत-खलिहान और गांव घरों को देखते. जैसे ही अपना खेत नजर आता चिल्ला पड़ते, वो देखो,अपना खेत. दूर दिखाती उंगुलियों के इशारे में मां एक से दिखते खेतों में अपना खेत ठूंठती और हम कहते , हां वही वाला जिसमें गेंहू की सुनहरी फलियां सबसे ऊंची लहरा रही हैं. अपना खेत हमें सबसे बड़ा और उसमें लगी फसल हमें सब उन्नत लगती थी. खेत-खलिहान दिखाते हम कब घर पहुंच जाते हमें पता ही नहीं चलता. ऐसे ही सामान उतारा जाता. मैं घर पहुंचते ही बरामदे में लगी कुर्सी की और लपकती. पर बैठने से पहले ही रोक दी जाती. बरामदे में लगी कुर्सी दादा जी की याद में रखी हुई है. इस कुर्सी पर घर के मर्द गाहे-बगाहें ही बैठते हैं. जबकि घर की औरतों को इस पर बैठने की रत्ति भर इजाजत नहीं हैं. यहां तक की अकेल में चोरी से भी नहीं.
कुर्सी पहले की तरह अब भी झूल रही थी पर पहले वाली चमक नहीं रह गयी थी. बार-बार मरम्मत न होने की वजह से लकड़ी के जोड़ों का पेबंद साफ दिखाई देती थी. कुर्सी
पर नजर पड़ते ही दादा जी की काल्पनिक आकृति आखों के सामने झूलने लगी. मैं हमेशा सोचा करती थी कि दादा इस कुर्सी पर बैठे कैसे लगते होंगे. लोग कहते हैं, दादा के समय में बरामदे में बड़ी रोनक रहा करती थी. दादा की जमींदारी में सैंकड़ों गांव थे. उनकी तूती बोलती थी. वे इसी कुर्सी पर बैठकर रईयत, पटवारी और नुमाइंदों से हिसाब-किताब और जवाब-तलब किया करते थे. कुर्सी हमेशा झूलती रहती. चाहे वो कुर्सी पर हों या नहीं. हमेशा झूलती कुर्सी उनके होने का एहसास करती थी. यहां तक की जब कोई हवेली के रास्ते से गुजरता तो यह जरूर देख लेता कि जमींदार साहब हैं या नहीं. यदि गलती से भी अदब-सलाम किए बगैर गुजर जाता तो उसकी खैर नहीं. अंग्रेज चले गये, जमींदारी खत्म हो गयी. पर हवेली में रौनक-अदब कई सालों तक बरकरार रहा. इतना जरूर था कि अब दादा रइयत-पटवारी से हिसाब-किताब न कर गेंहू-पिसवाने वाले ग्राहकों और नौकरों से हिसाब-किताब किया करते थे. भीड़ वैसे ही लगी रहती, जैसे जमींदारी के दिनों में हुआ करती थी. जमींदारी खत्म होते ही दादा जी ने बड़ी चालाकी से काम लिया, इमारत के इसी बरामदे में आटा-चक्की, चावल, तेल की मशीनें लगा ली. कहते हैं,उस वक्त शहरों में ही ऐसी मीलें हुई करती थीं.कई कोस से लोग यहां आते थे. रात-दिन मशीनें चलती रहतीं.
दादा जी की मौत के बाद बरामदे में पड़ी कुर्सी उसी तरह झूलती रही. मैंने उन्हें नहीं देखा, पर सुनते हैं,उनकी मौत के दस साल बाद मेरा जन्म हुआ था. जमींदरी तो खत्म हो गयी,पर कई वर्षों तक हवेली में रौनक और उसकी ठाट-बाट बनी रही. कुर्सी उनकी शान-शौकत की निशानी थी. कुर्सी पर बैठने की इजाजत तो बच्चों को भी नहीं थी. हां इसी बरामदे के एक कोने में लगे आदमकद तराजू के पलड़े पर हमारा पूरा आधिपत्य था और खासकर एकलौती होने से मेरा आधिपत्य छिन जाने का खतरा भी नहीं था. उसके एक पलड़े पर मन-दो मन का भारी भरकम बाट रहता और दूसरे पलड़े पर मैं कुर्सी वाले अंदाज में झूलती रहती. मेरा एक अलग सम्राज्य था. बावजूद मैं मौका मिलते ही कुर्सी पर झूलने से बाज नहीं आती.
आज भी पलड़ा और कुर्सी उसी अंदाज में झूल रहा था. मुझे याद हो आयी, सूरदास की वो पंक्ति, बूझत श्याम कौन तू गोरी, कहां रहत काकी है छोरी, लेकिन यहां मामला उलटा था. मैं पलड़े पर बैठी दादा की कुर्सी वाले अंदाज में झूल रही थी. एक अंजान लड़का पलड़े की वायीं तरफ आकर खड़ा हो गया और पेंग पर अपनी नजरें हिलाते मुझे देखता रहा. वो हमउम्र या थोड़ा बड़ा होगा तब अंदाज लगाना नहीं आता था.गोरा मासूम और बेहद प्यारा. गंजीनुमा शर्ट और अंडरवियरनुमा पैंट और उससे लटकता जारबंद. मैंने पूछा तुम कौन हो ? कहां से आए हो ? तुम्हारे बाप का नाम क्या है? उसने संकोच से अपना नाम बताया, गोपाल. तब तक उसका पिता आ चुका था. अब उसके परिचय की हमें कोई जरूरत नहीं थी. मैं उसके पिता को अच्छी तरह जानती थी. उसका बाप ग्वाला है. दूध बेचता है. पास के ही किसी गांव में रहता है. गेंहू पिसवाने आया करता है. पैसे के बदले में घी, दूध, दही दे जाती है, मैंने शाही अंदाज में शायद दादा की तरह सर हिलाते हुए कहा, तो ये तुम्हारा बेटा है, उसने कहा, जी हां. और गोपाल का हाथ पकड़कर वहां से चला गया. भीड़ के उस हिस्से में जहां आंटा पिसवाने वालों की कत्तार लगी रहती थी.
स्कूल में जब मैंने पहली बार उसे देखा तो अच्छा लगा. वह एक कोने में बैठा मुझे देखता रहता. मेरे कपड़ों को निहारता, मेरे साथ खेलने के लिए पास आने की कोशिश करता और फिर ठिठककर रह जाता. वो मेरा हमेशा ख्याल रखता. खेल के समय और बदमाश बच्चों से भी. मैं उसकी नजर में क्या थी पता नहीं, एहसास था पर समझ नहीं.
अब वो अकसर अपने पिता के साथ आने. गेंहू पिस जाने तक मुझे पलड़े पर झूलते देखता रहता. मुझे अपनी भव्यता का बोध उसके साथ झूलने का निमंत्रण नहीं देने देता लेकिन उसे देखकर दादा जी के कमरे में लगी तस्वीर की लड़की और झूला झूलाते लड़के की तस्वीर मेरी आंखों के सामने साकार हो जाती.
एक दिन वह फिर उसी तरह आकर खड़ा हो गया. मैं झूलती रही, दो चार पेंग लेने के बाद मैं रुकी, उसे अपने पास बुलाया. उसने मेरी रेश्मी फ्राक को छूआ और फिर दोनों हाथ पीछे मोड़ कर खड़ा हो गया. किसी आदेश के इंतजार में. मैं झूलती रही और वो मुझे झूलाता रहा है और न जाने कब मेरे साथ पलड़े पर खड़ा होकर झूलने लगा, मुझे पता ही नहीं चला. हम घंटों झूलते रहे. वो जब भी आता हम उसी तरह पलड़े पर झूलते रहते या कुर्सी के चारों तरफ घूम-घूम कर एक दूसरे को छूने का खेल खेलते. शुरू-शुरू में घर के बड़े यहां तक की नौकर भी खेलने से मना नहीं करते लेकिन बाद में तो उसे देखते ही हमें अंदर जाने का आदेश दे दिया जाता या अंदर से बुला लिया जाता. इसके बाद तस्वीर में झूलती लड़की हवेली में कैद कर दी गयी. मेरा मर्यादा का ये अतिक्रमण मान्य नहीं था. मेरा झूलने का शौक देखते हुए मेरे लिए आंगन के बरामदे में झूला डाल दिया गया, जो आंगन और बरामदे के बीच झूलता रहता और मैं उसपर बैठी गुनगुनाती रहती. घर की देहरी पार करने की बंदिशें शुरू हो गयीं थी. कभी-कभार बाहर बरामदे में गुड्डियों का ब्याह रचने या दूसरे खेल-खेलने चली जाती लेकिन अगल ही पल डांटकर अंदर भेज दी जाती. स्कूल में भी दो हिस्सों में कत्तारें लगने लगीं. जिसके एक हिस्से में लड़के और दूसरे हिस्से में लड़कियों बैठा करती थीं. खेलकूद में भी लड़के लड़कियों की टोली अलग होती थी.
घर में सामान बंधता देख पता चला कि हम शहर जा रहे हैं. तीसरी के बाद आगे की पढ़ाई गांव में नहीं होती थी और चार मील दूर कस्बे के स्कूल में लड़की को भेजने की जहमत उठाना नहीं चाहते थे. मां की जिद्द से हम शहर जा रहे थे. वो नहीं चाहती थी कि गांव की लड़कियों की तरह हम अनपढ़ रह जाए. शहर जाने की बात हमें अच्छी लगी. शायद इसलिए कि अब स्कूल जाने के लिए बस आयेगी और शहरी अंदाज के स्कूल ड्रेस भी. और न जाने क्या सोच-सोचकर में खुश होती रही. इस खुशी के बावजूद गुड्डा-गुड्डिया,घर-घरोंदा छुट जाने का दुख सालता रहा. मगर धीरे-धीरे किताबों की बोझ तले सब दब कर रह गया.
शहर आने के बाद गांव आने का मौका न के बराबर ही आया. गांव आयी भी तो एक आधे दिन में ही लोट गयी. गांव के किस्से कहानियां सुनने को जरूर मिलती रही. उन्हीं दिनों पता चला कि मुझे कंधे पर बैठाकर स्कूल लाने-लेजाने वाले रामखेलावन के पिता का चेहरा मेरे दादा जी से मिलता था और रामखेलावन का चेहरा मेरे पिता से. रामखेलावन का चेहरा तो मुझे आज भी याद है. मेरे पिता की तरह दप-दप गोरा. सुना था रामखेलावन की दादी मागो विधवा थी और मेरी परदादी की सेवा-टहल करती थी. दिन-रात की सेवा-टहल का परिणाम का था वह. परदादी अपने साथ उसे भी मायके ले गयी. पांच महीने बाद गांव वापस आयी तो उसकी गोद में रामखिलावन का पिता था.
बताते हैं रामखेलावन की मां रधिया बड़ी खूबसूरत थी. शादी होते ही बड़े साहब की भेंट चढ़ गयी और फिर पैदा हुआ रामखेलावन. उसे देखकर तो लोग दांतों तले उंगुली दबा लेते थे. हाय कैसा कुदरत का करिश्मा है. पाप नहीं छिपता... पर बड़े साहब का सीना और गज भर चौड़ा हो गया था. उन्होंने परम्परा निभाने में कोई कोताही नहीं की थी. रधिया भी जीवन भर महारानी जैसा सुख भोगती रही.
धीरे-धरे आस-पास के गांवों में भी आटा चक्कियां लग गयी. भीड़ और आमदनी दोनों ही कम हो गयी. हवेली की खुशहाली बदहाली में बदल रही थी. न तो गांव में हमारी जरूरत रह गयी थी और न ही गांव जाने की हमने जरूरत समझी. कॉलेज के अंतिम साल में शादी की बात शुरू हुई, फिर चट मंगनी पट ब्याह. वे लोग शादी के बाद तुरंत वापस चले गए. एक तरफ मुझे ले के लिए पासपोर्ट वीजा की कई कानूनी अड़चने थी. दूसरी लोगों ताने. ब्याही बेटी मायके में ही सड़ेगी. इन सब बातों ने हमें परेशान कर दिया था. उसका असर मेरी सेहत पर पड़ा. पहली बार लम्बे समय के लिए हम गांव आए.ताकि मेरा मन बदल सके. ज्यों-ज्यों समय बितता जा रहा था, मेरा मन डूबता जा रहा था. मुझे यकीन सा हो गया था कि वे लोग मुझे नहीं ले जाएंगे. यह कोई पहली घटना नहीं थी. विदेश में ब्याही रिश्ते की कई लड़कियां अपनी किस्मत पर रो रही थी.
इतने वर्षों में गांव की पूरी शक्ल ही बदल गयी थी. सड़के चौड़ी हो गयी. सड़क के किनारे होटल चाय-पान की कई दुकाने खुल गयी. स्कूल पांचवी से बारहवीं तक हो गया. गांव के कच्चे घर हमारी हवेली से ऊंचे और पक्के बन गए. ऊंची जाति की औरतें खेत खलिहानों में जाने लगी थी. सुना था कि गांव में ऊंची जाति के मर्दों का उद्धम खुले आम हो गया. घर के मर्दों का खासकर जवान लड़कों का खेत-खलिहान में मुसहरों की औरतों के साथ रंगरेलिया आम बात हो गयी थी. रात-रात भर घर के लड़के उनकी सोहवत में पड़े रहते. इनकी औरतें अपना बड़ा से पेट लिये अपने दावेदारी कर जातीं. नकदी रुपए से लेकर दाल-चावल, आटा तेल घर के भंडार से निकलकर इनकी रसोई में पहुंच जाता. न सिर्फ हवेली में बल्कि गांव के दूसरे रईसों के घरों में बदहाली साफ दिखने लगी थी. छोटी जाति के लड़के और ऊंची जाति के लड़कियों के किस्से दबी जुबान में खूब होते. इन सब के बावजूद बरामदे में रखी कुर्सी पहले की तरह झूलती रहती. लाचारी में घर के पुरुषों का या मेहमानों इसी कुर्सी पर बैठना पड़ता. गौशाले में न तो गायें थी और न ही दरवाजे पर बंधे बैलों की जोड़ियां खेतों पर बंटाइदारों का कब्जा हो चुका था.
मेरे आने की खबर सुनकर मुझ से मिलने वालों का कम तरस खाने वालों का जमावड़ा लग गया. मैं कई दिनों तक मदारी के बंदर की तरह तमाशे की चीज बनी रही. मैं प्राय: उसी कुर्सी पर आकर बैठ जाती और सड़कों पर गुजरते ट्रक, बस और कारों को देखती और बचपन की यादों में डूब जाती. लगता मैं कुर्सी पर नहीं पलड़े पर झूल रही हूं.
पलड़ा धीरे-धीरे झूलता रहा. चक्की उसी रफ्तार में चलती रहती. ग्राहक आते और चले जाते. मुझे न ग्राहकों में रुचि थी और न ही आने-जाने वालों से.
चक्की बंद हो गयी थी. सभी ग्राहक जा चुके थे. नौकर कहीं किसी काम में व्यस्त हो गया था. किसी के पास आने से मेरा ध्यान भंग हो गया. मैंने नजरें उठाकर देखा, सामने सांवला सा नौजवान आटे का गठ्ठर लिये खड़ा था और मुझे पहचाने की कोशिश कर रहा था. उसे देखते ही मैं खड़ी हो गयी. चहरा पहचाना सा लगा. कड़ी मेहनत, धूप और रूखी बेरहम हवाओं ने उसका रंग सांवला कर दिया था. उसके चेहरे पर वही सादगी और मासूमियत थी. बीस साल पुरानी घटनाएं पल भर को ताजा हो गयी. वो नन्हा सा गोपाल नहीं, सुदर्शन युवक हो गया था. हम एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते रहे. वह अपनी गठ्ठरी जमीन पर रखकर खड़ा हो गया. उसके सर पर गठ्ठरी रखने वाला कोई नहीं था. मैंने उसकी गठ्ठरी उठाकर उसके सर पर रखना चाहा. न जाने गठ्ठरी कैसे खुल गयी. आटा बचाने के क्रम में हम दोनों आलिंगन बद्ध हो गए. एक रंग होकर कुछ
पलों तक हम वैसे ही खड़े रहे. जब होश आया तो मैं धम से कुर्सी पर बैठ गयी. लगा दादा की कुर्सी आज चरमराकर टूट गयी. मैं बुत बनी रही और कुर्सी अपने अंदाज में झूलने लगी. वह सर से पांव तक आटे से रंगा, जल्दी-जल्दी आटा समेट रहा था. और मैं सोच रही थी काश ! आज ये कुर्सी टूट जाती.

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