गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

काला पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू

आज रसोई से आती चूड़ियों की खनक में कोई राग नहीं था. न भैरवी न यमन न खमाज. मां जब सुबह की चाय बनाती तब मुझे भैरवी सुनाई देती थी और तब अनायास ही गले से भैरवी फूट पड़ती-सा रे ग म प ध नी सा ----सा नि ध प म ग रे सा...जा…. गो….नंदला...ल...प्या...रे...
मां की चूड़ियों में मुझे आरोह-अवरोह, स्थाई-अंतरा तान सब कुछ सुनाई देता. केतली में पानी भरे जाने से लेकर चाय बन जाने तक, एक संगीत होता. मां की चूड़ियों का संगीत. मां चाय का ट्रे बरामदे के टेबुल पर रखती तब मेरे आलाप का अंतिम स्वर होता था. पापा शायद इसी वक्त का इंतजार करते. अखबार टेबुल पर रखते और घंटी बजाते. चाय की घंटी सबको जगाने की घंटी. घंटी क्या सब लोग उस वक्त तक जाग ही चुके होते थे. मैं रियाज के लिए सुबह ही उठती थी. मां-पापा मुझ से पहले ही जाग चुके होते थे. ले-देकर भइया, जिसे जगाने के लिए घंटी की जरूरत पड़ती या चिढ़ाने के लिए. वह आंखें मलता हुआ कहता ये सुबह से ही आलाप शुरू कर देती है और पापा...आपको तो पता ही है, मैं देर रात से सोता हूं, फिर भी आप... आगे का वाक्य हम सब को पता था. हम सब हंसते मन ही मन खुश होते.
मुझे लगा अब चाय छानी जा रही है, लेकिन चूड़ियों में कोई संगीत नहीं था और न ही आलाप का अंतिम स्वर. चूड़यों की आवाज में बहुत फर्क है, शायद चूड़ियों की संख्या की वजह से. नौ-नौ या बारह-बारह होगी. मां के हाथों में सात-सात चूड़ियां हुआ करती थी. संगीत के सात स्वर. मां की चूड़ियों में एक संगीत होता था. जाना पहचाना संगीत. मां जब रोटियां बनाती तो मुझे सारंग सुनाई देता. मसाला पीसती तो मालकोश, कपड़े धोती तो धमार और जब हम सब के पास आती तो यमन सुनाई देता नी रे ग म ग रे नि रे सा...मां के हर काम में चूड़ियां खनकतीं. उसकी खनक में कोई-न कोई राग जरूर होता. अब शायद चाय का ट्रे टेबुल पर रखा जा रहा है, लेकिन पापा की घंटी सुनाई नहीं दी न ही भईया का चिड़चिड़ाना और न ही आलाप का अंतिम स्वर. मैं तानपूरे को छूती हूं. पापा इसे मेरे लिए ही लाये थे. मेरी मध्यमा पहले तार पर ही ठिठक गयी. मुझे महसूस हुआ मेरे हाथों के नीचे कोई चेहरा है. मेरा खुद का चेहरा थोड़ा रूखा और कठोर. चेहरे का अधिकांश हिस्से धने बालों से ढ़का है. मां कहती है, मैं पापा जैसी हूं. पापा का बेजान चेहरा जब पहली बार बड़ी होने पर स्पर्श किया था तो ऐसा ही महसूस हुआ था. मैंने बचपन में उनकी उंगुलियां सहारे के लिए पकड़ी. उनके चरण आशिर्वाद के लिए कई बार स्पर्श किए, लेकिन उनका चेहरा पहली बार उनकी मौत के बाद छुआ. अपना ही बेजान चेहरा, जिसपर बाल रूखापन और झुर्रियां थी. मुझे दाढ़ी से नफरत थी. मुझे याद है, बचपन में कई बार पापा अपनी दाढ़ी मेरे मुंह पर रगड़ दिया करते थे। कहते अब तुम्हें भी दाढ़ी हो जाएगी। मैं उनके चेहरे को छूती, कहती दाढ़ी बड़ी बुरी लगती है पापा. मेरे चेहरे पर दाढ़ी कभी नहीं होगी ना? पापा कहते, तुम मम्मी जैसी होगी.
मैं पापा से पूछती, पान का रंग कैसा होता है?
पापा कहते, लाल. लाओ तुम्हारा मुंह लाल कर देता हूं और मेरे मुंह में अपनी जीभ रगड़ देते. मैं थूकती, कई बार थूकती और चीखती मेरा मुंह जुठा हो गया. उसी समय से ही मेरे मन में पान की खुशबू हमेशा के लिए मेरे मन में बस गयी. पापा के पान की खुशबू. काला-पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू. जो उनके अंतिम दिनों तक यह सुगंध उनके साथ रही. यही उनकी पहचान थी मेरे लिए.
मुझे पापा ने ही बताया था कि आसमान का रंग नीला होता है. मैंने पूछा था, नीला ही क्यों? लाला पीला क्यों नहीं होता?
क्योंकि आसमान शून्य है, शून्य का रंग नीला होता है.
मुझे महसूस हुआ उनके बाद मेरा ह्रदय शून्य हो गया है. यानी नीला, आघात, चोट या शून्यता से, पता नहीं.
पापा का शव सीढ़ियों से उतारने के थोड़ी देर बाद सारा घर रो पीट कर एकदम शांत हो गया था. सब लोग नहा धोकर उनके बारे में ही बातें कर रहे थे. मैंने मां को पूरे घर में ढ़ंढ़ा. वह एक कोने में बैठी थी, अपने सारे स्वरों के टूट जाने के कातर भाव लेकर मां का चेहरा पहले कैसा लगता होगा. यह मेरी कल्पना से बाहर की बात थी. माथे पर सिन्दूर नहीं होगा, लाल बिन्दी नहीं होगी.
मां का लाल सिन्दूर, मां की लाल बिन्दी, लाल रंग...पान का लाल रंग...पान की खुशबू यानी काला पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू...घर के किसी कोने में नहीं थी. मां की सूनी कलाई...सात चूड़ियों का सरगम...मां की पहचान...पापा की पहचान... सब कुछ खो गया! सब कुछ!
शायद चाय का ट्रे बरामदे की टेबुल पर रखा जा चुका है. अठारह चूड़ियों की खनक और पायजेब की रूनझुन भैया के कमरे तक पहुंच गयी है. मां शायद छत पर सूर्य को अर्ध्य दे रही होगी या या तुलसी में जल डाल रही होगी. मां जब तुलसी में जल डालती थी, तब भी कोई राग बजता था मुझे याद नहीं. जब पहली बार राग भूपाली गायी थी तब पापा कितने खुश हुए थे. जो भी आता सबसे मेरी तारीफ करते, कहते कैसे गाती हो, इन्हें भी सुनाओ. वो वाला गाना...सा रे ग म प ध नि सा...मैं कहती सा रे ग मा प ध नि सा नहीं पापा. सा रे ग प ध सा...और मैं शुरू हो जाती द s र..s...श...न...s...दि..s ज...sए...त्रि..भू..व... न... पा…. ली...
इन स्वरों ने मुझे बहुत परेशान किया. मुझमें एक हमेशा बेचैनी बनी रहती. शायद ईश्वर को मुझ पर दया आ गई होगी. सूर को सुर दे दिया. मुझ में सुर था, लय था, रिदम था लेकिन कोई नहीं चाहता था कि मैं संगीत सीखूं. पापा भी नहीं चाहते थे. कहते थे, मेरे खानदान की लड़कियां गाएगी, बजाएगी लोग क्या कहेंगे. ये कैसे हो सकता है? उस गुरु से सिखने जाएगी जो हमारे यहां कभी तवायफों को नचवाया करते थे. बर्मा अंकल ने पापा को कई बार समझाया था, अब जमाना बदल गया है, बड़े-बड़े घरों की लड़कियां स्टेज पर गाती है. इसका जमाना आते-आते तो और भी बदल जाएगा. वैसे भी नेत्रहीन होने की वजह से इसकी पढ़ाई भी देर से शुरू की. बीस-बाईस साल की उम्र दसवीं ही पास कर पाएगी.
जब मैं पहली बार ब्रेल में लिखना सिखा था तब भी पापा बहुत खुश हुए. उन्हें लगा मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूंगी, लेकिन जब मैं खड़ी हुई तो पापा सो चुके थे. अपने पैरों पर खड़ा होने में कितना धक्का खाना पड़ा था. कई बार लगा मैं गिर जाऊंगी. घर और बाहर दोनों जगह हमें मानसिक यातनाएं सहनी पड़ती थी. बाहर की गर्द से बचने की हमेशा मेरी कोशिश रही और घर में उस गर्द की वेबजह झाड़-पोंछ होती जो मुझ पर पड़ी ही नहीं थी. भईया को पसंद नहीं था कि मैं बाहर गाऊं. उस दिन मैं तराना गा रही थी. मेरी आवाज बंद कमरे के बावजूद उनके कमरे में जा रही होगी. मैं स्वरों में खोयी थी. दुम ताना...ना...ना...दिम... ताना... ना...ना...
भईया लगभग चीखते हुए मेरे कमरे में आये, बंद करो दुम ता ना...ना.. ना...अगर तुम्हें गाने का इतना ही शौक है तो किसी कोठे पर चली जाओ. वहीं करती रहना दुम दाम. अब मुझे तुम्हारे ये सब नहीं सहे जाते. पापा का कमरा खाली है, वहीं रियाज किया करो. कम से कम तुम्हारी आवाज तो नहीं सुनाई देगी. मां-बेटी एक कमरे में भी रह सकती हो. मैं जम सी गई थी. बाद में मुझे लगा ये जमाव वक्त की सूई की है.
रसोई के बाद पापा का कमरा था फिर मेरा और उसके बाद भईया का. जब तक उनकी शादी नहीं हुई थी, बाहर के लोग उनके कमरे में ही आया जया करते थे. शादी के बाद एक कमरे की जरूर उन्होंने और महसूस की हो. शायद यह बात उन्होंने इसी बहाने कही. तब से मैं पापा के कमरे में रहती हूं. रियाज भी यही करती हूं, लेकिन अब वह संगीत सुनाई नहीं पड़ता, जो मां की चूड़ियों देता था. मैंने नए तारीके से मां की पहचान शुरू की. उनकी आहटों से, पैरों की मंथर गति से. मां की चूड़ियां खो जाने के बाद कोई राग नहीं बजा, कोई घंटी नहीं बजी. आज भी नहीं बजेगी. मां शायद कुर्सी पर बैठी मुझे आवाज दे रही है. चाय ठंड़ी हो जाएगी. आकर पी लो, न जाने क्यों कमरे में बंद रहती है. एक बूंद मेरे तानपूरे पर गिरा. बूंद तानपूरे पर फैल गया. मुझे लगा पापा का चेहरा आंसुओं से तर हो गया है. पता नहीं मां कब से चाय की प्याली लिये मेरे पास खड़ी है. आज कोई राग नहीं बजा। मुझे लगा काला-पीला तीन सौ जाफरानी की खुशबू मेरे पास पल भर ठिठक कर गुजर गयी थी.
अनिता कर्ण सिन्हा

3 टिप्‍पणियां:

  1. main aapki is post ko padhkar drawit ho gaya hoon .. man bahut bheeg gaya hai .. kya kahun.. aapke shabd jeevit ho uthe hai ..aur bahut kuch kahe jaa rahe hai ...

    bus kuch nahi kahunga .. naman aapko ..

    meri nayi poem padhiyenga ...
    http://poemsofvijay.blogspot.com

    Regards,

    Vijay

    जवाब देंहटाएं
  2. aap kuch kavitayen bhi likhne ki koshish karenn ...

    mera nivedan hai ,aap bahut acha likhti hai isliye kah raha hoon..

    जवाब देंहटाएं
  3. संजय कुमार श्रीवास्तव7 जून 2010 को 3:55 pm बजे

    अधूरी इच्छा को यादों के रूप में एक माला में पिरोना अच्छा लगा। वक्त बदल नहीं। आज भी वहीं मानसिकता है। लड़कियों को पर तमाम पाबंदियां कल बरकारार थी। आज भी हैं। उम्मीद करता हूं कल शायद ना रहें।

    पर यह सब कुछ मीडिल क्लास परिवारों पर ही लागू होता है। जरा सोचिए।

    संजय कुमार श्रीवास्तव

    जवाब देंहटाएं